कुरुक्षेत्र के तीर्थों की महत्ता

महाभारत वनपर्व के 'तीर्थयात्रापर्व' के अंतर्गत अध्याय 83 में कुरुक्षेत्र की सीमा में स्थित अनेक तीर्थों की महत्ता के वर्णन के बारे में बताया गया है, जिसका उल्लेख निम्न प्रकार है[1]-

पुलस्त्यजी कहते हैं- राजेन्द्र! तदनन्तर ऋषियों द्वारा प्रशंसित कूरूक्षेत्र की यात्रा करे, जिसके दर्शन मात्र से सब जीव पापों से मुक्त हो जाते हैं। ‘मैं कुरुक्षेत्र में जाऊंगा, कुरुक्षेत्र में निवास करूंगा। ‘इस प्रकार जो सदा कहा करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है। वायु द्वारा उड़ाकर लायी हुई कुरुक्षेत्र की धूल भी शरीर पर पड़ जाय, तो वह पापी मनुष्य को भी परमगति की प्राप्ति करा देती है। जो सरस्वती के दक्षिण और दृषद्वजर कि उत्तर कुरुक्षेत्र में वास करते हैं, वे मानों स्वर्गलोक में ही रहते है।

नारदजी कहते हैं- युधिष्ठिर! वहाँ सरस्वती के तट पर धीर पुरुष एक मास तक निवास करे; क्योंकि महाराज! ब्रह्मा आदि देवता, ऋषि, सिद्ध, चारण, गन्धर्व, अप्सरा, यक्ष और नाग भी उस परम पुण्यमय ब्रह्मक्षेत्र को जाते हैं। युधिष्ठिर! जो मन से भी कुरुक्षेत्र में जाने की इच्छा रखता है, उसके सब पाप नष्ट हो जाते हैं और वह ब्रह्मलोक को जाता है।

कुरूश्रेष्ठ! श्रद्धा से युक्त होकर कुरुक्षेत्र की यात्रा करने पर मनुष्य राजसूय और अश्वमेध यज्ञों का फल पाता है। तदनन्तर! वहाँ मचक्रुक नाम वाले द्वारपाल महाबली यक्ष को नमस्कार करने मात्र से सहस्र गो दान का फल मिल जाता है। धर्मज्ञ, राजेन्द्र! तत्पश्चात् भगवान विष्णु के परम उत्तम सतत नामक तीर्थ स्थान में जाय, जहाँ श्रीहरि सदा निवास करते हैं। वहाँ स्नान और त्रिलोकभावन भगवान श्रीहरि को नमस्कार करने से मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और भगवान विष्णु के लोक में जाता है। इसके बाद त्रिभुवन-विख्यात पारिप्लव नामक तीर्थ में जाय। भारत! वहाँ स्नान करने से अग्निष्टोम और अतिरात्र यज्ञों का फल प्राप्त होता है। महाराज! वहाँ से पृथ्वी तीर्थ जाकर स्नान करने से सहस्र गो दान का फल प्राप्त होता है। राजन! वहाँ से तीर्थसेवी मनुष्य शलूकिनी में जाकर दशाश्वमेध तीर्थ में स्नान करने से उसी फल का भागी होता है। सर्पदेवी में जाकर उत्तम नाग तीर्थ का सेवन करने से मनुष्य अग्निष्टोम क फल पाता और नागलोक में जाता है।

धर्मज्ञ! वहाँ से तरन्तुक नामक द्वारपाल के पास जाय। वहाँ एक रात निवास करने से सहस्र गो दान का फल होता है। वहाँ से नियम पूर्वक नियमित भोजन करते हुए पंचनदतीर्थ में जाय और वहाँ कोटितीर्थ में स्नान करे। इससे अश्वमेध यज्ञ का फल प्रापत होता है। अश्विनीतीर्थ में जाकर स्नान करने से मनुष्य रूपवान होता है। धर्मज्ञ! वहाँ से परम उत्तम वाराह तीर्थ को जाय, जहाँ भगवान विष्णु पहले वाराहरूप से स्थित हुए थे। नरश्रेष्ठ! वहाँ स्नान करने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल मिलता है। राजेन्द्र! तदनन्तर जयन्ती में सोमतीर्थ के निकट जाय, वहाँ स्नान करने से मनुष्य राजसूय यज्ञ का फल पाता है। एकहंसतीर्थ स्नान करने से मनुष्य सहस्र गो दान का फल पाता है।

