- अर्जुन के साथ निवातकवचों का मायामय युद्ध होता है और अब अर्जुन द्वारा निवातकवचों के वध के बारे में बताया गया है, जिसका उल्लेख महाभारत वनपर्व के 'निवातकवच युद्ध पर्व' के अंतर्गत अध्याय 172 में बताया गया है[1]-
विषय सूची
अर्जुन द्वारा दैत्यों का वध
अर्जुन बोले- राजन! इस प्रकार अदृश्य रहकर ही वे दैत्य माया द्वारा युद्ध करने लगे तथा मैं भी अपने अस्त्रों की अदृश्य शक्ति के द्वारा ही उनका सामना करने लगा। मेरे गाण्डीव धनुष से छूटे हुए बाण विधिवत प्रयक्त दिव्यास्त्रों से प्रेरित हो जहां-जहाँ वे दैत्य थे, वहीं जाकर उनके सिर काटने लगे। जब मैं इस प्रकार युद्धक्षेत्र में उनका संहार करने लगा, तब वे निवातकवच दानव अपनी माया को समेट कर सहसा नगर में घुस गये। दैत्यों के भाग जानेसे वहाँ सब कुछ स्पष्ट दिखायी देने लगा, तब मैंने देखा, लाखो-दानव वहाँ मरे पड़े थे। उनके अस्त्र-शस्त्र और आभूषण भी पिसकर चूर्ण हो गये थे। दानवों के शरीरों और कवचों के सौ-सौ टुकड़े दिखायी देते थे। वहाँ दैत्यों की इतनी लाशें पड़ी थीं। कि घोड़ों के लिये एक के बाद दूसरा और पैर रखने के लिये कोई स्थान नहीं रह गया था। अतः वे अन्तरिक्षचारी अश्व वहाँ से सहसा उछलकर आकाश में खड़े हो गये।
निवातकवचों द्वारा अर्जुन पर आक्रमण
तदनन्तर निवातकवचों ने अदृश्य रूप से ही आक्रमण किया ओर केवल आकाश को आच्छादित करके पत्थरों की वर्षा आरम्भ कर दी। भरतनन्दन! कुछ भयंकर दानवों ने, जो पृथ्वी के भीतर घुसे हुए थे, मेरे घोड़ो के पैर तथा रथ के पहिये पकड़ लिये। इस प्रकार युद्ध करते समय मेरे हरे रंग के घोड़ो तथा रथ को पकड़कर उन दानवों ने रथ सहित मेरे उपर सब ओर से शिला-खण्ड़ो द्वारा उन प्रहार आरम्भ किया। नीचे पर्वतों के ढेर लग रहे थे और ऊपर से नयी-नयी चटटानें पड़ रही थी। इससे वह प्रदेश जहाँ हम लोग मौजूद थे, एक गुफा के समान बन गया। एक ओर तो मैं शिला-खण्ड़ों से आच्छादित हो रहा था, दूसरी ओर मेरे घोड़े पकड़ लिये जाने से रथ की गति कुण्ठित हो गयी थी। इस विवशता की दशा में मुझे बड़ी पीड़ा होने लगी, जिसे मातलि ने जान लिया।
अर्जुन द्वारा वज्राशास्त्र का प्रयोग
इस प्रकार मुझे भयभीत हुआ देख मातलि ने कहा- 'अर्जुन! अर्जुन! तुम डरो मत। इस समय वज्राशास्त्र का प्रयोग करो'। महाराज! मातलि को वह वचन सुनकर मैंने देवराज के परम प्रिय तथा भयंकर अस्त्र वज्र का प्रयोग किया। अविचल स्थान का आश्रय ले गाण्डीव धनुष को वज्रास्त्र से अभिमंत्रित करके मैंने लोहे के तीखे बाण छोड़े, जिनका स्पर्श वज्र के समान कठोर था।
अर्जुन द्वारा निवातकवचों का संहार
तदनन्तर वज्रास्त्र से प्रेरित हुए वे वज्रस्वरूप बाण पूर्वोक्त सारी मायाओं तथा निवातकवच दानवों के भीतर घुस गये। फिर तो वज्र के मारे गये वे पर्वताकार दानव एक दूसरे का आलिंगन करते हुए धराशायी हो गये। पृथ्वी के भीतर घुसकर जिन दानवों ने मेरे रथ के घोड़ों को पकड़ रखा था, उनके शरीर में भी घुसकर मेरे बाणों ने उन सब को यमलोक भेज दिया। वहाँ मरकर गिरे हुए पर्वताकार निवातकवच इधर उधर बिखरे हुए पर्वतों के समान जान पड़ते थे। वहाँ का सारा प्रदेश उनकी लाशों के पट गया था।उस समय के युद्ध में न तो घोड़ो को कोई हानि पहुँची, न रथ का ही कोई सामान टूटा, न मातलि को ही चोट लगी और न मेरे ही शरीर में कोई आघात दिखायी दिया, यह एक अद्भुत-सी बात थी।
निवातकवचों के वध के पश्चात् निशाचरियों की दशा
तब मातलि ने हंसते हुए मुझ से कहा- 'अर्जुन! तुम में जो पराक्रम दिखायी देता है, वह देवताओं में भी नहीं है'। उन असुर समूहों के मारे जाने पर उनकी सारी स्त्रियां उस नगर में जोर-जोर से करूण-क्रन्दन करने लगीं, मानो शरत्काल में सारस पक्षी बोल रहे हो। तब मैं मातलि के साथ रथ की घर्घराहट से निवातकवचों की स्त्रियों को भयभीत करता हुआ उस दैत्य-नगर में गया। मोर के समान सुन्दर उन दस हजार घोड़ों को तथा सूर्य के समान तेजस्वी उस दिव्य रथ को देखते ही झुंड़ की झुंड दानव-स्त्रियां इधन-उधर भाग चलीं। उन डरी हुई निशाचरियों के आभूषणों के द्वारा उत्पन्न हुआ शब्द पर्वतों पर पड़ती हुई शिलाओं के समान जान पड़ता था। तत्पश्चात् वे भयभीत हुई दैत्यनारियां अपने-अपने घरों में घुस गयीं। उनके महल सोने के बने हुए थे और अनेक प्रकार के रत्नों के उनकी विचित्र शोभा होती थी। वह उत्तम एवं अद्भुत नगर देवपुरी से भी श्रेष्ठ दिखायी देता था। तब उसे देखकर मैंने मातलि से पूछा- 'सारथे! देवतालोक ऐसा नगर क्यों नहीं बसाते हैं ? यह नगर तो मुझे इन्द्रपुरी से भी बढ़कर दिखायी देता है।
मातलि का संवाद
मातलि बोले- पार्थ! पूर्वकाल में यह नगर हमारे देवराज के ही अधिकारमें था। फिर निवातकवच ने आकर देवताओं को यहाँ से निकाल दिया। उन्होंने अत्यन्त तीव्र तपस्या करके पितामह ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और उनसे अपने रहने के लिये यही नगर मांग लिया। साथ ही यह भी मांगा कि 'हमें युद्ध में देवताओं से भय न हों। तब इन्द्र ने भगवान ब्रह्मा जी ने इस प्रकार निवेदन किया-'प्रभो! अपने[2]हित के लिये आप ही इन दानवों का अन्त कीजिये'। भरतनन्दन! उनके ऐसा कहने पर भगवान ब्रह्मा जी ने कहा-'शत्रुदमन देवराज! ठस में दैव का यही विधान है कि तुम्हीं दूसरा शरीर धारण करके इन दानवों का अन्त कर सकोगे'।[3]इन दैत्यों के वध के लिये ही इन्द्र ने तुम्हें दिव्यास्त्र प्रदान किये है। आज जो ये दानव तुम्हारे हाथों मारे गये हैं, इन्हें देवता नहीं मार सकते थे। भारत! समय के फेर से ही तुम इनका विनाश करने के लिये यहाँ आ पहुँचे हो और तुम ने जैसा दैवका विधान था, उसके अनुसार इनका संहार कर डाला है। पुरुषोतम! छेवराज इन्द्र ने इन दानवों के विनाश के उदेश्य से ही तुम्हें परम उत्तम अस्त्र-बल की प्राप्ति करायी है। अर्जुन कहते हैं- महाराज! इस प्रकार उन दानवों का संहार करके नगर में शान्ति स्थापित करने के पश्चात् में मातलि के साथ पुनः उस देवलोक को लौट आया।[4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 172 श्लोक 1-23
- ↑ और हमारे
- ↑ अर्जुन! तुम्हीं इन्द्रके दूसरे स्वरूप हो
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 172 श्लोक 24-35
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| हनुमान द्वारा भीमसेन को विशाल रूप का प्रदर्शन
| हनुमान द्वारा चारों वर्णों के धर्मों का प्रतिपादन
| भीमसेन को आश्वासन देकर हनुमान का अन्तर्धान होना
| भीमसेन का सौगन्धिक वन में पहुँचना
| क्रोधवश राक्षसों का भीमसेन से सामना
| भीमसेन द्वारा क्रोधवश राक्षसों की पराजय
| युधिष्ठिर आदि का सौगन्धिक वन में भीमसेन के पास पहुँचना
| पांडवों का पुन: नरनारायणाश्रम में लौटना
जटासुरवध पर्व
जटासुर द्वारा द्रौपदी, युधिष्ठिर, नकुल एवं सहदेव का हरण
| भीमसेन द्वारा जटासुर का वध
