युधिष्ठिर से ब्राह्मणों व शौनक का वार्तालाप

महाभारत वनपर्व के अरण्यपर्व के अंतर्गत अध्याय दो में युधिष्ठिर से ब्राह्मणों व शौनक के वार्तालाप का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से युधिष्ठिर से ब्राह्मणों व शौनक के वार्तालाप की कथा कही है।[1] -

युधिष्ठिर का ब्राह्मणों से अनुरोध

वैशम्‍पायन जी जनमेजय से कहते हैं – हे राजन! जब रात बीती और प्रभात उदय हुआ तथा अनायास ही महान पराक्रम करने वाले पाण्‍डव वन की ओर जाने के लिए उद्यत हुए, उस समय भिक्षान्‍न भोजी ब्राह्मण साथ चलने के लिए उनके सामने खड़े हो गये। तब कुन्‍ती पुत्र राजा युधिष्ठिर ने उनसे कहा- ‘ब्राह्मणों! हमारा राज्‍य, लक्ष्‍मी और सर्वस्‍व जुए में हरण कर लिया गया है। हम फल, मूल तथा अन्‍न के आहार पर रहने का निश्‍चय करके दुखी होकर वन में जा रहे हैं। वन में बहुत से दोष हैं। वहाँ सर्प बिच्छू आदि असंख्‍य भयंकर जन्‍तु हैं। मैं समझता हूँ, वहाँ आप लोगों को अवश्‍य ही महान कष्‍ट का सामना करना पड़ेगा। ब्राह्मणों को दिया हुआ क्‍लेश तो देवताओं का भी विनाश कर सकता है, फिर मेरी तो बात ही क्‍या है? अत: ब्राह्मणों! आप लोग यहाँ से अपने अभीष्‍ट स्‍थान को लौट जायँ।'

युधिष्ठिर के मन में ब्राह्मणों के प्रति उत्‍तम भक्ति

ब्राह्मणों ने कहा- राजन आपकी जो गति होगी, उसे भुगतने के लिए हम भी उद्यत हैं। हम आपके भक्त तथा उत्‍तम धर्म पर दृष्टि रखने वाले हैं। इसलिए आपको हमारा परित्‍याग नहीं करना चाहिये। देवता भी अपने भक्‍तों पर विशेषत: सदाचार परायण ब्राह्मणों पर तो अवश्‍य ही दया करते हैं।

युधिष्ठिर बोले - विप्रगण! मेरे मन में भी ब्राह्मणों के प्रति उत्‍तम भक्ति है, किंतु यह सब प्रकार के सहायक साधनों का अभाव ही मुझे दु:खमग्‍न-सा किये देता है। जो फल-मूल एवं शहद आदि आहार जुटा कर ला सकते थे, वे ही मेरे भाई शोकजनित दु:ख से मोहित हो रहे हैं। द्रौपदी के अपमान तथा राज्‍य के अपहरण के कारण ये दु:ख से पी‍डित हो रहे हैं, अत: मैं इन्‍हें[2] अधिक क्‍लेश में डालना नहीं चाहता।[3]

कल्‍याण के उपाय का वर्णन

वैशम्‍पायन जी जनमेजय से कहते हैं– राजन! इतना कहकर धर्मराज युधिष्ठिर शोकमग्‍न हो चुपचाप पृथ्‍वी पर बैठ गये। उस समय अध्‍यात्‍म विषय में रत अर्थात परमात्म चिन्‍तन में तत्‍पर विद्वान ब्राह्मण शौनक ने, जो कर्मयोग और सांख्‍ययोग- दोनों ही निष्‍ठाओं के विचार में प्रवीण थे, राजा से इस प्रकार कहा। शोक के सहस्‍त्रों और भय के सैंकड़ों स्‍थान हैं। वे मूढ़ मनुष्‍य पर प्रतिदिन अपना प्रभाव डालते हैं, परंतु ज्ञानी पुरुष पर वे प्रभाव नहीं डाल सकते। 'अनेक दोषों से युक्‍त, ज्ञान विरुद्ध एवं कल्‍याणनाशक कर्म आप जैसे ज्ञानवान पुरुष नहीं फँसते हैं। राजन! योग के आठ अंग– यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्‍याहार, धारणा, ध्‍यान, और समाधि से सम्‍पन्‍न, अमंगलों का नाश करने वाली तथा श्रुतियों और स्‍मृतियों के स्‍वाध्‍याय से भली-भाँति दृढ़- की हुई जो उत्‍तम बुद्धि कही गयी है, आप में स्थित है।'