नरेश्वर! कृतशौचतीर्थ में जाकर तीर्थ सेवी मनुष्य पुण्डरीकयाग का फल पाता है और शुद्ध हो जाता है। तदनन्तर महात्मा स्थाणु के मुंजवट नामक स्थान में जाय। वहाँ एक रात रहने से मानव गणपतिपद प्राप्त करता है। महाराज! वहीं लोकविख्यात यक्षिणी तीर्थ है। राजेन्द्र! उसमें जोने से और स्नान करने से सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति होती है।

भरतश्रेष्ठ! वह कुरुक्षेत्र का विख्यात द्वार है। उनकी परिक्रमा करके तीर्थयात्री मनुष्य एकाग्रचित्त हो पुष्करतीर्थ के तुल्य उस तीर्थ में स्नान करके देवताओं ओर पितरों की पूजा करे। राजन! इससे तीर्थ यात्री कृतकृत्य होता और अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करता है। उत्तम श्रेणी के महात्मा जमग्नि नन्दन परशुराम ने उस तीर्थ का निर्माण किया है। राजेन्द्र! वहाँ उदीप्त तेजस्वी वीरवर परशुराम ने सम्पूर्ण क्षत्रिय कुल का वेग पूर्वक संहार करके पांच कुण्ड स्थापित किये थे। पुरुषसिंह! उन कुण्डों को उन्होंने रक्त से भर दिया था, ऐसा सुना जाता है। उसी रक्त से परशुराम जी ने अपने पितरों और प्रपितामहों का तर्पण किया। राजन! तब वे पितर अत्यन्त प्रसन्न हो परशुराम जी से इस प्रकार बोले- पितरों ने कहो-महाभाग राम! परशुराम! भृगुनन्दन! विभो! हम तुम्हारी पितृभक्ति से और तुम्हारे पराक्रम से बहुत खुश हुए हैं। महाद्युते! तुम्हारा कल्याण हो। तुम कोई वर मांगो। बोलो, क्या चाहते हो ?

राजेन्द्र! उनके ऐसा कहने पर योद्धाओं में श्रेष्ठ परशुराम ने हाथ जोड़कर आकाश में खड़े हुए उन पितरों से कहा-‘पितृगण! यदि आप लोग मुझ पर प्रसन्न हैं और यदि मैं आपका अनुग्रहपात्र होऊं तो मैं आपका कृपा-प्रसाद चाहता हूँ। पुनः मेरी तपस्या पूरी हो जाय। ‘मैंने जो रोष से वशीभूत होकर सारे क्षत्रिय कुल का संहार कर दिया है, आप के प्रभाव से मैं उस पाप से मुक्त हो जाऊं तथा मेरे ये कुण्ड भूमण्डल में विख्यात तीर्थस्वरूप हो जायं। परशुराम जी का यह शुभ वचन सुन कर उनके पितर बड़े प्रसन्न हुए और हर्ष में भर कर बोले-‘वत्स! तुम्हारी तपस्या इस विशेष पितृभक्ति से पुनः बढ जाय। ‘तुमने जो रोष में भर कर क्षत्रिय कुल का संहार किया है, उस पाप से तुम मुक्त हो गये। वे क्षत्रिय अपने ही कर्म से भरे हैं।

‘तुम्हारे बनाये हुए ये कुण्ड तीर्थस्वरूप होंगे, इसमें संशय नहीं है। जो इन कुण्डों में नहाकर पितरों का तर्पण करेंगेा, उन्हें तृप्त हुए पितर ऐसा वर देंगे, जो इस भूतल पर दुलर्भ है। वह उसके लिये मनोवांछित कामना ओर सनातन स्वर्गलोक सुलभ कर देंगे’। राजन्! इस प्रकार वर देकर परशुराम जी के पितर प्रसन्नतापूर्वक उनसे अनुमति ले वहीं अन्तर्धान हो गये। इस प्रकार भृगुनन्दन महात्मा परशुराम के वे कुण्ड बड़े पुण्यमय माने गये हैं। राजन! जो उत्तम व्रत एवं ब्रहाचर्य का पलान करते हुए परशुराम जी के उन कुण्डों के जल में स्नान करके उनकी पूजा करता हैं, उसे प्रचुर सुवर्णराशि की प्राप्ति होती है। कुरुश्रेष्ठ! तदनन्तर तीर्थसेवी मनुष्य वंशभूलकतीर्थ में जाय। राजन! वंशमूलक के स्नान करके मनुष्य अपने कुल का उद्धार कर देता है। भरतश्रेष्ठ! कायशोधनतीर्थ में जाकर स्नान करने से शरीर की शुद्धि होती है, इसमें संशय नहीं। शरीर शुद्ध होने पर मनुष्य परम उत्तम कल्याणमय लोकों में जाता है।

