- कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन किया जाता है और अब द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा देने के बारे में बताया गया है, जिसका उल्लेख महाभारत वनपर्व के 'द्रौपदीसत्यभामा संवाद पर्व' के अंतर्गत अध्याय 233 में बताया गयाहै[1]-
विषय सूची
द्रौपदी और सत्यभामा का मिलन
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! जब महात्मा पाण्डव तथा ब्राह्मण लोग आस पास बैठकर धर्म चर्चा कर रहे थे, उसी समय द्रौपदी और सत्यभामा भी एक ओर जाकर एक ही साथ सुखपूर्वक बैठीं और अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक परस्पर हास्य-विनोद करने लगीं। राजेन्द्र! दोनों ने एक दूसरी को बहुत दिनों बाद देखा था, इसलिये परस्पर प्रिय लगने वाली बातें करती हुई वहाँ सुखपूर्वक बैठी रहीं। कुरुकुल और यदुकुल से सम्बन्ध रखने वाली अनेक विचित्र बातें उनकी चर्चा की विषय थीं।
सत्यभामा का संवाद
भगवान श्रीकृष्ण- की प्यारी पटरानी सत्राजित्कुमारी सुन्दरी सत्यभामा ने एकान्त में द्रौपदी से इस प्रकार पूछा- ‘शुभे! द्रुपदकुमारि! किस वर्ताव से तुम हृष्ट-पुष्ट अंगो वाले तथा लोकपालों के समान वीर पाण्डवों के हृदय पर अधिकार रखती हो ? किस प्रकार तुम्हारे वश में रहते हुए वे कभी तुम पर कुपित नहीं होते ? प्रियदर्शने! क्या कारण है कि पाण्डव सदा तुम्हारे अधीन रहते हैं और सब के सब तुम्हारे मुंह की ओर देखते रहते हैं? इसका यथार्थ रहस्य मुझे बताओ। ‘पाञ्चालकुमारी कुमारी कृष्णे! आज मुझे भी कोई ऐसा व्रत, तप, स्नान, मन्त्र, औषध, विद्या-शक्ति, मूल-शक्ति[2]जप, होम या दवा बताओ, जो यश और सौभाग्य की वृद्धि करने वाला हो तथा जिससे श्यामसुन्दर सदा मेरे अधीन रहें’। ऐसा कहकर यशस्विनी सत्यभामा चुप हो गयी।
द्रौपदी का संवाद
तब पतिपरायणा महाभागा द्रौपदी ने उसे इस प्रकार उत्तर दिया- ‘सत्ये! तुम मुझसे जिसके विषय में पूछ रही हो, वह साध्वी स्त्रियों का नही, दुराचारिणी और कुलटा स्त्रियों का आचरण है। जिस मार्ग का दुराचारिणी स्त्रियों ने अवलम्बन किया है, उसके विषय में हम लोग कोई चर्चा कैसे कर सकती हैं ? ‘इस प्रकार का प्रश्र अथवा स्वामी के स्नेह में सन्देह करना तुम्हारे-जैसी साध्वी स्त्री के लिये कदापि उचित नहीं है; चूंकि तुम बुद्धिमती होने के साथ ही श्यामसुन्दर की प्रियतमा पटरानी हो। ‘जब पति को यह मालूम हो जाय कि उसकी पत्नी उसे वश में करने के लिये किसी मन्त्र-तन्त्र अथवा जडी-बूटी का प्रयोग कर रही है, तो वह उस से उसी प्रकार उद्विग्न हो उठता है, जैसे अपने घर में घुसे हुए सर्प से लोग शंकित रहते हैं। ‘उदिग्न को शान्ति कैसी? और अशान्त को सुख कहां? अत: मन्त्र-तन्त्र करने से पति अपनी पत्नी के वश में कदापि नही हो सकता। ‘इसके सिवा, ऐसे अवसरों पर धोखे से शत्रुओं द्वारा भेजी हुई ओषधियोंको खिलाकर कितनी ही स्त्रियां अपने पतियों को अत्यन्त भंयकर रोगों का शिकार बना देती हैं। किसी को मारने की इच्छा वाले मनुष्य उसकी स्त्री के हाथ में यह प्रचार करते हुए विष दे देते हैं कि ‘यह पति को वश में करने वाली जड़ी बूटी है’। ‘उनके दिये हुए चूर्ण ऐसे होते हैं कि उन्हें पति यदि जिहृ अथवा त्वचा से भी स्पर्श कर ले, तो वे नि:सन्देह उसी क्षण उसके प्राण ले लें। कितनी ही स्त्रियों ने अपने पतियों को[3]जलोदर और कोढ का रोगी, असमय में ही वृद्ध, नपुंसक, अंधा, गूंगा और बहरा बना दिया है। इस प्रकार पापियों का अनुसरण करने वाली वे पापिनी स्त्रियां अपने पतियों को अनेक प्रकार की विपत्तियों में डाल देती हैं। अत: साध्वी स्त्री को चाहिये कि वह कभी किसी प्रकार भी पति का अप्रिय न करे। ‘यशस्विनी सत्यभामे! मैं स्वयं महात्मा पाण्डवों के साथ जैसा बर्ताव करती हूँ, वह सब सच-सच सुनाती हूँ; सुनो। ‘मैं अहंकार और काम क्रोध को छोड़कर सदा पूरी सावधानी के साथ सब पाण्डवों की और उनकी अन्यान्य स्त्रियों की भी सेवा करती हूँ। अपनी इच्छाओं का दमन करके मन को अपने आप में ही समेटे हुए केवल सेवा की इच्छा से ही अपने पतियों का मन रखती हूँ। अहंकार और अभिमान को अपने पास नहीं फटकने देती। ‘कभी मेरे मुख से कोई बुरी बात न निकल जाय, इसकी आशंका से सदा सावधान रहती हूँ। असम्य की भॉंति कहीं खड़ी नहीं होती। निर्लज्ज की तरह सब ओर दृष्टि नहीं डालती। बुरी जगह पर नहीं बैठती।
दुराचार से बचती तथा चलने-फिरने में भी असभ्यता न हो जाय, इसके लिये सतत सावधान रहती हूँ। पतियों के अभिप्रायपूर्ण संकेत का सदैव अनुसरण करती हूँ। कुन्तीदेवी के पांचों पुत्र ही मेरे पति हैं वे सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी, चन्द्रमा के समान आहृद प्रदान करने वाले महारथी दृष्टि मात्र से ही शत्रुओं को मारने की शक्ति रखने वाले तथा भंयकर बल-पराक्रम एवं प्रताप से युक्त हैं। मैं सदा उन्हीं की सेवा में लगी रहती हूँ। ‘देवता’ मनुष्य, गन्धर्व, युवक बड़ी सजधज वाला धनवान अथवा परम सुन्दर कैसा ही पुरुष क्यों न हो, मेरा मन पाण्डवों के सिवा और कहीं नहीं जाता। ‘पतियों और उनके सेवकों को भोजन कराये बिना मैं कभी भोजन नहीं करती, उन्हें नहलाये बिना कभी नहाती नहीं हूँ तथा पति देव जब तक शयन न करें, तब तक मैं सोती भी नहीं हूँ। ‘खेत से वन से अथवा गांव से जब कभी मेरे पति घर पधारते हैं, उस समय मैं खड़ी होकर