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और वे नटराज, दलपति, इस शिशु मण्डल के कोटि प्राणि प्रिय नायक श्रीकृष्णचन्द्र कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं? वे तो रंगशाला में वह प्रारम्भिक कृत्य कर लेने के अनन्तर- अपने प्राण सखाओं के नर्तन की सूचना देकर, प्रसूनों का आस्तरण आस्तृत कर[1] अग्रज श्रीबलराम के समीप जा पहुँचे; और उनके कर पल्लव को अपने नीलसुन्दर हस्त में लिये तब से खड़े ही हैं। उज्ज्वल हास्य से रञ्जित हैं अग्रज एवं अनुज के वदनार विन्द और रह-रह कर गूँज रहा है उनके श्रीमुख से निस्सृत प्रत्येक सखा के लिये पृथक-पृथक एवं सामूहिक साधुवाद! इससे पूर्व अभी-अभी तो नीलसुन्दर ने अपने इन प्राण बन्धुओं के मुख से शत-सहस्र प्रशंसा वाक्य अपने लिये सुने हैं। इसका यत्किचित भी प्रतिदान वे दे सकें, यह लालसा उनके अन्तस्तल में कितनी प्रबल रहती है, इसे कौन बताये और यह तो सुन्दर अवसर है। इसीलिये अतिशय उमंग में भरकर राम-श्याम दोनों भाई पुकार रहे हैं परिहास गर्भित स्वर में ही, किंतु नित्य सत्य तथ्य की घोषणा करते हुए उत्साहित कर रहे हैं वे अपने क्रीड़ा परायण प्राण सहचरों को- ‘अहा हा! देखो, गन्धर्व गणों का मान गया, ले लिया इनके संगीत ने! ओह! विद्याधरो! उपहास के पात्र बन गये तुम इनके नृत्य के सामने! अरे मेरे त्रिलोक विजयी सखाओ! युद्ध में कौन ठहरेगा तुम्हारे समक्ष?’-
- ‘अहो इमे गानेन गन्धर्वगण्तिरस्कारिणो नृत्येन विद्याधरगणविडम्बका युद्धेन त्रिलोकीजित्वराः।[2]
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