धर्मज्ञ! तदनन्तर त्रिभुवनविख्यात लोकोद्धारतीर्थ में जाय, जो तीनों लोकों में पूजित है। वहाँ पूर्वकाल में सर्वशक्तिमान भगवान विष्णु ने कितने ही लोकों का उद्धार किया था। राजन लोकोद्धार में जाकर उस उत्तम तीर्थ में स्नान करने से मनुष्य आत्मीय जनों का उद्धार करता है।[2]

कपिला-तीर्थ मे जाकर ब्रह्मचर्य के पालन पूर्वक एकाग्रचित्त हो वहाँ स्नान और देवता-पितरों का पूजन करके मानव सहस्र कपिला गौओं के दान का फल प्राप्त करता है। मन को वश में कर के सूर्यतीर्थ में जाकर स्नान और देवता पितरों का अर्चन करके उपवास करने वाला मनुष्य अग्ष्टिोमयज्ञ का फल पाता और सूर्यलोक में जाता है। तदनन्तर तीर्थसेवी क्रमशः गोभवन तीर्थ में जाकर वहाँ स्नान करे। इससे उसको सहस्र गो दान का फल मिलता है। कुरुश्रेष्ठ! तीर्थयात्री पुरुष शंखिनीतीर्थ में जाकर वहाँ देवीतीर्थ में स्नान करने से उत्तम रूप प्राप्त करता है। राजेन्द्र! तदनन्तर अरन्तुक नामक द्वारपाल के पास जाय। महात्मा यक्षराज कुबेर का वह तीर्थ सरस्वती नदी में है। राजन! वहाँ स्नान करने से मनुष्य को अग्निष्टोमयज्ञ का फल प्राप्त होता है।

राजेन्द्र! तदनन्तर श्रेष्ठ मानव ब्रह्मवर्ततीर्थ को जाय। ब्रह्मावर्त में स्नान करके मनुष्य ब्रह्मलोक का प्राप्त कर लेता है। राजेन्द्र! वहाँ से परम उत्तम सुतीर्थ में जाय। वहाँ देवता लोग पितरों के साथ सदा विद्यमान रहते हैं। वहाँ पितरों और देवताओं के पूजन में तत्पर हो स्नान करे। इससे तीर्थयात्री अश्वमेधयज्ञ का फल पाता और पितृलोक में जाता है। धर्मज्ञ! वहाँ अम्बुमती मे, जो परम उत्तम तीर्थ है, जाय। भरतश्रेष्ठ! काशीश्वर के तीर्थो में स्नान करके मनुष्य सब रोगों से मुक्त हो जाता और ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होता है। भरतवंशी महाराज! वहीं मातृतीर्थ है, जिसमें स्नान करने वाले पुरुष की संतति बढ़ती है और वह कभी क्षीण न होने वाली सम्पति का उपभोग करता है। तदनन्तर नियम से रह कर नियमित भोजन करते हुए सीतवन में जाय। महाराज! वहाँ महान तीर्थ है, जो अन्यत्र दुर्लभ है। नरेश्वर! यह तीर्थ एक बार जाने या दर्शन करने से ही पवित्र कर देता है। भारत! उसमें केशों को धो लेने मात्र ही मनुष्य पवित्र हो जाता है। महाराज! वहाँ श्वाविलोमापह नामक तीर्थ है।

नरव्याघ्र! उसमें तीर्थपरायण हुए विद्वान ब्राह्मण स्नान करके बड़े प्रसन्न होते हैं। भरतसत्तम! श्वाविलोमापनयनतीर्थ में प्रणायाम[3]करने से श्रेष्ठ द्विज अपने रोएं झाड़ देते हैं तथा राजेन्द्र! वे शुद्धचित्त होकर परमगति को प्राप्त होते हैं। भूपाल! वहीं दशाश्वमेधिक तीर्थ भी है। पुरुषसिंह! उसमें स्नान करके मनुष्य उत्तम गति प्राप्त करता है। राजेन्द्र! तदनन्तर लोकविख्यात मानुषतीर्थ में जाय राजन! वहाँ व्याघ्र के बाणों से पीडित हुए कृष्णमृग उस सरोवर में गोते लगाकर मनुष्य शरीर पा गये थे, इसीलिये उसका नाम मानुषतीर्थ है। ब्रह्मचर्य पालन पर्वूक एकाग्रचित्त हो उस तीर्थ में स्नान करने वाला मानव सब पापों से मुक्त हो स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। राजन! मानुषतीर्थ से पूर्व एक कोस की दूरी पर आपगा नाम से विख्यात एक नदी है, जो सिद्धपुरुषों से सेवित है।