उनका अभिनन्दन करती हूँ। तथा आसन और जल अर्पण करके उनके स्वागत सत्कार में लग जाती हूँ। ‘मैं घर के बर्तनों को मांज धोकर साफ रखती हूँ। शुद्ध एवं स्वादिष्ट रसोई तैयार करके सब को ठीक समय पर भोजन कराती हूँ। मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर घर में गुप्त - रूप से अनाज का संचय रखती हूँ और घर का झाड़-बुहार, और लीप-पोतकर सदा स्वच्छ एवं पवित्र बनाये रखती हूँ। ‘मैं कोई ऐसी बात मुहं से नहीं निकालती, जिससे किसी का तिरस्कार होता हो। दुष्ट स्त्रियों के सम्पर्क से सदा दूर रहती हूँ। आलस्य को कभी पास नहीं आने देती और सदा पतियों के अनुकूल बर्ताव करती हूँ। ‘पति के किये हुए परिहास के सिवा अन्य समय में मैं नहीं हंसा करती, दरवाजे पर बारबार नहीं खड़ी होती, जहाँ कूड़े करकट फेंके जाते हों, ऐसे गंदे स्थानों में देर तक नहीं ठहरती और बगीचों में भी बहुत देर तक अकेली नहीं घूमती हूँ।
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा
‘नीच पुरुषों से बात नहीं करती, मन में असंतोष को स्थान नहीं देती और परायी चर्चा से दूर रहती हूँ न अधिक हंसती हूँ और न अधिक क्रोध करती हूँ। क्रोध का अवसर ही नहीं आने देती। सदा सत्य बोलती और पतियों की सेवा में लगी रहती हूँ। ‘पतिदेव के बिना किसी भी स्थान में अकेली रहना मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं है। मेरे स्वामी जब कभी कुटुम्ब के कार्य से कभी परदेश चले जाते हैं, उन दिनों मैं फूलों का श्रृंगार नहीं धारण करती, अंगराग नहीं लगाती और निरन्तर ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करती, हूँ। ‘मेरे पतिदेव जिस चीज को नहीं खाते, नहीं पीते अथवा नहीं सेवन करते, वह सब मैं भी त्याग देती हूँ।[4]‘सुन्दरी! शास्त्रों में स्त्रियों के लिये जिन कर्तव्यों का उपदेश किया गया है, उन सबका मैं नियमपूर्वक पालन करती हूँ। अपने अंगों को वस्त्रभूषणों से विभूषित रखकर पूरी सावधानी के साथ मैं प्रति के प्रिय एवं हित साधन में संलग्न रहती हूँ। मेरी सास ने अपने परिवार के लोगों के साथ बर्ताव में लाने योग्य जो धर्म पहले मुझे बताये थे, उन सबका मैं निरन्तर आलस्य रहित होकर पालन करती हूँ। ‘मैं दिन रात आलस्य त्याग कर भिक्षा-दान, बलिवैश्र-देव श्राद्ध, पर्वकालोचित्त स्थालीपाकयज्ञ, मान्य पुरुषों का आदर-सत्कार, विनय, नियम तथा अन्य जो-जो धर्म मुझे ज्ञात हैं, उन सबका सब प्रकार से उद्यत होकर पालन करती हूँ। ‘मेरे पति बड़े ही सज्जन और मृदुल स्वभाव के हैं। स्तवादी तथा सत्य धर्म का निरन्तर पालन करने वाले हैं; तथापि क्रोध में भरे हुए विषैले सर्पो से जिस प्रकार लोग डरते हैं, उसी प्रकार मैं अपने पतियों से डरती हुई उनकी सेवा करती हूँ। ‘मैं यह मानती हूँ कि पति के आश्रय में रहना ही स्त्रियों का सनातन धर्म हैं।
पति ही उनका देवता है और पति ही उनकी गति है। पति के सिवा नारी का दूसरा कोई सहारा नहीं है, ऐसे पतिदेवता का भला कौन स्त्री अप्रिय करेगी। ‘पतियों के शयन करने से पहले मैं कभी शयन नहीं करती, उनसे पहले भोजन नहीं करती, उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई आभूषण नहीं पहनती, अपनी सा की कभी निन्दा नहीं करती और अपने आप को सदा नियन्त्रण में रखती हूँ। ‘सौभाग्यशालिनी सत्यभामें! सावधानी से सर्वदा सबेरे उठकर समुचित सेवा के लिये सन्त्रद्ध रहती हूँ। गुरुजनों की सेवा-शुश्रूषा से ही मेरे पति मेरे अनुकूल रहते हैं। ‘मैं वीरजननी सत्यवादिनी आर्या कुन्तीदेवी की भोजन, वस्त्र और जल आदि से सदा स्वयं सेवा करती हूँ। ‘वस्त्र, आभूषण और भोजन आदि में मैं कभी सास की अपेक्षा अपने लिये कोई विशेषता नहीं रखती। मेरी सास कुन्तीदेवी पृथ्वी के समान क्षमाशील हैं। मैं कभी उनकी निन्दा नहीं करती। ‘पहले महाराज युधिष्ठिर के महल में प्रतिदिन आठ हजार ब्राह्मण सोने की थालियों में भोजन किया करते थे। ‘महाराज युधिष्ठिर के यहाँ अट्ठासी हजार ऐसे स्नातक गृहस्थ थे, जिनका वे भरण-पोषण करते थे। उनमें से प्रत्येक की सेवा में तीस-तीस दासियां रहती थीं। 'इनके सिवा दूसरे दस हजार और उर्ध्वरेता यति उनके यहाँ रहते थे, जिनके लिये सुन्दर ढंग से तैयार किया हुआ अन्न सोने की थालियों में परोस कर पहुँचाया जाता था। मैं उन सब वेद पाठी ब्राह्मणों को अग्रहार[5]का अर्पण करके भोजन, वस्त्र और जल के द्वारा उनकी यथा योग्य पूजा करती थी। ‘कुनतीनन्दन महात्मा युधिष्ठिर के एक लाख दासियां थी, जो हाथों में शंख की चूड़ियां, भुजाओं में बाजूबंद और कण्ठ में सुवर्ण के हार पहनकर बड़ी सजधज के साथ रहती थीं। ‘उनकी मालाएं तथा आभूषण बहुमूल्य थे, अंगकान्ति बड़ी सुन्दर थी। वे चन्दनमिश्रित जल से स्नान करती और चन्दन का ही अंगराग लगाती थी, मणि तथा सुवर्ण के गहने पहना करती थीं। नृत्य और गीत की कला में उनका कौशल देखने ही योग्य था। ‘उन सब के नाम, रूप तथा भोजन-आच्छादन आदि सभी बातों की मुझे जानकारी रहती थी। किसने क्या काम किया और क्या नहीं किया? यह बात भी मुझ से छिपी नहीं रहती थीं।[6]