‘अर्थ संकट, दुस्‍तर दु:ख तथा स्‍वजनों पर आयी हुई विपत्तियों में आप जैसे ज्ञानी शारीरिक और मानसिक दु:खों से पीड़ित नहीं होते। पूर्वकाल में महात्‍मा राजा जनक के अन्‍त:करण को स्थिर करने वाले करने वाले कुछ श्‍लोकों का गान किया था। मैं उन श्‍लोकों का वर्णन करता हूँ, आप सुनिये- ‘सारा जगत मानसिक और शारीरिक दु:खों से पीडित है। उन दोनों प्रकार के दु:खों की शांति का यह उपाय संक्षेप और विस्‍तार से सुनिये। रोग, अप्रिय घटनाओं की प्राप्ति, अधिक परिश्रम त‍था प्रिय वस्‍तुओं का वियोग- इन चार कारणों से शारीरिक दु:ख प्राप्‍त होता है।'

‘समय पर इन चारों कारणों का प्रतिकार करना एवं कभी उसका चिन्‍तन न करना– ये दो क्रिया योग[4] हैं। इन्‍हीं से आधि-व्‍याधि की शान्ति होती है। अत: बुद्धिमान तथा विद्वान पुरुष, प्रिय वचन बोलकर तथा हितकर भोगों की प्राप्ति कराकर पहले मनुष्‍यों के मानसिक दु:खों का ही निवारण किया करते हैं। क्‍योंकि मन में दु:ख होने पर शरीर भी संतप्‍त होने लगता है; ठीक वैसे ही जैसे तपाया हुआ लोहा का गोला डाल देने पर घड़े में रखा हुआ शीतल जल भी गरम हो जाता है। इसलिए जल से अग्नि को शान्‍त करने की भाँति ज्ञान के द्वारा मानसिक दु:ख को शान्‍त करना चाहिए। मन का दु:ख मिट जाने पर मनुष्‍य के शरीर का दु:ख भी दूर हो जाता है। मन के दु:ख का मूल कारण क्‍या है? इसका पता लगाने पर स्‍नेह[5], की ही उपलब्धि होती है। इसी स्‍नेह के कारण ही जीव कहीं आसक्‍त होता है और दु:ख पाता है।

दु:ख का मूल कारण

‘दु:ख का मूल कारण है आसक्ति। आसक्ति से ही भय होता है। शोक, हर्ष तथा क्‍लेश- इन सबकी प्राप्ति भी आसक्ति के कारण से होती है। आसक्ति से ही विषयों में भाव और अनुराग होते हैं। ये दोनों ही अमंगलकारी हैं। इनमें भी पहला अर्थात विषयों के प्रति भाव महान अनर्थ कारक माना गया है। जैसे खोखले में लगी हुई आग सम्‍पूर्ण वृक्ष को जड़- मूल सहित जलाकर भस्‍म कर देती है, उसी प्रकार विषयों के प्रति थोड़ी- सी भी आसक्ति धर्म और अर्थ दोनों का नाश कर देती है।'

‘विषयों के प्राप्‍त न होने पर जो उनका त्याग करता है, वह त्‍यागी नहीं है; अपितु जो विषयों के प्राप्‍त होने पर भी उनमें दोष देखकर उनका परित्‍याग करता है- वही वैराग्‍य को प्राप्‍त होता है। उसके मन में किसी के प्रति द्वेष- ‌भाव न होने के कारण वह निर्वैर तथा बन्‍धनमुक्‍त होताहै। इसलिए मित्रों तथा धनराशि को पाकर इनके प्रति स्नेह[6] न करे। अपने शरीर से उत्पन्न हुई आसक्ति को ज्ञान से निवृत्‍त करे। जो ज्ञानी, योगयुक्‍त, शास्‍त्रज्ञ तथा मन को वश में रखने वाले हैं, उन पर आसक्ति का प्रभाव उसी प्रकार नहीं पड़ता, जैसे कमल के पत्‍ते पर जल नहीं ठहरता। राग के वशीभूत हुए पुरुषों को काम अपनी ओर आकृष्‍ट कर लेता है। फिर उसके मन में कामभोग की इच्‍छा जाग उठती है। तत्‍पश्‍चात तृष्‍णा बढ़ने लगती है। तृष्‍णा सबसे बढ़कर पापिष्‍ठ है[7] तथा नित्‍य उद्वेग करने वाली बतायी गयी है। उसके द्वारा प्राय: अधर्म ही होता है। वह अत्‍यन्‍त भयंकर पापबन्‍धन में डालने वाली है।'[8]