यक्षयुद्ध पर्व
पांडवों का नरनारायणाश्रम से वृषपर्वा के जाना
| पांडवों का राजर्षि आर्ष्टिषेण के आश्रम पर जाना
| आर्ष्टिषेण का युधिष्ठिर के प्रति उपदेश
| पांडवों का आर्ष्टिषेण के आश्रम पर निवास
| भीमसेन द्वारा मणिमान का वध
| कुबेर का गंधमादन पर्वत पर आगमन
| कुबेर की युधिष्ठिर से भेंट
| कुबेर का युधिष्ठिर आदि को उपदेश तथा सान्त्वना
| धौम्य द्वारा मेरु शिखरों पर स्थित ब्रह्मा-विष्णु आदि स्थानों का वर्णन
| धौम्य का युधिष्ठिर से सूर्य-चन्द्रमा की गति एवं प्रभाव का वर्णन
| पांडवों की अर्जुन के लिए उत्कंठा
निवातकवच युद्ध पर्व
अर्जुन का स्वर्गलोक से आगमन तथा भाईयों से मिलन
| इन्द्र का आगमन तथा युधिष्ठिर को सान्त्वना देना
| अर्जुन का अपनी तपस्या यात्रा के वृत्तान्त का वर्णन
| अर्जुन द्वारा शिव से संग्राम एवं पाशुपतास्त्र प्राप्ति की कथा
| अर्जुन का युधिष्ठिर से स्वर्गलोक में प्राप्त अपनी अस्त्रविद्या का कथन
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्ध की तैयारी का कथन
| अर्जुन का पाताल में प्रवेश
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्धारम्भ
| अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध
| अर्जुन के साथ निवातकवचों के मायामय युद्ध का वर्णन
| अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध
| अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध
| इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन
| युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा
| नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत
| पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान
| पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास
| पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश
| द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना
| भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना
| भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप
| युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज
| युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना
| सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश
| पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन
| तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य
| ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा
| तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद
| वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा
| चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन
| प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप
| बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना
| मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन
| युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन
| कल्कि अवतार का वर्णन
| भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश
| इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह
| शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता
| इन्द्र और बक मुनि का संवाद
| सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा
| ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान
| सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र
| इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा
| नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन
| इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा
| मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन
| मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन
| उत्तंक मुनि की कथा
| उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह
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| धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति
| कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध
| कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति
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| धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना
| धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार
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| बृहस्पति की संतति का वर्णन
| पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति
| पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन
| अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन
| सह अग्नि का जल में प्रवेश
| अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य
| इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार
| इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना
| अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन
| स्कन्द की उत्पत्ति
| स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण
| विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना
| अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना
| इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान
| स्कन्द के पार्षदों का वर्णन
| स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप
| स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक
| स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह
| कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति
| मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन
| स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार
| रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा
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| कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा
| द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा
| सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार
| शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना
| दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना
| दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति
| द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद
| कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय
| गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण
| कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश
| पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध
| पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय
| चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा
| दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन
| दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना
| दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश
| कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय
| दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना
| दैत्यों का दुर्योधन को समझाना
| दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान
| भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव
| कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान
| कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय
| कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार
| दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी
| दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति
| कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा
| युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन
| व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन
| दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा
| महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना
| देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार
| दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना
| द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना
| कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना
| जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना
| कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना
| द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर
| जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद
| जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण
| पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना
| द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन
| पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार
| युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना
| भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना
| शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना
| राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन
| रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति
| कुबेर का रावण को शाप देना
| देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना
| राम के राज्याभिषेक की तैयारी
| राम का वन को प्रस्थान
| भरत की चित्रकूट यात्रा
| राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप
| राम द्वारा मारीच का वध
| रावण द्वारा सीता का अपहरण
| रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार
| राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध
| राम और सुग्रीव की मित्रता
| राम द्वारा बाली का वध
| अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन
| रावण और सीता का संवाद
| राम का सुग्रीव पर कोप
| सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना
| हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना
| वानर सेना का संगठन
| नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण
| विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश
| अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना
| राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम
| राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध
| प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध
| रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना
| कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध
| इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा
| राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना
| लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध
| रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना
| राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध
| राम का सीता के प्रति संदेह
| देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन
| राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक
| मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति
| सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण
| सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय
| सावित्री और सत्यवान का विवाह
| सावित्री की व्रतचर्या
| सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना
| सावित्री और यम का संवाद
| यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना
| सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप
| राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता
| सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन
| द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना
| कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना
| सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश
| कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय
| कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन
| कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना
| कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या
| कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश
| कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन
| कुन्ती-सूर्य संवाद
| सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
| कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप
| अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति
| कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन
| कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति
| इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग
| युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश
| नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना
| यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद
| यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
| युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना
| यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना
| युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना
| भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श
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