- महाभारत वनपर्व के आरणेय पर्व के अंतर्गत अध्याय 313 में यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर संवाद का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर संवाद की कथा कही है।[1]
विषय सूची
यक्ष-युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
यक्ष ने पूछा- सूर्य को कौन ऊपर उठाता[2] करता है , उसके चारों ओर कौन चलते हैं , उसे असत कौन करता है , और वह किसमें प्रतिष्ठित है?
युधिष्ठिर बोले- ब्रह्म सूर्य को ऊपर उठाता [3]है, दूवता उसके चारों ओर चलते हैं, धर्म उसे असत करता है और वह सत्य में प्रतिष्ठित है।
यक्ष ने पूछा - राजन! मनुष्य श्रोत्रिय किससे होता है, महत्पद किसके द्वारा प्राप्त करता है? वह किसके द्वारा द्वितीयवान होता है? ओर किससे बुद्धिमान होता है?
युधिष्ठिर बोले- वेदाध्ययन के द्वारा मनुष्य श्रोत्रिय होता है, तप से महत्पद प्राप्त करता है, धैर्य से द्वितीवान [4] होता है और वृद्ध पुरुषों की सेवा में बुद्धिमान होता है।
यक्ष ने पूछा- ब्राह्मणों में देवत्त्व क्या है, उनमें सत्पुरुषों सा धर्म क्या है?उनका मनुष्य-भाव क्या है , और उनमें असत्पुरुषों का सा आचरण क्या है?
युधिष्ठिर बोले- वेदों का स्वाध्याय ही ब्राह्मणों में देवत्व है, तप सत्पुरुषों का सा धर्म है, मरना मनुष्य भाव है और निन्दा करना असत्पुरुषों का सा आचरण है।
यक्ष ने पूछा- क्षत्रियों में देवत्व क्या है, उनमें सत्पुरुषों सा धर्म क्या है? उनका मनुष्य-भाव क्या है , और उनमें असत्पुरुषों का सा आचरण क्या है?[1]
युधिष्ठिर बोले- बाणविद्या क्षत्रियों का देवत्व है, यज्ञ उनका सत्पुरुषों का सा धर्म है, भय मानवीय भाव है और शरण में आये हुए दुखियों का मरित्याग कर देना उनमें असत्पुरुषों का सा आचरण है।
यक्ष ने पूछा- कौन एक वस्तु यज्ञिय साम है , कौन एक[5]यज्ञिय है , कौन एक वस्तु यज्ञ का वरण करती है? और किस एक कायज्ञ अतिक्रण नहीं करता?
युधिष्ठिर बोले- प्राण ही यज्ञिय साम है, मन ही यज्ञसम्बन्धी यजु है, एकमात्र ऋचा ही यज्ञ का वरण करती है और उसी का यज्ञ अतिक्रमण नहीं करा।
यक्ष ने पूछा- खेती करने वालों के लिये कौन सी वस्तु श्रेष्ठ है? बिखेरने[6]वालों के लिये क्या श्रेष्ठ है? प्रतिष्ठा-प्राप्त धनियों के लिये कौन सी वस्तु श्रेष्ठ है? तथा संतानोत्पादन करने वालों के लिये क्या श्रेष्ठ है?
युधिष्ठिर बोले- खेती करने वालों के लिये वर्षा श्रेष्ठ है। बिखेरने [7] वालों के लिये बीज श्रेष्ठ है। प्रतिष्ठाप्राप्त धनियों के लिये गौ (का पालन-पोषण और संग्रह) श्रेष्ठ है और संतानोत्पादन करने वालों के लिये पुत्र श्रेष्ठ है।
यक्ष ने पूछा- ऐसा कौन पुरुष है, जो बुद्धिमान, लोक में सम्मानित और सब प्राणियों का माननीय होकर एवं इन्द्रियों के विषयों को अनुभव करते तथा श्वास लेते हुए भी वास्तव में जीवित नहीं हैं?