धन की प्राप्ति भी दु:ख का कारण

‘धन की प्राप्ति भी दु:ख से ही होती है। इसलिये उसका चिन्‍तन न करें; क्‍योंकि धन की चिन्‍ता करना अपना नाश करना है। मूर्ख मनुष्‍य सदा असंतुष्‍ट रहते हैं और विद्वान पुरुष संतुष्‍ट।'धन की प्यास कभी बुझती नहीं है; अत: संतोष ही परम सुख है। इसीलिये ज्ञानीजन संतोष को ही सबसे उत्तम समझते हैं।‘यौवन, रूप, जीवन, रत्‍नों का संग्रह, ऐश्‍वर्य तथा प्रियजनों का एकत्र निवास- ये सभी अनित्‍य हैं; अत: विद्वान पुरुष उनकी अभिलाषा न करें।‘इसलिए धन-संग्रह का त्‍याग करें और उसके त्‍याग से जो क्‍लेश हो, उसे धैर्यपूर्वक सह लें। जिनके पास धन का संग्रह है, ऐसा कोई भी मनुष्‍य उपद्रव रहित नहीं देखा जाता है। अत: धर्मात्‍मा पुरुष उसी धन की प्रशंसा करते हैं, जो दैवेच्‍छा से न्‍यायपूर्वक स्‍वत: प्राप्‍त हो गया हो। ‘जो धर्म करने के लिए धनोपार्जन इच्‍छा करता है, उसका धन की इच्‍छा न करना ही अच्‍छा है।' कीचड़ लगाकर धोने की अपेक्षा मनुष्‍यों के लिये उसका स्‍पर्श न करना ही श्रेष्‍ठ है। ‘युधिष्ठिर! इस प्रकार आपके लिए किसी भी वस्‍तु की अभिलाषा करना उचित नहीं है। यदि आपको धर्म से ही प्रयोजन हो तो धन की इच्‍छा का सर्वथा त्‍याग कर दें। युधिष्ठिर ने कहा- ब्रह्मन! मैं जो धन चाहता हूँ, वह इसलिये नहीं कि मुझे धन संबंधी भोग भोगने की इच्छा है; मैं तो ब्राह्मणों के भरण-पोषण के लिये ही धन की इच्‍छा रखता हूँ, लोभवश नहीं। विप्रवर! गृहस्थ-आश्रम में रहने वाला मेरे जैसा पुरुष अपने अनुयायियों का भरण-पोषण भी न करे, यह कैसे उचित को सकता है। गृहस्थ के भोजन में देवता, पितृ, मनुष्य एवं समस्त प्राणियों का हिस्सा देखा जाता है। गृहस्थ का धर्म है कि वह अपने हाथ से भोजन न बनाने वाले संन्यासी आदि को अवश्य पका-पकाया अन्न दे।[9]

शौनक द्वारा धर्म का वर्णन

शौनक जी ने कहा- अहो! बहुत दुःख की बात है, इस जगत में विपरीत बातें दिखायी देती हैं। साधु पुरुष जिस कर्म से लज्जित होते हैं, दुष्ट मनुष्यों को उसी से प्रसन्नता प्राप्त होती है। अज्ञानी मनुष्य अपनी जननेन्द्रियों तथा उदर की तृप्ति के लिए मोह एवं राग के वशीभूत हो विषयों का अनुसरण करता हुआ नाना प्रकार की विषय-सामग्री को यज्ञावशेष मानकर उनका संग्रह करता है। समझदार मनुष्य भी मन को हर लेने वाली इन्द्रियों द्वारा विषयों की ओर खींच लिया जाता है। उस समय उसकी विचारशक्ति मोहित हो जाती है। जैसे दुष्ट घोड़े वश में न हाने पर सारथि को कुमार्ग में घसीट ले जाते हैं, यही दशा उस अजितेन्द्रिय पुरुष की भी होती है। जब मन और पाँचों इन्द्रियाँ अपने विषयों में प्रवृत्त होती हैं, उस समय प्राणियों के पूर्व संकल्प के अनुसार उसी की वासना से वासित मन विचलित हो उठता है। मन जिस इन्द्रिय के विषयों का सेवन करने जाता है, उसी में उस विषय के प्रति उत्सुकता भर जाती है और वह इन्द्रिय उस विषय के उपभोग में प्रवृत्त हो जाती है। तदनन्तर संकल्प ही जिसका बीज है उस काम के द्वारा विषयरूपी बाणों से बंधकर मनुष्य ज्योति के लोभ से पतंग की भाँति लाभ की आग में गिर पड़ता है।[10]

