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‘ठीक है, अरे सुबल! दादा के चरण तल को मेरी ही भाँति तू अपने अंक में ले कर दबा, मैं व्यजन करूँगा; अभी तक दादा को नींद नहीं आयी रे!’- इस आदेश के साथ नीलसुन्दर ने वट पत्र-निर्मित एक छोटी सुन्दर-सी पंखी दाहिने हाथ में ले ली और श्रीबलराम के मुख पर बयार करने लगे वे। पर दादा के नेत्र सरोजों में अब भी तन्द्रा का संचार न हो सका। ‘अच्छा दादा! मैं तुम्हारा सिर सहलाऊँ, फिर तो तुम्हें नींद आ ही जायगी।’- व्यजन तो चल ही रहा है, साथ ही वाम कर पल्लव से श्रीकृष्णचन्द्र बड़े भैया बलराम के सुन्दर केशों को सहलाने लगते हैं। ओह! कितना अनुराग पूरित आतुरता समायी हुई है श्री कृष्ण चन्द्र के उन सलोने दृगों में - ‘कैसे मेरे दादा की आँखों में थोड़ा-सा आलस्य भर आये!’
- क्वचित् क्रीडापरिश्रान्तं गोपोत्सङ्गोपबर्हणम्।
- स्वयं विश्रमयत्यार्ये पादसंवाहनादिभ:॥[1]
- जुगल बन्धु बन भ्रमन में, राम श्रमित कछु गात।
- पग चाँपत करुना-अयन, कोमल कर-जलजात।।
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