युधिष्ठिर बोले- जो देवता, अतिथि, भरणीय कुअम्बीजन, पितर और आत्मा-इन पाँचों का पोषण नहीं करता, वह श्वास लेने पर भी जीवित नहीं है।
यक्ष ने पूछा- पुथ्वी से भी भारी क्या है? आकाश से भी ऊँचा क्या है? वायु से भी तेज चलनेवाला क्या है? और तिनकों से भी अणिक [8] क्या है?
युधिष्ठिर बोले- माता का गौरव पृथ्वी से भी अधिक है। पिता आकाश से भी ऊँचा है। मन वायु से भी तेज चलने वालर है और चिन्ता तिनकों से भी अधिक असंख्य एवं अनन्त है।
यक्ष ने पूछा- कौन सोने पर भी आँखें नहीं मूंदता? उत्पनन हाकर भी कौन चेष्टा नहीं करता? किसमें हृदय नहीं है? और कौन वेग से बढ़ता है।
युधिष्ठिर बोले- मछली सोने पर भी आँखें नहीं मूँदती, अण्डा उत्पन्न होकर भी चेष्टा नहीं करता, पत्थरों में हृदय नहीं है और नदी वेग से आगे बढ़ती है।
यक्ष ने पूछा- प्रवासी (परदेश के यात्री)का मित्र कौन है? गृहवासी (गृहस्थ) का मित्र कौन है? रोगी का मित्र कौन है? और मृत्यु के समीप पहुँचे हुए पुरुष का मित्र कौन है?
युधिष्ठिर बोले- सहयात्रियों का समुदाय अथवा साथ में यात्रा करने वाला साथी ही प्रवासी मित्र है, पत्नी गृहवासी का मित्र है, वैद्य रोगी का मित्र है और दान मुमूर्षु (अर्थात्) मनुष्य का मित्र है।
यक्ष ने पूछा- राजेन्द्र! समसत प्राणियों का अतिथि कौन है? सनातन धर्म क्या है? अमृत क्या है , और वह सारा जगत क्या है?
युधिष्ठिर बोले- अग्नि समसत प्राणियों का अतिथि है, गौ का दूध अमृत है, अविनाशी नित्य धर्म ही सनातन धर्म है और वायु यह सारा जगत है।[9]
यक्ष ने पूछा- अकेला कौन विचरता है? एक बार उत्पन्न होकर पुनः कौन उत्पन्न होता है ? शीत की औषधि क्या है ? और महान् आवपन (क्षेत्र) क्या है?
युधिष्ठिर बोले- सूर्य अकेला विचरता है, चन्द्रमा एक बार जन्म लेकर पुनः जन्म लेता है, अग्नि शीत की औषधि है और पृथ्वी बड़ा भारी आवपन है।
यक्ष ने पूछा- धर्म का मुख्य स्थान क्या है? यश का मुख्य स्थान क्या है ? स्वर्ग का मुख्य स्थान क्या है ? और सुख का मुख्य स्थान क्या है?
युधिष्ठिर बोले- धर्म का मुख्य स्थान दक्षता है, यश का मुख्य स्थान दान है, स्वर्ग का मुख्य स्थान सत्य है और सुख का मुख्य स्थान शील है।
यक्ष ने पूछा- मनुष्य की आत्मा क्या है? इसका दैवकृत सखा कौन है ? इसका उपजीवन (जीवन का सहारा) क्या है ? और इसका परम आश्रय क्या है ? और इसका परम आश्रय क्या है?
युधिष्ठिर बोले- पुत्र मनुष्य की आत्मा है, स्त्री इसकी दैवकृत सहचरी है, मेघ उपजीवन है और दान इसका परम आश्रय है।
यक्ष ने पूछा- धन्यवाद के योग्य पुरुषों में उत्तम गुण क्या है? धनों में उत्तम धन क्या है ? लाभों में प्रधान लाभ क्या है ? और सुखों में उत्तम सुख क्या है?
युधिष्ठिर बोले- धन्य पुरुषों में दक्षता ही उत्तम गुण है, धनों में शास्त्रज्ञान प्रधान है? लाभों में आरोग्य श्रेष्ठ है और सुखों में संतोष ही उत्तम सुख है।
यक्ष ने पूछा- लोक में श्रेष्ठ कर्म क्या है , नित्य फल वाला धर्म क्या है? किसको वश में रखने से मनुष्य शोक नहीं करते , और किनके साथ की हुई मित्रता नष्ट नहीं होती?