बुद्धिमान कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर की एक लाख दासियां हाथों में (भोजन से भरी हुई) थाली लिये दिन-रात अतिथियों को भोजन कराती रहती थीं। ‘जिन दिनों महाराज युधिष्ठिर इन्द्रप्रस्थ में रहकर इस पृथ्वी का पालन करते थे, उस समय प्रत्येक यात्रा में उनके साथ एक लाख घोड़े और एक लाख हाथी चलते थे। मैं ही उनकी गणना करती, आवश्क वस्तुएं देती और उनकी आवश्कताएं सुनती थी। ‘अन्त:पुर के, नौकरों के तथा ग्वालों और गड़रियों से लेकर समस्त सेवकों के सभी कार्यो की देखभाल मैं ही करती थी और किसने क्या काम किया अथवा कौन काम अधूरा रह गया-इन सब बातों की जानकारी भी रखती थी। ‘कल्याणी एवं यस्विनी सत्यभामें! महाराज तथा अन्य पाण्डवों को जो कुछ आय, व्यय और बचत होती थी, उस सबका हिसाब मैं अकेली ही रखती और जानती थी। ‘वराननें! भरतश्रेष्ठ पाण्डव कुटुम्ब का सारा भार मुझ पर ही रखकर उपासना में लगे रहते और तदनुरूप चेष्टा करते थे। ‘मुझ पर जो भार रक्खा गया था, उसे दुष्ट स्वभाव के स्त्री-पुरुष नहीं उठा सकते थे। परंतु मैं सब प्रकार का सुख-भोग छोड़कर रात-दिन उस दुर्वह भार को वहन करनें की चेष्टा किया करती थी। ‘मेरे धर्मात्मा पतियों का भरा-पूरा खजाना वरुण के भण्डार और परिपूर्ण महासागर के समान अक्षय एवं अगम्य था। केवल मैं ही उसके विषय की ठीक जानकारी रखती थी। ‘रात हो या दिन, मैं सदा भूख-प्यास के कष्ट सहन करके निरन्तर कुरुकुल रत्न पाण्डवों की आराधना में लगी रहती थी। इससे मेरे लिये दिन और रात समान हो गये थे। ‘सत्ये! मैं प्रतिदिन सबसे पहले उठती और सबसे पीछे सोती थी। यह पति भक्ति और सेवा ही मेरा वशीकरण मन्त्र है। ‘पति को वश में करने का यही सबसे महत्वपूर्ण उपाय मैं जानती हूँ। दुराचारिणी स्त्रियां जिन उपायों का अवलम्बन करती है, उन्हें न तो मैं करती हूँ और न चाहती ही हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! द्रौपदी की ये धर्मयुक्त बातें सुनकर सत्यभामा नें उस धर्मपरायणा पांचाली का समादर करते हुए कहा- ‘पाञ्चालराजकुमारी! याज्ञसेनी! मैं तुम्हारी शरणमें आयी हूँ; ( मैंने जो अनुचित प्रश्र किया है ), उसके लिये मुझे क्षमा कर दो। सखियों में परस्पर स्वेच्छा-पूर्वक ऐसी हास-परिहास की बातें हो जाया करती हैं’।[7]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 233 श्लोक 1-17
- ↑ जड़ी-बूटी का प्रभाव
- ↑ वश में करने की आशा से हानिकारक दवाएं खिलाकर उन्हें
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 233 श्लोक 18-31
- ↑ बलिवैश्वदेव के अन्त में अतिथि को दिये जाने वाले प्रथम अन्न
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 233 श्लोक 32-48
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 233 श्लोक 49-61
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अर्जुन का स्वर्गलोक से आगमन तथा भाईयों से मिलन
| इन्द्र का आगमन तथा युधिष्ठिर को सान्त्वना देना
| अर्जुन का अपनी तपस्या यात्रा के वृत्तान्त का वर्णन
| अर्जुन द्वारा शिव से संग्राम एवं पाशुपतास्त्र प्राप्ति की कथा
| अर्जुन का युधिष्ठिर से स्वर्गलोक में प्राप्त अपनी अस्त्रविद्या का कथन
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्ध की तैयारी का कथन
| अर्जुन का पाताल में प्रवेश
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्धारम्भ
| अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध
| अर्जुन के साथ निवातकवचों के मायामय युद्ध का वर्णन
| अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध
| अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध
| इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन
| युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा
| नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत
| पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान
| पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास
| पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश
| द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना
| भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना
| भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप
| युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज
| युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना
| सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश
| पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन
| तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य
| ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा
| तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद
| वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा
| चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन
| प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप
| बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना
| मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन
| युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन
| कल्कि अवतार का वर्णन
| भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश
| इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह
| शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता
| इन्द्र और बक मुनि का संवाद
| सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा
| ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान
| सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र
| इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा
| नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन
| इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा
| मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन
| मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन
| उत्तंक मुनि की कथा
| उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह
| ब्रह्मा की उत्पत्ति
| विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध
| धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति
| कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध
| कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति
| पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य
| कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान
| कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना
| धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा
| धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन
| धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश
| धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना
| धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार
| अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना
| अंगिरा की संतति का वर्णन
| बृहस्पति की संतति का वर्णन
| पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति
| पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन
| अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन
| सह अग्नि का जल में प्रवेश
| अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य
| इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार
| इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना
| अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन
| स्कन्द की उत्पत्ति
| स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण
| विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना
| अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना
| इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान
| स्कन्द के पार्षदों का वर्णन
| स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप
| स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक
| स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह
| कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति
| मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन
| स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार
| रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा
| देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध
| कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा
| द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा
| सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार
| शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना
| दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना
| दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति
| द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद
| कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय
| गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण
| कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश
| पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध
| पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय
| चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा
| दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन
| दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना
| दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश
| कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय
| दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना
| दैत्यों का दुर्योधन को समझाना
| दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान
| भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव
| कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान
| कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय
| कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार
| दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी
| दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति
| कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा
| युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन
| व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन
| दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा
| महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना
| देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार
| दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना
| द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना
| कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना
| जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना
| कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना
| द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर
| जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद
| जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण
| पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना
| द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन
| पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार
| युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना
| भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना
| शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना
| राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन
| रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति
| कुबेर का रावण को शाप देना
| देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना
| राम के राज्याभिषेक की तैयारी
| राम का वन को प्रस्थान
| भरत की चित्रकूट यात्रा
| राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप
| राम द्वारा मारीच का वध
| रावण द्वारा सीता का अपहरण
| रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार
| राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध
| राम और सुग्रीव की मित्रता
| राम द्वारा बाली का वध
| अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन
| रावण और सीता का संवाद
| राम का सुग्रीव पर कोप
| सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना
| हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना
| वानर सेना का संगठन
| नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण
| विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश
| अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना
| राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम
| राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध
| प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध
| रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना
| कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध
| इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा
| राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना
| लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध
| रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना
| राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध
| राम का सीता के प्रति संदेह
| देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन
| राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक
| मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति
| सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण
| सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय
| सावित्री और सत्यवान का विवाह
| सावित्री की व्रतचर्या
| सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना
| सावित्री और यम का संवाद
| यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना
| सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप
| राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता
| सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन
| द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना
| कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना
| सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश
| कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय
| कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन
| कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना
| कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या
| कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश
| कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन
| कुन्ती-सूर्य संवाद
| सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
| कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप
| अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति
| कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन
| कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति
| इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग
| युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश
| नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना
| यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद
| यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
| युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना
| यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना
| युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना
| भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श
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