- महाभारत वनपर्व के अर्जुनभिगमनपर्व के अंतर्गत अध्याय अठारह में प्रद्युम्न का अनुताप का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से प्रद्युम्न का अनुताप के वर्णन की कथा कही है।[1]
विषय सूची
श्रीकृष्ण संवाद
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- बलवानों में श्रेष्ठ प्रद्युम्न जब शाल्व के बाणों से पीड़ित हो ( मूर्च्छित हो ) गये, तब सेना में आये हुए वृष्णिवंशी वीरों का उत्साह भंग हो गया। उन सबको बड़ा दुख हुआ। राजन! प्रद्युम्न के मूर्च्छित होने पर वृष्णि और अंधकवंश की सारी सेना में हाहाकार मच गया और शत्रु लोग अत्यन्त प्रसन्नता से खिल उठे। दारुक का पुत्र प्रद्युम्न सुशिक्षित था। वह प्रद्युम्न को इस प्रकार मूर्च्छित देख वेगशाली अश्वों द्वारा उन्हें तुरंत रणभूमि से बाहर ले गया। अभी वह रथ अधिक दूर नहीं जाने पाया था, तभी बड़े-बड़े महारथियों को परास्त करने वाले प्रद्युम्न सचेत हो गये और हाथ में धनुष लेकर सारथि से इस प्रकार बोले- ‘सूतपुत्र! आज तूने क्या सोचा है? क्यों युद्ध से मुँह मोड़कर भागा जा रहा है? युद्ध से पलायन करना वृष्णिवंशी वीरों का धर्म नहीं है। ‘सूतनन्दन! इस महासंग्राम में राजा शाल्व को देखकर तुझे मोह तो नहीं हो गया है? अथवा युद्ध देखकर तुझे विषाद तो नहीं होता है? मुझसे ठीक-ठीक बता ( तेरे इस प्रकार भागने का क्या कारण है?)‘
प्रद्युम्न द्वारा अनुताप
सूतपुत्र ने कहा- जनार्दनकुमार! न मुझे मोह हुआ है और न मेरे मन में भय ही समाया है। केशवनन्दन! मुझे ऐसा मालूम होता है कि यह राजा शाल्व आपके लिये अत्यन्त भार-सा हो रहा है। वीरवर! मैं धीरे-धीरे रणभूमि से दूर इसलिये जा रहा हूँ क्योंकि यह पापी शाल्व बड़ा बलवान है। सारथि का यह धर्म है कि यदि शूरवीर रथी संग्राम में मूर्च्छित हो जाय तो वह किसी प्रकार उसके प्राणों की रक्षा करे। आयुष्मान! मुझे आपकी और आपको मेरी सदा रक्षा करनी चाहिये। रथी सारथि के द्वारा सदा रक्षणीय है, इस कर्तव्य का विचार करके ही मैं रणभूमि से लौट रहा हूँ। महाबाहो! आप अकेले हैं और इन दानवों की संख्या बहुत है। रुक्मिणीनन्दन! इस युद्ध में इतने विपक्षियों का सामना करना अकेले आपके लिये कठिन है। कुरुनन्दन! सूत के ऐसा कहने पर मकरध्वज प्रद्युम्न ने उससे कहा- ‘दारुककुमार! तू रथ को पुनः युद्ध भूमि की ओर लौटा ले चल। सूतपुत्र! आज से फिर कभी किसी प्रकार भी मेरे जीते-जी रथ को रणभूमि से न लौटाना। ‘वृष्णिवंश में ऐसा कोई ( वीर पुरुष ) नहीं पैदा हुआ है, जो युद्ध छोड़कर भाग जाये अथवा गिरे हुए को तथा 'मैं आपका हूँ‘ यह कहने वाले को मारे।' ‘इसी प्रकार स्त्री, बालक, वृद्ध, रथहीन, अपने पक्ष से बिछड़े हुए तथा जिसके अस्त्र-शस्त्र नष्ट हो गये हों, ऐसे लोगों पर जो हथियार उठाता हो, ऐसा मनुष्य भी वृष्णिकुल में नहीं उत्पन्न हुआ है।' ‘दारुककुमार! तू सूतकुल में उत्पन्न होने के साथ ही सूतकर्म की अच्छी तरह शिक्षा पा चुका है। वृष्णिवंशी वीरों का युद्ध में क्या धर्म है, यह भी भली-भाँति जानता है।' ‘सूतनन्दन! युद्ध के मुहाने पर डटे हुए वृष्णिकुल के वीरों का सम्पूर्ण चरित्र तुझसे अज्ञात नहीं है; अतः तू फिर कभी किसी तरह भी युद्ध से न लौटना।'[1]
‘युद्ध से लौटने या भ्रान्तचित्त होकर भागने पर जब मेरी पीठ में शत्रु के बाणों का आघात लगा हो, उस समय किसी से परास्त न होने वाले मेरे पिता गदग्रज भगवान माधव मुझसे क्या कहेंगे? ‘अथवा पिताजी के बड़े भाई नीलाम्बरधारी मदोत्कट महाबाहु बलराम जी जब यहाँ पधारेंगे, तब वे मुझसे क्या कहेंगे? ‘सूत! युद्ध से भागने पर मनुष्यों में सिंह के समान पराक्रमी महाधर्नुधर सात्यकि तथा समर विजयी साम्ब मुझसे क्या कहेंगे? ‘सारथे! दुर्धर्ष वीर चारुदेष्ण, गद, सारण, और महाबाहु अक्रूर मुझसे क्या कहेंगे? ‘मैं शूरवीर, सम्भावित ( सम्मानित ), शान्तस्वभाव तथा सदा अपने को वीर पुरुष मानने वाला समझता हूँ। (युद्ध से भागने पर ) मुझे देखकर झुंड की झुंड एकत्र हुई वृष्णि वीरों की स्त्रियाँ मुझे क्या कहेंगी?' ‘सब लोग यही कहेंगे-‘ यह प्रद्युम्न भयभीत हो महान संग्राम छोड़कर भाग रहा है; इसे धिक्कार है।’ उस अवस्था में किसी के मुख से मेरे लिये अच्छे शब्द नहीं निकलेंगे। ‘सूतकुमार! मेरे अथवा मेरे जैसे किसी भी पुरुष के लिये धिक्कारयुक्त वाणी द्वारा कोई परिहास भी कर दे, तो वह मृत्यु से भी अधिक कष्ट देने वाला है; अतः तू फिर कभी युद्ध छोड़कर न भागना।' ‘मेरे पिता मधुसूदन भगवान श्रीहरि यहाँ की रक्षा का सारा भार मुझ पर रखकर भरतवंशशिरोमणि धर्मराज युधिष्ठिर के यज्ञ में गये हैं। ( आज मुझसे जो अपराध हो गया है,) इसे वे कभी क्षमा नहीं कर सकेंगे। ‘सूतपुत्र! वीर कृतवर्मा शाल्व का सामना करने के लिये पुरी से बाहर आ रहे थे; किंतु मैंने उन्हें रोक दिया और कहा- ‘आप यहीं रहिये। मैं शाल्व को परास्त कर दूँगा।' ‘कृतवर्मा मुझे इस कार्य के लिये समर्थ जानकर युद्ध से निवृत्त हो गये।' आज युद्ध छोड़कर जब मैं उन महारथी वीर से मिलूँगा, तब उन्हें क्या जबाब दूँगा? ‘शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले कमलनयन महाबाहु एवं अजेय वीर भगवान पुरुषोत्तम जब यहाँ मेरे निकट पदार्पण करेंगे, तब उन्हें क्या उत्तर दूँगा? ‘सात्सकि से बलरामजी से तथा अन्धक और वृष्णि वंश के अन्य वीरों से, जो सदा मुझसे स्पर्धा रखते हैं, मैं क्या कहूँगा? ‘सूतपुत्र! तेरे द्वारा रण से दूर लाया हुआ मैं इस युद्ध को छोड़कर और पीठ पर बाणों की चोट खाकर विवशतापूर्ण जीवन किसी प्रकार भी नहीं धारण करूँगा।' ‘दारुकनन्दन! अतः तू शीघ्र ही रथ के द्वारा पुनः संग्राम भूमि की ओर लौटा। आज मुझ पर आपत्ति आने पर भी तू किसी तरह ऐसा बर्ताव न करना। ‘सूतपुत्र! पीठपर बाणों की चोट खाकर भयभीत हो युद्ध से भागने वाले जीवन को मैं किसी प्रकार भी आदर नहीं देता।' ‘सूतपुत्र! क्या तू मुझे कायरों की तरह भय से पीड़ित और युद्ध छोड़कर भागा हुआ समझता है? ‘दारुककुमार! तुझे संग्रामभूमि का परित्याग करना कदापि उचित नहीं था। विशेषतः उस अवस्था में, जबकि मैं युद्ध की अभिलाषा रखता था। अतः जहाँ युद्ध हो रहा है,वहाँ चल।'[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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| अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध
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| इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन
| युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा
| नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत
| पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान
| पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास
| पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश
| द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना
| भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना
| भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप
| युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज
| युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना
| सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश
| पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन
| तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य
| ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा
| तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद
| वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा
| चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन
| प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप
| बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना
| मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन
| युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन
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| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश
| इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह
| शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता
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| नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन
| इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा
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| मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन
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घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार
| शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना
| दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना
| दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति
| द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद
| कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय
| गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण
| कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश
| पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध
| पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय
| चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा
| दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन
| दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना
| दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश
| कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय
| दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना
| दैत्यों का दुर्योधन को समझाना
| दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान
| भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव
| कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान
| कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय
| कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार
| दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी
| दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति
| कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा
| युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन
| व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन
| दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा
| महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना
| देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार
| दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना
| द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना
| कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना
| जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना
| कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना
| द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर
| जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद
| जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण
| पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना
| द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन
| पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार
| युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना
| भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना
| शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना
| राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन
| रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति
| कुबेर का रावण को शाप देना
| देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना
| राम के राज्याभिषेक की तैयारी
| राम का वन को प्रस्थान
| भरत की चित्रकूट यात्रा
| राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप
| राम द्वारा मारीच का वध
| रावण द्वारा सीता का अपहरण
| रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार
| राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध
| राम और सुग्रीव की मित्रता
| राम द्वारा बाली का वध
| अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन
| रावण और सीता का संवाद
| राम का सुग्रीव पर कोप
| सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना
| हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना
| वानर सेना का संगठन
| नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण
| विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश
| अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना
| राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम
| राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध
| प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध
| रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना
| कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध
| इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा
| राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना
| लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध
| रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना
| राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध
| राम का सीता के प्रति संदेह
| देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन
| राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक
| मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति
| सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण
| सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय
| सावित्री और सत्यवान का विवाह
| सावित्री की व्रतचर्या
| सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना
| सावित्री और यम का संवाद
| यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना
| सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप
| राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता
| सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन
| द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना
| कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना
| सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश
| कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय
| कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन
| कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना
| कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या
| कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश
| कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन
| कुन्ती-सूर्य संवाद
| सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
| कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप
| अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति
| कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन
| कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति
| इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग
| युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश
| नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना
| यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद
| यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
| युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना
| यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना
| युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना
| भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श
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