युधिष्ठिर बोले- लोक में दया श्रेष्ठ धर्म है, वेदोक्त धर्म नित्य फलवाला है, मन को वश में रखने से मनुष्य शोक नहीं करते और सत्पुरुषों के साथ की हुई मित्रता नष्ट नहीं होती।
यक्ष ने पूछा- किस वस्तु को त्यागकर मनुष्य प्रिय होता है? किसको त्यागकर शोक नहीं करता , किसको त्यागकर वह अर्थवान होता है ? और किसको त्यागकर सुखी होता है?
युधिष्ठिर बोले- मान को त्याग देने पर मनुष्य प्रिय होता है, क्रोध को त्यागकर शोक नहीं करता, काम को त्यागकर वह अर्थवान् होता है और लोभ को त्यागकर सुखी होता है।
यक्ष ने पूछा- ब्राह्मण को क्यों दान दिया जाता हैं ? नट और नर्तकों को क्यों दान देते हैं? सेवकों को दान देने का क्या प्रयोजन है ? और राजाओं को क्यों दान दिया जाता है?
युधिष्ठिर बोले- ब्राह्मण को धर्म के लिये दान दिया जाता हैं , नट और नर्तकों को यश के लिये दान (धन) देते हैं सेवकों को उनके भरण-पोषण के लिये दान (वेतन) दिया जाता है और राजाओं को भय के कारण दान (कर) देते हैं।
यक्ष ने पूछा- जगत् किस वस्तु से ढका हुआ है? किसके कारण वह प्रकाशित नहीं होता ? मनुष्य मित्रों को किसलिये त्याग देता है ? और स्वर्ग में किस कारण नहीं जाता है?[10]
युधिष्ठिर बोले- जगत आज्ञान से ढका हुआ है, तमोगुण के कारण वह प्रकाशित नहीं होता, लोभ के कारण मनुष्य मित्रों को त्याग देता है और आसक्ति के कारण स्वर्ग में नहीं जाता।
यक्ष ने पूछा- पुरुष किस प्रकारमरा हुआ कहा जात है? राष्ट्र किस प्रकार मर जाता है , श्राद्ध किस प्रकार मृत हो जाता है ? और यज्ञ कैसे नष्ट हो जाता है?
युधिष्ठिर बोले- दरिद्र पुरुष मरा हुआ है यानि मरे हुए के समान है, बिना राजा का राज्य मर जाता है यानि नष्ट हो जाता है, श्रोत्रिय ब्राह्मण के बिना श्राद्ध मुत हो जाता है और बिना दक्षिणा का यज्ञ नष्ट हो जाता है।
यक्ष ने पूछा- दिशा क्या है? जल क्या है ? अन्न क्या है? विष क्या है? और श्राद्ध का समय क्या है? यह बताओ। इसके बाद जल पीओ और ले भी जाओ।
युधिष्ठिर बोले- सत्पुरुष दिशा हैं, आकाश जल है, पृथ्वी अन्न है, प्रार्थना (कामना) विष है और ब्राह्मण ही श्राद्ध का समय है अथवा यक्ष! इस विषय में तुम्हारी क्या मान्यता है?
यक्ष ने पूछा- तप का क्या लक्षण बताया गया है? दम किसे कहते हैं ? और लज्जा किसको कहा गया है?
युधिष्ठिर बोले- अपने धर्म में तत्पर रहना तप है, मन के दमन का हीनाम दम है, सर्दी-गर्मी आदि द्वन्द्वों का सहन करना क्षमा है तथा न करने योग्य काम से दूर रहना लज्जा है।
यक्ष ने पूछा- राजन! ज्ञान किसे कहते हैं? शम क्या कहलाता है? उत्तम दया किसका नाम है? और आर्जन (सरलता) किसे कहते हैं?