इसके बाद इच्छानुसार आहार-विहार से मोहित हो महामोहमय सुख में निमग्न रहकर वह मनुष्य अपने आत्मा के ज्ञान से वंचित हो जाता है। इस प्रकार अवि़द्या, कर्म और तृष्णा द्वारा चक्र की भाँति भ्रमण करता हुआ मनुष्य संसार की विभिन्न योनियों में गिरता है। फिर तो ब्रह्माजी से लेकर तृणपर्यन्त सभी प्राणियों में तथा जल, भूमि और आकाश में वह मनुष्य बारम्बार जन्म लेकर चक्कर लगाता रहता है। यह अविवेकी पुरुषों की गति बतायी गयी है। अब आप मुझसे विवेकी पुरुषों की गति का वर्णन सुनें। जो धर्म एवं कल्याण मार्ग में तत्पर हैं और मोक्ष के विषय में जिनका निरन्तर अनुराग है, वे विवेकी हैं। वेद की यह आज्ञा है कि कर्म करो और कुकर्म छोड़ो; अतः आगे बताये जाने वाले सभी धर्मों का अहंकार शून्य होकर अनुष्ठान करना चाहिये।


यज्ञ, अध्ययन, दान, तन, सत्य, क्षमा, मन और इन्द्रियों का संयम तथा लोभ का परित्याग- ये धर्म के आठ मार्ग हैं। इनमें से पहले बताये हुए चार धर्म पितृयान के मार्ग में स्थित हैं अर्थात इन चारों का सकाम भाव से अनुष्ठान करने पर ये पितृयान मार्ग ले जाते हैं। अग्निहोत्र और संध्योपासनादि जो अवश्य करने योग्य कर्म हैं, उन्हें कर्तव्य बुद्धि से ही अभिमान छोड़कर करें। अन्तिम चार धर्मों को देवायन मार्ग का स्वरूप बताया गया है। साधु पुरुष सदा उसी मार्ग का आश्रय लेते हैं। आगे बताये जाने वाले आठ अंगों से युक्त मार्ग द्वारा अपने अन्तःकरण को शुद्ध करके कर्तव्य कर्मोंं का कर्तव्य के अभिमान से रहित होकर पालन करे। पूर्णतया संकल्पों के एक ध्येय में लगा देने से इन्द्रियों को भली प्रकार वश में कर लेने से, अहिंसादि व्रतों का अच्छी प्रकार पालन करने से भली प्रकार शुरू की सेवा करने से, यथायोग्य योगसाधनापयोगी आहार करने से, वेदादि का भली प्रकर अध्ययन करने से कर्मों को भली-भाँति भगवतसम्पन्न करने से और चित्त का भली प्रकार निरोध करने से मनुष्य परम कल्याण को प्राप्त होता है।

संसार को जीतने की इच्छा वाले बुद्धिमान पुरुष इसी प्रकार राग-द्वेष से मुक्त होकर कर्म करते हैं। इन्हीं नियमों के पालन से देवता लोग ऐश्वर्य को प्राप्त हुए हैं। रुद्र, साध्य, आदित्य, वसु तथा दोनों अश्विनी कुमार योगजनित ऐश्वर्य से मुक्त होकर इन प्रजाजनों का भरण-पोषण करते हैं। कुन्तीनन्दन! इसी प्रकार आप भी मन और इन्द्रियों को भली-भाँति वश में करके तपस्या द्वारा ऐश्वर्य प्राप्त करने की चेष्टा कीजिए। यज्ञ, युद्धादि कर्मों से प्राप्त हाने वाली सिद्धि पितृ-मातृमयी[11] है, जो आपको प्राप्त कर चुकी है। अब तपस्या द्वारा योगसिद्धि प्राप्त करने का प्रयत्न कीजिये, जिससे कि ब्राह्मणों का भरण-पोषण हो सके। सिद्ध पुरुष जो-जो वस्तु चाहते हैं, उसे अपने तप के प्रभाव से प्राप्त कर लेते हैं। अतः आप तपस्या का आश्रय लेकर अपने मनोरथ की पूर्ति कीजिये।[12]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत वन पर्व अध्याय 2 श्लोक 1-16
  2. आहार जुटाने का आदेश देकर
  3. महाभारत वन पर्व अध्याय 2 श्लोक 1-16
  4. दु:ख निवारक उपाय
  5. संसार में आसक्ति
  6. आसक्ति
  7. पाप में प्रवृत्त करने वाली
  8. महाभारत वन पर्व अध्याय 2 श्लोक 17-35
  9. महाभारत वन पर्व अध्याय 2 श्लोक 36-53
  10. महाभारत वन पर्व अध्याय 2 श्लोक 54-69
  11. परलोक और इस लोक में भी लाभ पहुँचाने वाली
  12. महाभारत वन पर्व अध्याय 2 श्लोक 70-84

