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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
61. श्रीकृष्ण का वृन्दावन-विहार
एक वयस्क गोप शिशु के अंक में अपना मस्तक रख कर उन्हें लेट जाना पड़ता है। अनुज की यही इच्छा है। इस इच्छा का सर्वथा अनुसरण करना उनके लिये अनिवार्य है। अन्यथा वे जानते हैं- इससे तनिक-सा प्रतिकूल चलने पर श्रीकृष्णचन्द्र की चञ्चल चेष्टाओं का विराम तो होने से रहा, अनुज के प्रत्येक प्रेमिल आदेश का पालन करके ही वे उन्हें अपने पास कुछ समय के लिये बैठाये रखने में समर्थ हो सकते हैं। इसीलिये नीलसुन्दर की प्रत्येक प्रार्थना किसी ननु, न च के बिना ही स्वीकृत होती जा रही हैं। उस शिशु का अंक तो सुन्दर उपधान (तकिया) बन ही चुका। हरित मृदुल तृणराजि का सुन्दर आस्तरण भी अरण्य में वहाँ पहले से ही प्रस्तुत कर रखा है। श्रीबलराम के पृष्ठ देश से संलग्न उनका सुन्दर नील दुकूल अपने आप उस तृण शय्या का आवरण वस्त्र (बिछौने की चादर) बन रहा है। और अग्रज के पादपद्मों को धारण कर लेते हैं नीलसुन्दर अपने अंक में। यह व्यवस्था हुई है अपने कोटि-प्राण प्रिय दादा को विश्राम कराने की और दादा भी बाध्य हैं इसे ज्यों-की-त्यों स्वीकार करने के लिये। अस्तु, यह हो जाने के अनन्तर अब अपने सुकोमलतम कर पल्लवों से नीलसुन्दर श्रीबलराम का पाद संवाहन आरम्भ करते हैं। इस समय श्रीरोहिणी नन्दन के हृदय की क्या दशा है, इसकी थाह पा लेना सहज नहीं। कोई तटस्थ इतना ही कह सकता है- स्नेह के अतिशय प्रबल झंझावात को हृत्तल में ही रुद्ध रख कर अनुज की ऐसी प्रत्येक रसपूरित सेवा को स्वीकार करते चले जाना, बस, एक मात्र उन्हीं के लिये सम्भव है। जो हो, बड़ी देर तक पाद सेवा के द्वारा अग्रज का श्रम हरण कर श्रीकृष्णचन्द्र देखते हैं- ‘दादा को निद्रा आयी या नहीं?’ किंतु दादा तो वैसी ही मुग्ध-दृष्टि से अनुज को निहार रहे हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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