युधिष्ठिर बोले- परमात्मतत्त्व का यथार्थ बोध ही ज्ञान है, चिता की शान्ति ही शम है, सबके सुख ही इच्छा रखना ही उत्तम दया है और समचित्त होना ही आर्जन (सरलता) है।
यक्ष ने पूछा- मनुष्यों में दुर्जय शत्रु कौन है? अनन्त व्याधि क्या है ? साधु कौन माना जाता है? और असाधु किसे कहते हैं?
युधिष्ठिर बोले- क्रोध दुर्जय शत्रु है, लोभ अनन्त व्याधि है तथा जो समस्त प्राणियों का हित करने वाला हो, वही साधु है और निर्दयी पुरुष को ही असाधु माना गया है।
यक्ष ने पूछा- राजन्! मोह किसे कहते हैं? मान क्या कहलाता है? आलस्य किसे जानना चाहिये? और शोक किसे कहते हैं?
युधिष्ठिर बोले- धर्म मूढ़ता ही मोह है, आत्माभिमान ही मान है, धर्म का पालन न करना आलस्य है और अज्ञान को ही शोक कहते हैं।
यक्ष ने पूछा- ऋषियों ने स्थिरता किसे कहा है? धैर्य क्या कहलाता है? परम स्नान किसे कहते हैं? और दान किसका नाम है?
युधिष्ठिर बोले- अपने धर्म में स्थिर रहना ही स्थिरता है, इन्द्रियनिग्रह धैर्य है, मानसिक मलों का त्याग करना परम स्नान है और प्राणियों की रक्षा करना ही दान है।
यक्ष ने पूछा- किस पुरुष को पण्डित समझना चाहिये? नास्तिक कौन कहलाता हे? मूर्ख कौन है? काम क्या है? तथा मत्सर किसे कहते हैं?[11]
युधिष्ठिर बोले- धर्मज्ञ को पण्डित समझना चाहिये, मूर्ख नास्तिक कहलाता है और नास्तिक मूर्ख है तथा जो जन्म मरण रूप संसार का कारण है, वह वासना काम है और हृदय की जलन ही मत्सर है।
यक्ष ने पूछा- अहंकार किसे कहते हैं? दम्भ क्या कहलाता है? जिसे परम दैवउ कहते हैं, वह क्या है? और पैशुन्य किसका नाम है? युधिष्ठिर बोले- महान् अज्ञान अहंकार है, अपने को झूठ-मूठ बड़ा धर्मात्मा प्रसिद्ध करना दम्भ है, दान का फल दैव कहलाता है और दूसरो को दोष लगाना पैशुन्य (चुगली) है।
यक्ष ने पूछा- धर्म, अर्थ और काम- ये सब परस्पर विरोधी हैं। इन नित्य -विरुद्ध पुरुषों का एक स्थान पर कैसे संयोग हो सकता है ?
युधिष्ठिर बोले- जब धर्म और भार्या- ये दोनों परस्पर अविरोधी होकर मनुष्य के वश में हो जाते हैं, उस समय धर्म, अर्थ और काम- इन तीनों तीनों परस्पर विरोधियों का भी एक साथ रहना सहज हो जाता है।
यक्ष ने पूछा- भरतश्रेष्ठ! अक्षय नरक किस पुरुष को प्राप्त होता है , मेरे इस प्रश्न का शीघ्र ही उत्तर दो।
युधिष्ठिर बोले- जो पुरुष भिक्षा माँगने वाले किसी अकिंचन ब्राह्मण को स्वयं बुलोर फिर उसे ‘नाहींद्ध कर देता है, वह अक्षय नरक में जाता है। जो पुरुष वेद, धर्मयशास्त्र, ब्राह्मण, देवता और पितृधर्मों में मिथ्याबुद्धि रखता है, वह अक्षय नरक को प्राप्त होता है। धन पास रहते हुए भी जो लोभवश दान और भोग से रहित है तथा [12] पीछे से यह कह देता है कि मेरे पास कुछ नहीं है, वह अक्षय नरक में जाता है।