संबंधित लेख

महाभारत वनपर्व में उल्लेखित कथाएँ


अरण्य पर्व
पांडवों का वन प्रस्थान | पांडवों का प्रमाणकोटि तीर्थ निवास | युधिष्ठिर से ब्राह्मणों व शौनक का वार्तालाप | युधिष्ठिर द्वारा सूर्य उपासना | विदुर की धृतराष्ट्र को सलाह | पांडवों का काम्यकवन में प्रवेश | काम्यकवन में विदुर-पांडव मिलन | धृतराष्ट्र की विदुर से क्षमा प्रार्थना | शकुनि द्वारा वन में पांडव वध का षड़यंत्र | व्यास का धृतराष्ट्र से अनुरोध | व्यास द्वारा सुरभि तथा इंद्र उपाख्यान का वर्णन | मैत्रेयी का धृतराष्ट्र तथा दुर्योधन से सद्भाव का अनुरोध | मैत्रेयी का दुर्योधन को शाप
किर्मीर वध पर्व
भीम द्वारा किर्मीर वध
अर्जुनाभिगमन पर्व
अर्जुन तथा द्रौपदी द्वारा कृष्ण स्तुति | द्रौपदी का कृष्ण से अपने अपमान का वर्णन | कृष्ण द्वारा जूए दोष का वर्णन | कृष्ण द्वारा शाल्व वध का वर्णन | द्वारका में युद्ध सम्बंधी तैयारियों का वर्णन | यादव सेना द्वारा शाल्व सेना का प्रतिरोध | प्रद्युम्न और शाल्व का युद्ध | प्रद्युम्न का अनुताप | प्रद्युम्न द्वारा शाल्व की पराजय | कृष्ण और शाल्व का युद्ध | कृष्ण और शाल्व की माया | कृष्ण द्वारा शाल्ववधोपाख्यान की समाप्ति | पांडवों की द्वैतवन में प्रवेश की उद्यता | पांडवों का द्वैतवन में प्रवेश | मार्कण्डेय द्वारा पांडवों को धर्म आदेश | बक द्वारा युधिष्ठिर से ब्राह्मण महत्त्व का वर्णन | द्रौपदी का युधिष्ठिर से संतापपूर्ण वचन | द्रौपदी द्वारा प्रह्लाद-बलि संवाद वर्णन | युधिष्ठिर द्वारा क्रोध निन्दा | द्रौपदी का युधिष्ठिर और ईश्वर न्याय पर आक्षेप | युधिष्ठिर द्वारा द्रौपदी आक्षेप का समाधान | द्रौपदी द्वारा पुरुषार्थ को प्रधानता | भीम द्वारा पुरुषार्थ की प्रशंसा | भीम का युधिष्ठिर से क्षत्रिय धर्म अपनाने का अनुरोध | युधिष्ठिर द्वारा धर्म पर ही रहने की घोषणा | भीम द्वारा युधिष्ठिर का उत्साह वर्धन | व्यास द्वारा युधिष्ठिर को प्रतिस्मृतिविद्या का दान | अर्जुन का इन्द्रकील पर्वत पर प्रस्थान
कैरात पर्व
अर्जुन की उग्र तपस्या | अर्जुन का शिव से युद्ध | अर्जुन द्वारा शिव स्तुति | अर्जुन को शिव का वरदान | अर्जुन के पास दिक्पालों का आगमन | इन्द्र द्वारा अर्जुन को स्वर्ग आगमन का आदेश
इन्द्रलोकाभिगमन पर्व
अर्जुन का स्वर्गलोक प्रस्थान | अर्जुन का इन्द्रसभा में स्वागत | अर्जुन को अस्त्र और संगीत की शिक्षा | चित्रसेन और उर्वशी का वार्तालाप | उर्वशी का अर्जुन को शाप | इन्द्र-अर्जुन से लोमश मुनि की भेंट | धृतराष्ट्र की पुत्र चिन्ता तथा संताप | वन में पांडवों का आहार | कृष्ण प्रतिज्ञा का संजय द्वारा वर्णन
नलोपाख्यान पर्व
बृहदश्व द्वारा नलोपाख्यान | बृहदश्व द्वारा नल-दमयन्ती के गुणों का वर्णन | दमयन्ती स्वयंवर के लिए राजाओं का प्रस्थान | नल द्वारा दमयन्ती से देवताओं का संदेश | नल-दमयन्ती वार्तालाप | नल-दमयन्ती विवाह | नल के विरुद्ध कलियुग का कोप | नल और पुष्कर की द्यूतक्रीड़ा | दमयन्ती का कुमार-कुमारी को कुण्डिनपुर भेजना | नल-दमयन्ती का वन प्रस्थान | नल द्वारा दमयन्ती का त्याग | दमयन्ती का पातिव्रत्यधर्म | दमयन्ती का विलाप | दमयन्ती को तपस्वियों द्वारा आश्वासन | दमयन्ती का चेदिराज के यहाँ निवास | नल द्वारा कर्कोटक नाग की रक्षा | नल की ऋतुपर्ण के यहाँ अश्वाध्यक्ष पद पर नियुक्ति | विदर्भराज द्वारा नल-दमयन्ती की खोज | दमयन्ती का पिता के यहाँ आगमन | दमयन्ती को नल का समाचार मिलना | ऋतुपर्ण का विदर्भ देश को प्रस्थान | बाहुक की अद्भुत रथसंचालन कला | ऋतुपर्ण से नल को द्यूतविद्या के रहस्य की प्राप्ति | नल के शरीर से कलियुग का निकलना | ऋतुपर्ण का कुण्डिनपुर में प्रवेश | केशिनी-बाहुक संवाद | केशिनी द्वारा बाहुक की परीक्षा | नल-दमयन्ती मिलन | नल-ऋतुपर्ण वार्तालाप | नल द्वारा पुष्कर को जूए में हराना | नल आख्यान का महत्त्व | बृहदश्व का युधिष्ठिर को आश्वासन
तीर्थ यात्रा पर्व
अर्जुन के लिए पांडवों की चिन्ता | युधिष्ठिर के पास नारद का आगमन | पुलस्त्य का भीष्म से तीर्थयात्रा माहात्म्य वर्णन | कुरुक्षेत्र के तीर्थों की महत्ता | पुलस्त्य द्वारा विभिन्न तीर्थों का वर्णन | गंगासागर, अयोध्या, चित्रकूट, प्रयाग आदि की महिमा का वर्णन | गंगा का माहात्म्य | युधिष्ठिर धौम्य संवाद | धौम्य द्वारा पूर्व दिशा के तीर्थों का वर्णन | धौम्य द्वारा दक्षिण दिशा के तीर्थों का वर्णन | धौम्य द्वारा पश्चिम दिशा के तीर्थों का वर्णन | धौम्य द्वारा उत्तर दिशा के तीर्थों का वर्णन | अर्जुन के दिव्यास्त्र प्राप्ति का लोमश द्वारा वर्णन | इन्द्र-अर्जुन संदेश से युधिष्ठिर की प्रसन्नता | पांडवों का तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | लोमश का अधर्म से हानि और पुण्य की महिमा का वर्णन | पांडवों द्वारा राजा गय के यज्ञों की महिमा का श्रवण | लोमश द्वारा इल्वल-वातापि का वर्णन | विदर्भराज को अगस्त्य से कन्या की प्राप्ति | अगस्त्य का लोपामुद्रा से विवाह | अगस्त्य का धनसंग्रह के लिए प्रस्थान | अगस्त्य द्वारा वातापि तथा इल्वल का वध | लोपामुद्रा को पुत्र की प्राप्ति | परशुराम को तीर्थस्नान द्वारा तेज की प्राप्ति | दधीच का अस्थिदान एवं वज्र निर्माण | वृत्रासुर का वध | कालेय दैत्यों द्वारा तपस्वियों-मुनियों आदि का संहार | देवताओं द्वारा विष्णु की स्तुति | विष्णु आदेश से देवताओं द्वारा अगस्त्य की स्तुति | अगस्त्य का विन्ध्यपर्वत को बढ़ने से रोकना | अगस्त्य का समुद्रपान तथा देवताओं द्वारा कालेय दैत्यों का वध | सगर की संतान प्राप्ति के लिए तपस्या | कपिल की क्रोधाग्नि से सगरपुत्रों का भस्म होना | भगीरथ को राज्य की प्राप्ति | भगीरथ की तपस्या | गंगा का पृथ्वी पर आगमन और सगरपुत्रों का उद्धार | नन्दा तथा कौशिकी का माहात्म्य | लोमपाद का मुनि ऋष्यशृंग को अपने राज्य