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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
61. श्रीकृष्ण का वृन्दावन-विहार
तरु-शाखाएँ परस्पर जुड़ कर हरित पत्रों का सुन्दर वितान निर्माण किये रहतीं और उसके नीचे गोप शिशुओं का मधुर नृत्य, रसमय संगीत प्रवाह चलता रहता। अरण्य की इस रंग भूमि के नेता, प्रधान नट, प्रमुख गायक तो हैं नीलसुन्दर; किंतु उनकी तो प्रेरणा मात्र होती, मंगला चरण भर वे कर देते, नीलाक्त-सी हुई अपनी अरुण अञ्जलि में पूरित सुन्दर अतिशय सुरभित लघु-लघु वन्य कुसुमों को वहाँ वे बिखेर देते और फिर तत्क्षण ही असंख्य गोप शिशुओं का ‘बन्ध’ नृत्य आरम्भ हो जाता। आकाश पथ में अवस्थित विद्याधरियाँ, विद्याधर पल्लवजाल के छिद्रों से यह देखते और अनुभव करते- ‘इन शिशुओं के अंगों से व्यक्त हुई कला की तुलना में व्यर्थ है हमारा ‘चालक’ ‘चारी’ आदि नृत्य-सम्बन्धी विषयों का ज्ञान! नृत्यज्ञ होने का मिथ्या अभिमान मात्र हममें है, वस्तु तो एक मात्र सीमित है व्रजेन्द्र नन्दन के इन लीला परिकरों में ही!’ और ठीक यही स्थिति होती गन्धर्व-वनिताओं की, गन्धर्वों की- जब वे शिशु उल्लास से भरकर राग-रागिनियों के विभिन्न स्वर अलापने लगते, परस्पर संगीत प्रतियोगिता चल पड़ती उनमें। वे शिशु राग-रागिनियों का नाम-निर्देश भले न कर सकें; पर यह तो सर्वथा स्पष्ट हो जा रहा है, मानो राग कर्त्री भगवती शैलेन्द्र नन्दिनी के राग सृजन का समस्त कौशल मूर्त है केवल यहाँ, इन गोप शिशुओं के मधुमय कण्ठ की ओट में। जो हो, क्या दशा होती उन विद्याधर-गन्धर्व-समुदाय की यदि यह नृत्योत्सव, संगीतोत्सव पर्याप्त देर तक चलता रहे। किंतु वे सब आखिर शिशु ही तो ठहरे, इनके भाव परिवर्तन में विलम्ब नहीं होता। किन्हीं अपेक्षाकृत अल्प वयस्क शिशुओं ने नृत्य-संगीत से विरत हो कर एक विचित्र-सी गतिभंगी का प्रकाश करते हुए ताल ठोक ली। फिर तो लो- देखो, वहीं रंगशाला मल्लशाला के रूप में परिणत हो गयी, शिशुओं की अगणित सुन्दर जोड़ियाँ मल्लयुद्ध में तन्मय होने लगीं ठीक ऐसे मानो क्षणभर पूर्व श्रृंगारमयी कल्लोलिनी की श्रुति मनोहर ‘कल-कल’ धारा ही अब पावस के सम्मेलन से गरज उठी हो; वहाँ उसी स्थान पर अब रौद्र रस का उद्दाम प्रवाह बह रहा हो! |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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