यक्ष ने पूछा- राजन! कुल, आचार, स्वाध्याय और शास्त्रश्रवण- इनमें से किसके द्वारा ब्राह्मणत्त्व सिद्ध होता है ? यह बात निश्चय करके बताओ। य युधिष्ठिर बोले- तात यक्ष! सुनो न तो कुल ब्राह्मणत्त्व में कारण है न स्वाध्याय और न शास्त्रश्रवण। ब्राह्मणत्व का हेतु आचार ही है, इसमें संशय नहीं है। इसलिये प्रयत्नपूर्वक सदाचार की ही रक्षा करनी चाहिये। ब्राह्मण को तो उस पर विशेषरूप से दृष्टि रखनी जरूरी है; क्योंकि जिसका सदाचार अक्षुण्ण है, उसका ब्राह्मणत्व भी बना हुआ है और जिसका आचार नष्ट हो गया, वह तो स्वयं भी नष्ट हो गया। पढ़ने वाले, पढ़ाने वाले तथा शास्त्र का विचार करने वाले- ये सब तो व्यसनी और मूर्ख ही हैं। पण्डित तो वही है, जो अपने (शास्त्रोक्त) कर्तवय का पालन करता है। चारों वेद पढ़ा होने पर भी जो दुराचारी है, वह अधमता में शुद्र से भी बढ़कर है। जो (नित्य) अग्निहोत्र में तत्पर और जितेन्द्रिय है, वही ‘ब्राह्मण’ कहा जाता है।
यक्ष ने पूछा- बताओ; मधुर वचन बोलने वाले को क्या मिलता है? सोत्र विचारकर काम करने वाला क्या पा लेता है? जो बहुत से मित्र बना लेता है, उसे क्या लाभ होता है? और जो धर्मनिष्ठ है, उसे क्या मिलता है?
युधिष्ठिर बोले- मधुर वचन बोलने वाला सबको प्रिय होता है, सोच विचार कर काम करने वाले को अणिकतर सफलता मिलती है एवं जो बहुत से मित्र बना लेता है, वह सुख से रहता है और जो धर्मनिष्ठ है, वह सद्गति पाता है।[13]
यक्ष ने पूछा- सुखी कौन है ? आश्चर्य क्या है? मार्ग क्या है तथा वार्ता क्या है? मरम इन चार प्रश्नों का उत्तर देकर जल पीओ।
युधिष्ठिर बोले- जलचर यक्ष! जिस पुरुष पर ऋण नहीं बचे हुए हैं और जो परदेश में नहीं है, वह भले ही पाँचवें या छठे दिन अपने घर के भीतर साग-भात ही पकाकर खाता हो, तो भी वही सुखी है। संसार से रोज-रोज प्रणी यमलोक में जा रहे हैं; किंतु जो बचे हुए हैं, वे सर्वदा जीते रहने की इच्छा करते हैं; इससे बढ़कर आश्चर्य और क्या होगा? तर्क कहीं सिथत नहीं है, श्रुतियाँ भी भिन्न-भिन्न हैं, एक ही ऋषि नहीं है कि जिसका मत प्रमाण माना जाय तथा धर्म का तत्त्व गुहा में निहित है अर्थात अत्यन्त गूढ़ है; अतः जिससे महापुरुष जाते रहे हें, वही मार्ग है।इस महामोहरूपी कड़ाहे में भगवान काल समसत प्राणियों को मास और ऋतुरूप करछी से उलट-पलटकर सूर्यरूप अग्नि और रात-दिनरूप ईंधन के द्वारा राँध रहे हैं, यही वार्ता है।
यक्ष ने पूछा- परंतप! तुमने मेरे सब प्रश्नों के उत्तर ठीक-ठीक दे दिये, अब तुम पुरुष की भी व्याख्या कर दो और यह बाताओ कि सबसे बड़ा धनी कौन है ?