में लाने का प्रयत्न | ऋष्यशृंग को वेश्या द्वारा लुभाना जाना | ऋष्यशृंग का पिता से वेश्या के स्वरूप तथा आचरण का वर्णन | ऋष्यशृंग का लोमपाद के यहाँ आगमन | लोमपाद द्वारा विभाण्डक मुनि का सत्कार | युधिष्ठिर का महेन्द्र पर्वत पर गमन | ऋचीक मुनि का गाधिकन्या के साथ विवाह | जमदग्नि की उत्पत्ति का वर्णन | परशुराम का अपनी माता का मस्तक काटना | जमदग्नि मुनि की हत्या | परशुराम का पृथ्वी को नि:क्षत्रिय करना | युधिष्ठिर द्वारा परशुराम का पूजन | युधिष्ठिर की प्रभासक्षेत्र में तपस्या | यादवों का पांडवों से मिलन | बलराम की पांडवों के प्रति सहानुभूति | सात्यकि के शौर्यपूर्ण उद्गार | युधिष्ठिर द्वारा कृष्ण के वचनों का अनुमोदन | गय के यज्ञों की प्रशंसा | पयोष्णी, नर्मदा तथा वैदूर्य पर्वत का माहात्म्य | च्यवन को सुकन्या की प्राप्ति | च्यवन को रूप तथा युवावस्था की प्राप्ति | च्यवन का इन्द्र पर कोप | च्यवन द्वारा मदासुर की उत्पत्ति | लोमश द्वारा अन्यान्य तीर्थों के महत्त्व का वर्णन | मान्धाता की उत्पत्ति | मान्धाता का संक्षिप्त चरित्र | सोमक और जन्तु का उपाख्यान | सोमक और पुरोहित का नरक तथा पुण्यलोक का उपभोग | कुरुक्षेत्र के प्लक्षप्रस्रवण तीर्थ की महिमा | लोमश द्वारा तीर्थों की महिमा तथा उशीनर कथा का आरम्भ | उशीनर द्वारा शरणागत कबूतर के प्राणों की रक्षा | अष्टावक्र के जन्म का वृत्तान्त | अष्टावक्र का जनक के दरबार में जाना | अष्टावक्र का जनक के द्वारपाल से वार्तालाप | अष्टावक्र का जनक से वार्तालाप | अष्टावक्र का शास्त्रार्थ | अष्टावक्र के अंगों का सीधा होना | कर्दमिलक्षेत्र आदि तीर्थों की महिमा | रैभ्य तथा यवक्रीत मुनि की कथा | ऋषियों का अनिष्ट करने से मेघावी की मृत्यु | यवक्रीत का रैभ्य की पुत्रवधु से व्यभिचार तथा मृत्यु | भरद्वाज का पुत्रशोक में विलाप | भरद्वाज का अग्नि में प्रवेश | अर्वावसु की तपस्या तथा रैभ्य, भरद्वाज और यवक्रीत का पुनर्जीवन | पांडवों की उत्तराखण्ड यात्रा | भीमसेन का उत्साह तथा पांडवों का हिमालय को प्रस्थान | युधिष्ठिर द्वारा अर्जुन की चिन्ता तथा उनके गुणों का वर्णन | पांडवों द्वारा गंगा की वन्दना | लोमश द्वारा पांडवों से नरकासुर वघ की कथा | लोमश द्वारा पांडवों से वसुधा उद्धार की कथा | गन्दमाधन यात्रा में पांडवों का आँधी-पानी से सामना | द्रौपदी की मूर्छा तथा भीम के स्मरण से घटोत्कच का आगमन | घटोत्कच की सहायता से पांडवों का गंधमादन पर्वत तथा बदरिकाश्रम में प्रवेश | बदरीवृक्ष, नरनारायणाश्रम तथा गंगा का वर्णन | भीमसेन का सौगन्धिक कमल लाने के लिए जाना | भीमसेन की कदलीवन में हनुमान से भेंट | भीमसेन और हनुमान का संवाद | हनुमान का भीमसेन से रामचरित्र का संक्षिप्त वर्णन | हनुमान द्वारा चारों युगों के धर्मों का वर्णन | हनुमान द्वारा भीमसेन को विशाल रूप का प्रदर्शन | हनुमान द्वारा चारों वर्णों के धर्मों का प्रतिपादन | भीमसेन को आश्वासन देकर हनुमान का अन्तर्धान होना | भीमसेन का सौगन्धिक वन में पहुँचना | क्रोधवश राक्षसों का भीमसेन से सामना | भीमसेन द्वारा क्रोधवश राक्षसों की पराजय | युधिष्ठिर आदि का सौगन्धिक वन में भीमसेन के पास पहुँचना | पांडवों का पुन: नरनारायणाश्रम में लौटना
जटासुरवध पर्व
जटासुर द्वारा द्रौपदी, युधिष्ठिर, नकुल एवं सहदेव का हरण | भीमसेन द्वारा जटासुर का वध
यक्षयुद्ध पर्व
पांडवों का नरनारायणाश्रम से वृषपर्वा के जाना | पांडवों का राजर्षि आर्ष्टिषेण के आश्रम पर जाना | आर्ष्टिषेण का युधिष्ठिर के प्रति उपदेश | पांडवों का आर्ष्टिषेण के आश्रम पर निवास | भीमसेन द्वारा मणिमान का वध | कुबेर का गंधमादन पर्वत पर आगमन | कुबेर की युधिष्ठिर से भेंट | कुबेर का युधिष्ठिर आदि को उपदेश तथा सान्त्वना | धौम्य द्वारा मेरु शिखरों पर स्थित ब्रह्मा-विष्णु आदि स्थानों का वर्णन | धौम्य का युधिष्ठिर से सूर्य-चन्द्रमा की गति एवं प्रभाव का वर्णन | पांडवों की अर्जुन के लिए उत्कंठा
निवातकवच युद्ध पर्व
अर्जुन का स्वर्गलोक से आगमन तथा भाईयों से मिलन | इन्द्र का आगमन तथा युधिष्ठिर को सान्त्वना देना | अर्जुन का अपनी तपस्या यात्रा के वृत्तान्त का वर्णन | अर्जुन द्वारा शिव से संग्राम एवं पाशुपतास्त्र प्राप्ति की कथा | अर्जुन का युधिष्ठिर से स्वर्गलोक में प्राप्त अपनी अस्त्रविद्या का कथन | अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्ध की तैयारी का कथन | अर्जुन का पाताल में प्रवेश | अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्धारम्भ | अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध | अर्जुन के साथ निवातकवचों के मायामय युद्ध का वर्णन | अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध | अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध | इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन | युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा | नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत | पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान | पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास | पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश | द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना | भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना | भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप | युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज | युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना | सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश | पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन | तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य | ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा | तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद | वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा | चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन | प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन | मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन | मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप | बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना | मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन | युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन | कल्कि अवतार का वर्णन | भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश | इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह | शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता | इन्द्र और बक मुनि का संवाद | सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा | ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान | सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र | इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा | नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन | इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा | मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन | मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन | उत्तंक मुनि की कथा | उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह | ब्रह्मा की उत्पत्ति | विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध | धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति | कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध | कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति | पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य | कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान | कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना | धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा | धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन | धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश | धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना | धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार | अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना | अंगिरा की संतति का वर्णन | बृहस्पति की संतति का वर्णन | पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति | पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन | अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन | सह अग्नि का जल में प्रवेश | अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य | इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार | इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना | अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन | स्कन्द की उत्पत्ति | स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण | विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना | अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना | इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान | स्कन्द के पार्षदों का वर्णन | स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप | स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक | स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह | कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति | मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन | स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार | रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा | देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध | कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा | द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा | सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार | शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना | दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना | दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति | द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद | कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय | गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण | कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश | पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध | पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय | चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा | दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन | दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना | दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश | कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय | दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना | दैत्यों का दुर्योधन को समझाना | दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान | भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव | कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान | कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय | कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार | दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी | दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति | कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा | युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन | व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन | दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा | महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना | देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन | व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार | दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना | द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना | कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना | जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना | कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना | द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर | जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद | जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण | पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना | द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन | पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार | युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना | भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना | शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना | राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन | रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति | कुबेर का रावण को शाप देना | देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना | राम के राज्याभिषेक की तैयारी | राम का वन को प्रस्थान | भरत की चित्रकूट यात्रा | राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप | राम द्वारा मारीच का वध | रावण द्वारा सीता का अपहरण | रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार | राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध | राम और सुग्रीव की मित्रता | राम द्वारा बाली का वध | अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन | रावण और सीता का संवाद | राम का सुग्रीव पर कोप | सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना | हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना | वानर सेना का संगठन | नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण | विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश | अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना | राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम | राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध | प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध | रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना | कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध | इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा | राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना | लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध | रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना | राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध | राम का सीता के प्रति संदेह | देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन | राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक | मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति | सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण | सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय | सावित्री और सत्यवान का विवाह | सावित्री की व्रतचर्या | सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना | सावित्री और यम का संवाद | यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना | सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप | राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता | सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन | द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना | कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना | सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश | कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय | कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन | कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना | कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या | कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश | कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन | कुन्ती-सूर्य संवाद | सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन | कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप | अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति | कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन | कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति | इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग | युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश | नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना | यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद | यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर | युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना | यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना | युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना | भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः