मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन

काम्यवन में पाण्डवों के पास भगवान श्रीकृष्ण, मुनिवर मार्कण्डेय तथा नारद जी का आगमन होता है और अब युधिष्ठिर के पूछने पर मार्कण्डेय जी के द्वारा कर्मफल-भोग के विवेचन के बारे में बताया गया है, जिसका उल्लेख महाभारत वनपर्व के 'मार्कण्डेयसमस्या पर्व' के अंतर्गत अध्याय 183 में बताया गया है[1]-

युधिष्ठिर द्वारा मार्कण्डेय को प्ररित करना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! महामुनि मार्कण्डेय जी के बोलने के लिये उद्यत देख कुरुराज पाण्डु- पुत्र युधिष्ठिर ने कथा प्रारम्भ करने के लिये इस प्रकार प्रेरित किया। 'महामुने! आप देवताओं, दैत्यों, ऋषियों, महात्माओं तथा समस्त राजर्षियों के चरित्रों को जानने वाले प्राचीन महर्षि हैं। 'हमारे मन में दीर्घकाल से यह इच्छा थी कि हमें आपकी सेवा और सत्संग का शुभ अवसर मिले। ये देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण भी हम से मिलने के लिये यहाँ पधारे हैं। 'ब्राह्मन! जब मैं अपने को सुख से वंचित पाता हूँ और दुराचारी धृतराष्ट्र पुत्रों को सब प्रकार से समृद्धिशाली होते देखता हूं, तब स्वभावतः ही मेरे मन में एक विचार उठता हैं। 'मैं सोचता हूं, शुभ और अशुभ कर्म करने वाला जो पुरुष हैं, वह अपने उन कर्मों का फल कैसे भोगता हैं तथा ईश्वर उन कर्म फलों का रचयिता कैसे होता है? ब्रह्मावेताओं में श्रेष्ठ मुनीश्वर! सुख और दुख की प्राप्ति कराने वाले कर्मों में मनुष्यों की प्रवृति कैसे होती हैं? मनुष्य का किया कर्म इस लोक में ही उसका अनुसरण करता हैं अथवा पालौकिक शरीर में भी? द्विजश्रैष्ठ! देहधारी जीव अपने शरीर का त्याग करके जब परलोक में चला जाता हैं, तब उसके शुभ और अशुभ कर्म उसको कैसे प्राप्त करते हैं और इहलोक और परलोक में जीव का उन कर्मों के फल से किस प्रकार संयोग होता है? 'भृगुनन्दन! कर्मों का फल इसी लोक में प्राप्त होता है या परलोक में? प्राणी की मृत्यु हो जाने पर उसके कर्म कहां रहते हैं।

मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन

मार्कण्डेय जी बोले- वक्ताओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर! तुम्हारा यह प्रश्न यथार्थ और युक्ति संगत हैं। तुम्हें जानने योग्य सभी बातों का ज्ञान हैं, तो भी तुम केवल लोक-मर्यादा की रक्षा के लिये यह प्रश्न उपस्थित करते हो। मनुष्य इहलोक या परलोक में जिस प्रकार सुख और दुःख भोगता हैं, इसके विषय में तुम्हें अपना विचार बताऊँगा। तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। सर्वप्रथम प्रजापति ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए। उन्होंने जीवों के लिये निर्मल तथा विशुद्ध शरीर बनाये। साथ ही धर्म का ज्ञान कराने वाले धर्मशास़्त्रों को प्रकट किया। उस समय के सब मनुष्य उत्तम व्रत का पालन करने वाले तथा सत्यवादी थे। उनका अभीष्ट-फल विषयक संकल्प कभी व्यर्थ नहीं होता था। कुरुश्रेष्ठ! वे सभी मनुष्य ब्रह्मास्वरूप पुण्यात्मा और चिरजीवी थे। सभी स्वच्छापूर्वक आकाश मार्ग से उड़कर देवताओं से मिलने जाते और स्वच्छाचारी होने के कारण इच्छा होते ही पुनः वहाँ से लौट आते थे। वे अपनी इच्छा होने पर ही मरते और इच्छा के अनुसार ही जीवित रहते थे। स्वतंत्रता पूर्वक सर्वत्र विचरण करते थे। उनके मार्ग में बाधाएं बहुत कम आती थी। उन्हें कोई भय नहीं होता था। वे उपद्रवशून्य तथा पूर्णकाम थे। देवताओं तथा महात्मा ऋषियों के समुदाय का उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन होता था। वे सभी धर्मों की प्रत्यक्ष करने वाले, जितेन्द्रिय तथा ईष्य्रा रहित होते थे। उनकी आयु हजारों वर्षों की होती थी और वे हजार हजार पुत्र उत्पन्न करते थे। तदनन्तर कुछ काल के पश्चात भूतल पर विचरने वाले मनुष्य काम और क्रोध के वशीभूत हो गये। वे छल कपट और दम्भ से जीविका चलाने लगे। उनके मन को लोभ और मोहने दबा लिया। इन दोषों के कारण उन्हें इच्छा न होते हुए भी अपना शरीर त्यागने के लिये विवश होना पड़ा वे पाप परायण हो अपने अशुभ कर्मों के फलस्वरूप पशु-पक्षी आदि की योनियों में जाने और नरक में गिरने लगे। विचित्र सांसारिक योनियों में बारंबार जन्म लेकर दुःख से संतप्त होने लगे। उनकी कामनाएं, उनके संकल्प और उनके ज्ञान सभी निष्फल थे। उनकी स्मरणशक्ति क्षीण हो गयी थी। वे सभी परस्पर संदेह करते हुए एक दूसरे के लिये क्लेशदायक बन गये।उनके शरीर में प्रायः उनके अशुभ कर्मों के चिह्न ( कोढ़ आदि ) प्रकट होने लगे। कोई अधम-कुल में जन्म लेते, कोई बहुत से रोगों के शिकार बने रहते ओर कोई दुष्ट स्वभाव के हो जाते थे। उनमें से कोई भी प्रतापी नहीं होता था। इस प्रकार पापकर्मों में प्रवृत होने वाले पापियों की आयु उनके कर्मानुसार बहुत कम हो गयी। उनके पापकर्मों के भयंकर फल प्रकट होने लगे।

वे अपनी सभी अभीष्ट वस्तुओं के लिये दूसरे के सामने हाथ फैलाकर याचना करने लगे। कितने ही नास्तिक ओर विचलित हो गये। कुन्तीनन्दन! इस संसार में मृत्यु के पश्चात जीव की गति उनके अपने अपने कर्मों के अनुसार ही होती हैं। परंतु मरने के बाद ज्ञानी और अज्ञानी की कर्मराशि कहां रहती हैं? कहां रहकर वह पुण्य अथवा पाप का फल भोगता हैं? इस दृष्टि से जो तुमने प्रश्न किया हैं, उसके उतरमें मैं सिद्धांत बता रहा हूँ। यह मनुष्य ईश्वरके रचे हुए पूर्व शरीर के द्वारा [2] शुभ और अशुभ कर्मों की बहुत बड़ी राशि संचित कर लेता हैं। फिर आयु पूरी होने पर वह इस जरा-जर्जर स्थूल शरीर का त्याग करके उसी क्षण किसी दूसरी योनि ( शरीर ) में प्रकट होता है। एक शरीर को छोड़ने और दूसरों को ग्रहण करने के बीच में क्षणभर के लिये भी वह असंसारी नहीं होता।[3]वहाँ दूसरे स्थूल शरीर में उसके पूर्व जन्म का किया हुआ कर्म छाया की भाँति सदा उसके पिदे लगा रहता और यथा समय अपना फल देता हैं। इसलिये जीव सुख अथवा दुःख भोगने के लिये योग्य होकर जन्म लेता हैं। यमराज के विधान[4]में नियुक्त हुआ जीव अपने शुभ अथवा अशुभ लक्षणों द्वारा अपने को मिले हुए सुख अथवा दुःख का निवारण करने में असमर्थ हैं। यह बात ज्ञान दृष्टिवाले महात्मा पुरुषों द्वारा देखी जाती हैं। युधिष्ठिर! यह तत्त्वज्ञानशून्य मूढ़ मनुष्यों की स्वर्ग नरकरूप गति बतायी गयी हैं। अब इसके बाद विवेकी पुरुषों को प्राप्त होने वाली उत्तम गति का वर्णन सुनो। ज्ञानी मनुष्य तपस्वी, सम्पूर्ण शास्त्रों के स्वाध्याय में तत्पर, स्थिरतापूर्वक व्रत का पालन करने वाले, सत्यपरायण, गुरुसेवा में जितेन्द्रिय ओर अत्यन्त तेजस्वी होते हैं। वे शुद्ध योनि में जन्म लेते और प्रायः शुभ लक्षणों से सुशोभित होते हैं। जितेन्द्रिय होने के कारण वे मन को वश में रखते हैं और सात्त्विक अन्तःकरण के होने के कारण निरोग होते हैं। दुःख और त्रास के क्षीण होने के कारण वे उपद्रव रहित होते हैं। विवेकी पुरुष गर्भ से गिरते, जन्म लेते अथवा गर्भ में ही रहते समय भी ज्ञान-दृष्टि से अपने आपका और परमात्मा का सर्वथा यथार्थ अनुभव करते हैं। लौकिक तथा शास्त्रीय ज्ञान को प्रत्यक्ष करने वाले वे महामना ऋषि इस कर्मभूमि में आकर फिर देवलोक में चले जाते हैं। राजन! विवेकी मनुष्य कर्मों का कुछ फल प्रारब्धवश प्राप्त करते हैं, कुछ कर्मों का फल हठात प्राप्त होता है और कुछ कर्मों का फल अपने उद्योग से ही प्राप्त होता है। इस विषय में तुम्हें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये।

वक्ताओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर! मनुष्यलोक मैं जिसे परम कल्याण की बात समझता हूं, उसके विषय में यह उदाहरण सुनो। कोई मनुष्य इस लोक में ही परम सुख पाता हैं, परलोक में नहीं। किसी को परलोक में ही परम कल्याण की प्राप्ति होती हैं, किसी को परलोक मैं ही परम कल्याण की प्राप्ति होती हैं, इस लोक में नहीं। किसी को इहलोक और परलोक दोनों में परम श्रेय की प्राप्ति होती हैं तथा किसी को न तो परलोक में उत्तम सुख मिलता हैं और न इस लोक में ही। जिनके पास बहुत धन होता है, वे अपने शरीर को हर तरह से सजाकर नित्य विषयों में रमण करते अर्थात विषय-सुख भोगते हैं। शत्रुदमन! सदा अपने शरीर के ही सुख में आसक्त हुए उन मनुष्यों को केवल इसी लोक में सुख मिलता हैं, परलोक में उनके लिये सुख का सर्वथा अभाव हैं।

शत्रुदमन! जो लोग इस लोक में योगसाधन करते हैं, तपस्या में संलग्न होते हैं ओर स्वाध्याय में तत्पर रहते हैं तथा इस प्रकार प्राणियों की हिंसा से दूर रहकर इन्द्रियों को संयममें रखते हुए[5]अपने शरीर को दुर्बल कर देते हैं, उनके लिये इस लोक में सुख नहीं हैं। वे परलोक में ही परम कल्याण के भागी होते हैं। जो लोग कर्तव्य-बुद्धि से पहले धर्म का ही आचरण करते हैं और उस धर्म से ही[6]धन का उपार्जन कर यथा समय स्त्री से विवाह करके उसके साथ यज्ञ-याग और ईश्वर भक्ति आदि का अनुष्ठान करते हैं, उनके लिये इहलोक और परलोक दोनों ही सुखद हैं। जो मूढ़ न विद्या के लिये, न तप के लिये और न दान के लिये ही प्रयत्न करते हैं एवं न धर्मपर्वक संतानोत्पादक के लिये ही यत्नशील होते हैं, वे न तो सुख पाते हैं और न भोग ही भोगते हैं। उनके लिये न तो इस लोंक में सुख हैं और न परलोक में। राजा युधिष्ठिर! तुम सब लोग बड़े पराक्रमी और धैर्यवान हो। तुमसे अलौकिक ओज भरा हैं। तुम सुदृढ़ शरीर से सम्पन्न हो और देवताओं कार्य सिद्ध करने के लिये परलोक से इस पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हो। यही कारण हैं कि तुमने सभी उत्तम विद्याएं सीख ली हैं।

तुम सभी शूर-वीर तथा तपस्या, इन्द्रियसंयम और उत्तम आचार-व्यवहार में सदा ही तत्पर रहने वाले हो। अतः[7]देवताओं, ऋषियों और समस्त पितरों को उत्तम विधि से तृप्त करोगे। तत्पश्चात अपने सत्कर्मों के फलस्वरूप तुम सब लोग क्रम से पुण्यात्माओं के निवास स्थान परम स्वर्गलोक को चले जाओगे। इसलिये कौरवराज! तुम[8]मन में किसी प्रकार की शंका को स्थान न दो। यह क्लेश तो तुम्हारे भावी सुख का ही सूचक हैं।[9]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत वन पर्व अध्याय 183 श्लोक 38-58
  2. अन्तःकरण में
  3. महाभारत वन पर्व अध्याय 183 श्लोक 59-77
  4. पुण्य और पापके फल भोग
  5. तपस्या द्वारा
  6. न्याययुक्त
  7. इस संसार में बडे-बडे महत्त्वपूर्ण कार्य करके
  8. अपने वर्तमान कष्ट को देखकर
  9. महाभारत वन पर्व अध्याय 183 श्लोक 78-95

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भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत | पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान | पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास | पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश | द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना | भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना | भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप | युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज | युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना | सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश | पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन | तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य | ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा | तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद | वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा | चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन | प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन | मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन | मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप | बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना | मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन | युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन | कल्कि अवतार का वर्णन | भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश | इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह | शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता | इन्द्र और बक मुनि का संवाद | सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा | ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान | सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र | इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा | नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन | इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा | मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन | मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन | उत्तंक मुनि की कथा | उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह | ब्रह्मा की उत्पत्ति | विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध | धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति | कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध | कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति | पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य | कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान | कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना | धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा | धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन | धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश | धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना | धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार | अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना | अंगिरा की संतति का वर्णन | बृहस्पति की संतति का वर्णन | पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति | पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन | अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन | सह अग्नि का जल में प्रवेश | अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य | इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार | इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना | अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन | स्कन्द की उत्पत्ति | स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण | विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना | अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना | इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान | स्कन्द के पार्षदों का वर्णन | स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप | स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक | स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह | कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति | मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन | स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार | रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा | देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध | कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा | द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा | सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार | शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना | दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना | दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति | द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद | कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय | गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण | कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश | पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध | पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय | चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा | दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन | दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना | दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश | कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय | दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना | दैत्यों का दुर्योधन को समझाना | दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान | भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव | कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान | कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय | कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार | दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी | दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति | कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा | युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन | व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन | दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा | महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना | देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन | व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार | दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना | द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना | कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना | जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना | कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना | द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर | जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद | जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण | पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना | द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन | पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार | युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना | भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना | शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना | राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन | रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति | कुबेर का रावण को शाप देना | देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना | राम के राज्याभिषेक की तैयारी | राम का वन को प्रस्थान | भरत की चित्रकूट यात्रा | राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप | राम द्वारा मारीच का वध | रावण द्वारा सीता का अपहरण | रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार | राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध | राम और सुग्रीव की मित्रता | राम द्वारा बाली का वध | अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन | रावण और सीता का संवाद | राम का सुग्रीव पर कोप | सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना | हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना | वानर सेना का संगठन | नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण | विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश | अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना | राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम | राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध | प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध | रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना | कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध | इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा | राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना | लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध | रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना | राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध | राम का सीता के प्रति संदेह | देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन | राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक | मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति | सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण | सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय | सावित्री और सत्यवान का विवाह | सावित्री की व्रतचर्या | सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना | सावित्री और यम का संवाद | यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना | सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप | राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता | सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन | द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना | कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना | सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश | कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय | कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन | कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना | कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या | कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश | कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन | कुन्ती-सूर्य संवाद | सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन | कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप | अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति | कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन | कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति | इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग | युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश | नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना | यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद | यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर | युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना | यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना | युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना | भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श

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