युधिष्ठिर बोले- जिस व्यक्ति क पुण्य कर्मों की कीर्ति का शब्द जब तक स्वर्ग और भूमि को स्पर्श करता है, तब तक वह पुरुष कहलाता है। जो मनुष्य प्रिय-अप्रिय, सुख-दुःख और भूत-भविष्यत इन द्वन्द्वों में सम है, वही सबसे बड़ा धनी है। जो भूत, वर्तमान और भविष्य सभी विषयों की ओर से निःस्पृह, शान्तचित्त, सुप्रसन्न और सदा योगयुक्त है, वही सब धनियों का स्वामी है।[14]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत वन पर्व अध्याय 313 श्लोक 35-51
- ↑ उदित
- ↑ उदित करता
- ↑ दूसरे साथी से युक्त
- ↑ यज्ञ सम्बन्धी
- ↑ बोने
- ↑ बोने
- ↑ असंख्य
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 313 श्लोक 52-66
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 313 श्लोक 67-81
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 313 श्लोक 82-97
- ↑ माँगने वाले ब्राह्मणादि को एवं न्याययुक्त भोग केलिये स्त्री-पुत्रादि को
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 313 श्लोक 98-113
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 313 श्लोक 114-128
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| पांडवों की उत्तराखण्ड यात्रा
| भीमसेन का उत्साह तथा पांडवों का हिमालय को प्रस्थान
| युधिष्ठिर द्वारा अर्जुन की चिन्ता तथा उनके गुणों का वर्णन
| पांडवों द्वारा गंगा की वन्दना
| लोमश द्वारा पांडवों से नरकासुर वघ की कथा
| लोमश द्वारा पांडवों से वसुधा उद्धार की कथा
| गन्दमाधन यात्रा में पांडवों का आँधी-पानी से सामना
| द्रौपदी की मूर्छा तथा भीम के स्मरण से घटोत्कच का आगमन
| घटोत्कच की सहायता से पांडवों का गंधमादन पर्वत तथा बदरिकाश्रम में प्रवेश
| बदरीवृक्ष, नरनारायणाश्रम तथा गंगा का वर्णन
| भीमसेन का सौगन्धिक कमल लाने के लिए जाना
| भीमसेन की कदलीवन में हनुमान से भेंट
| भीमसेन और हनुमान का संवाद
| हनुमान का भीमसेन से रामचरित्र का संक्षिप्त वर्णन
| हनुमान द्वारा चारों युगों के धर्मों का वर्णन
| हनुमान द्वारा भीमसेन को विशाल रूप का प्रदर्शन
| हनुमान द्वारा चारों वर्णों के धर्मों का प्रतिपादन
| भीमसेन को आश्वासन देकर हनुमान का अन्तर्धान होना
| भीमसेन का सौगन्धिक वन में पहुँचना
| क्रोधवश राक्षसों का भीमसेन से सामना
| भीमसेन द्वारा क्रोधवश राक्षसों की पराजय
| युधिष्ठिर आदि का सौगन्धिक वन में भीमसेन के पास पहुँचना
| पांडवों का पुन: नरनारायणाश्रम में लौटना
जटासुरवध पर्व
जटासुर द्वारा द्रौपदी, युधिष्ठिर, नकुल एवं सहदेव का हरण
| भीमसेन द्वारा जटासुर का वध
यक्षयुद्ध पर्व
पांडवों का नरनारायणाश्रम से वृषपर्वा के जाना
| पांडवों का राजर्षि आर्ष्टिषेण के आश्रम पर जाना
| आर्ष्टिषेण का युधिष्ठिर के प्रति उपदेश
| पांडवों का आर्ष्टिषेण के आश्रम पर निवास
| भीमसेन द्वारा मणिमान का वध
| कुबेर का गंधमादन पर्वत पर आगमन
| कुबेर की युधिष्ठिर से भेंट
| कुबेर का युधिष्ठिर आदि को उपदेश तथा सान्त्वना
| धौम्य द्वारा मेरु शिखरों पर स्थित ब्रह्मा-विष्णु आदि स्थानों का वर्णन
| धौम्य का युधिष्ठिर से सूर्य-चन्द्रमा की गति एवं प्रभाव का वर्णन
| पांडवों की अर्जुन के लिए उत्कंठा
निवातकवच युद्ध पर्व
अर्जुन का स्वर्गलोक से आगमन तथा भाईयों से मिलन
| इन्द्र का आगमन तथा युधिष्ठिर को सान्त्वना देना
| अर्जुन का अपनी तपस्या यात्रा के वृत्तान्त का वर्णन
| अर्जुन द्वारा शिव से संग्राम एवं पाशुपतास्त्र प्राप्ति की कथा
| अर्जुन का युधिष्ठिर से स्वर्गलोक में प्राप्त अपनी अस्त्रविद्या का कथन
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्ध की तैयारी का कथन
| अर्जुन का पाताल में प्रवेश
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्धारम्भ
| अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध
| अर्जुन के साथ निवातकवचों के मायामय युद्ध का वर्णन
| अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध
| अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध
| इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन
| युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा
| नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत
| पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान
| पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास
| पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश
| द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना
| भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना
| भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप
| युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज
| युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना
| सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश
| पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन
| तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य
| ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा
| तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद
| वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा
| चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन
| प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप
| बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना
| मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन
| युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन
| कल्कि अवतार का वर्णन
| भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश
| इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह
| शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता
| इन्द्र और बक मुनि का संवाद
| सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा
| ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान
| सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र
| इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा
| नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन
| इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा
| मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन
| मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन
| उत्तंक मुनि की कथा
| उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह
| ब्रह्मा की उत्पत्ति
| विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध
| धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति
| कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध
| कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति
| पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य
| कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान
| कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना
| धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा
| धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन
| धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश
| धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना
| धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार
| अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना
| अंगिरा की संतति का वर्णन
| बृहस्पति की संतति का वर्णन
| पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति
| पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन
| अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन
| सह अग्नि का जल में प्रवेश
| अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य
| इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार
| इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना
| अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन
| स्कन्द की उत्पत्ति
| स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण
| विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना
| अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना
| इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान
| स्कन्द के पार्षदों का वर्णन
| स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप
| स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक
| स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह
| कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति
| मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन
| स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार
| रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा
| देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध
| कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा
| द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा
| सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार
| शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना
| दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना
| दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति
| द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद
| कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय
| गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण
| कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश
| पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध
| पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय
| चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा
| दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन
| दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना
| दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश
| कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय
| दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना
| दैत्यों का दुर्योधन को समझाना
| दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान
| भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव
| कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान
| कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय
| कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार
| दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी
| दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति
| कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा
| युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन
| व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन
| दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा
| महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना
| देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार
| दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना
| द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना
| कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना
| जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना
| कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना
| द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर
| जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद
| जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण
| पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना
| द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन
| पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार
| युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना
| भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना
| शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना
| राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन
| रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति
| कुबेर का रावण को शाप देना
| देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना
| राम के राज्याभिषेक की तैयारी
| राम का वन को प्रस्थान
| भरत की चित्रकूट यात्रा
| राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप
| राम द्वारा मारीच का वध
| रावण द्वारा सीता का अपहरण
| रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार
| राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध
| राम और सुग्रीव की मित्रता
| राम द्वारा बाली का वध
| अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन
| रावण और सीता का संवाद
| राम का सुग्रीव पर कोप
| सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना
| हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना
| वानर सेना का संगठन
| नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण
| विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश
| अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना
| राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम
| राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध
| प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध
| रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना
| कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध
| इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा
| राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना
| लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध
| रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना
| राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध
| राम का सीता के प्रति संदेह
| देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन
| राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक
| मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति
| सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण
| सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय
| सावित्री और सत्यवान का विवाह
| सावित्री की व्रतचर्या
| सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना
| सावित्री और यम का संवाद
| यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना
| सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप
| राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता
| सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन
| द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना
| कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना
| सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश
| कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय
| कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन
| कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना
| कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या
| कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश
| कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन
| कुन्ती-सूर्य संवाद
| सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
| कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप
| अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति
| कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन
| कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति
| इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग
| युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश
| नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना
| यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद
| यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
| युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना
| यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना
| युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना
| भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श
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