जो मनुष्य वहाँ देवताओं को पितरों के उद्देश्य से भोजन कराते समय श्यामाक (सांवा) नामक अन्न देता है, उसे महान धर्मफल की प्राप्ति होती है। वहाँ एक ब्राह्मण को भोजन कराने पर एक करोड़ ब्राह्मणों को भोजन कराने का फल मिलता है। वहाँ स्नान करके देवताओं और पितरों के पूजन पूर्वक एक रात निवास करने से अग्निष्टोमयज्ञ का फल मिलता है। वहाँ सप्तर्षिकुण्ड है। नरश्रेष्ठ महाराज! उन कुण्डों में तथा महात्मा कपित के केदारतीर्थ में स्नान करने से पुरुष को महान पुण्यकी प्राप्ति होती है।[4]

वह मनुष्य ब्रह्मजी से निकट जाकर उनका दर्शन करने से शुद्ध, पवित्रचित्त एवं सब पापों से रहित होकर ब्रह्मलोक में जाता है। कपित का केदार भी अत्यन्त दुर्लभ है। वहाँ जाने से तपस्या द्वारा सब पाप नष्ट हो जाने के कारण मनुष्य को अन्तर्धानविद्या की प्राप्ति हो जाती है। राजेन्द्र! तदनन्तर लोक विख्यात सरकतीर्थ में जाय। वहाँ कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को भगवान शंकर का दर्शन करने से मनुष्य सब कामनाओं को प्राप्त कर लेता और स्वर्गलोक में जाता है। कुरुनन्दन! सरक में तीन करोड़ तीर्थ हैं। राजन वे सब तीर्थ रुद्रकोटि में, कूप में और कुण्डों में हैं। भरतशिरोमणे! वहीं इलास्पदतीर्थ है जिस में स्नान और देवता-पितरो का पूजन करने से मनुष्य कभी दुर्गति में नहीं पड़ता और वाजपेययज्ञ का फल पाता है।

महीपते! वहाँ किदान ओर किंजप्य नामक तीर्थ भी है। भारत! उनमें स्नान करने से मनुष्य दान और जप को असी फल पाता है। कलशीतार्थ में जल का आचमन करके ऋद्धालु और जितेन्द्रिय मानव अग्निष्टोमयज्ञ का फल पाता है। कुरुकुलश्रेष्ठ! सरतीर्थ पूर्व में महात्मा नारद का तीर्थ है, जो अम्बाजन्म के नाम से विख्यात है। भारत! उस तीर्थ में स्नान करके मनुष्य प्राण त्यागने के पश्चात् नारदजी की आज्ञा के अनुसार परम उत्तम लोकों में जाता है। शुंकापक्ष की दशमी तिथि को पुण्डरीक तीर्थ में प्रवेश करे। राजन वहाँ स्नान करने से मनुष्य को पुण्डरीकयाग का फल प्राप्त होता है।। तदनन्तर तीनों लोकों मे विख्यात त्रिविष्टपतीर्थ में जाय।

वहाँ वैतरणी नामक पुण्यमयी पापनाशिनी नदी है। उसमें स्नान करके शूपाणि भगवान शंकर की पूजा करने से मनुष्य सब पापों से शुद्धचित्त हो परम गति को प्राप्त होता है। राजेन्द्र! वहाँ से फलकीवन नामक उत्तम तीर्थ यात्रा करे। राजन! देवता लोग फलकीवन में सदा निवास करते हैं और अनेक सहस्र वर्षो तक वहाँ भारी तपस्या में लगे रहते हैं। भारत! दृषद्वती में स्नान करके देवता-पितरों का तर्पण करते हैं।

मनुष्य अग्निष्टोम और अतिरात्र यज्ञों का फल पाता है। भरतसत्तम राजेन्द्र! सर्वदेवतीर्थ में स्नान करने से मानव सहस्र गो दान का फल पाता है। भारत! पणिखाततीर्थ में स्नान करके देवता-पितरों का तर्पण करने से मनुष्य अग्निष्टोम और अतिरात्रयज्ञों से मिलने वाले फल को प्राप्त करता है; साथ ही वह राजसूय यज्ञ का फल पाता एवं ऋषि लोक में जाता है। राजेन्द्र! तत्पश्चात् परम उत्तम मिश्रकतीर्थ में जाय। महाराज! वहाँ महात्मा व्यास ने द्विजों के लिये सभी तीर्थो का सम्मिश्रण किया है; यह बात मेरे सुनने में आयी है। जो मनुष्य मिश्रकतीर्थ में स्नान करता है, उसका वह स्नान सभी तीर्थो में स्नान करने के समान है। तत्पश्चात् नियम पूर्वक रहते हुए मिताहारी होकर व्यासवन की यात्रा करे। वहाँ मनोजवतीर्थ में स्नान करके मनुष्य सहस्र गो दान का फल पाता है।

मधुवटी में जाकर देवीतीर्थ में स्नान करके पवित्र हुआ मानव वहाँ देवता-पितरों की पूजा करके देवी की आज्ञा के अनुसार सहस्र गो दान का फल पाता है। भारत! कौशिकी की दृषद्वेती के संगम में जो नियमित भोजन करते हुए स्नान करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है। तत्पश्चात् व्यासस्थली में जाय, जहाँ परम बुद्धिमान व्यास ने पुत्र शोक से संतप्त हो शरीर त्याग देने का विचार किया था। राजेन्द्र! उस समय उन्हें देवताओं ने पुनः उठाया था, उस स्थल में जाने से सहस्र गो दान का फल मिलता है।[5]

किंदत्त नामक कूप के समीप जाकर एक प्रस्थ अर्थात सोलह मुट्ठी तिल प्रदान करे। कुरुश्रेष्ठ! ऐसा करने से मनुष्य तीनों ऋणों से मुक्त हो परम सिद्धि को प्राप्त होता है। वेदीतीर्थ में स्नान करने से मनुष्य सहस्र गो दान फल पाता है। अहन और सुदिन- ये दो लोकविख्यात तीर्थ हैं। नरश्रेष्ठ! उन दोनों में स्नान करके मनुष्य सूर्यलोक में जाता है। नृपश्रेष्ठ! तदनन्तर तीनों लोकों में विख्यात मृगधूमतीर्थ में जाय और वहाँ गंगाजी के स्नान करे। वहाँ महादेव जी की पूजा करके मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है। देवीतीर्थ में स्नान करने से मनुष्य को सहस्र गो दान का फल मिलता है। तत्पश्चात् त्रिलोकविख्यात वामनतीर्थ में जाय। वहाँ विष्णुपद में स्नान और वामनदेवता का पूजन करने से मनुष्य सब पापों से शुद्ध हो भगवान विष्णु के लोक में जाता है। कुलम्पुनतीर्थ में स्नान करके मानव अपने कुल को पवित्र कर देता है। नरव्याघ्र तदनन्तर पवनह्रद में स्नान करे। वह मरूद्गणों का उत्तम तीर्थ है।

वह स्नान करने से मानव विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। नरश्रेष्ठ! शालिहोत्र के शालिसूर्यनामक तीर्थ में विधिपूर्वक स्नान करके मनुष्य सहस्र गो दान का फल पाता है। भरतसत्तम नरश्रेष्ठ! श्रीकुंजनामक सरस्वती तीर्थ में स्नान करने से मानव अग्निष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त कर लेता है। कुरुश्रेष्ठ! तत्पश्चात् नैमिषकुंज की यात्रा करे। राजेन्द्र! कहते हैं, नैमिषारण्य के प्रवासी तपस्वी ऋषि पहले कभी तीर्थयात्रा के प्रसंग से कुरुक्षेत्र में गये। भरतश्रेष्ठ! उसी समय उन्होंने सरस्वतीकुंज का निर्माण किया था।[6]। वह ऋषियों का स्थान है, जो उनके लिये महान संतोषजनक है। उस कुंज में स्नान करके मनुष्य अग्निष्टोम यज्ञ का फल पाता है। धर्मज्ञ! तदनन्तर परम उत्तम कन्यातीर्थ की यात्रा करे। कन्यातीर्थ में स्नान करने से मानव सहस्र गो दान का फल पाता है।

राजेन्द्र! तदनन्तर परम उत्तम ब्रह्मतीर्थ में जाय। वहाँ स्नान करने से ब्राह्मणतर वर्ण मनुष्य भी ब्राह्मणत्वलाभ करता है। ब्राह्मण होने पर शुद्धचित्त हो वह परम गति को प्राप्त कर लेता है। नरश्रेष्ठ! तत्पश्चात् उत्तम सोमतीर्थ की यात्रा करे। राजन्! वहाँ स्नान करने से मानव सोमलोक को जाता है। नरेश्वर! इसके बाद सप्तसार स्वत नामक तीर्थ की यात्र करे, जहाँ लोकविख्यात महर्षि मंकणक को सिद्धि प्राप्त हुई थी। राजन हमारे सुनने में आया है कि वह पहल कभी महर्षि मंगणक के हाथ में कुश का अग्रभाग गड़ गया, जिससे उनके हाथ में घाव हो गया।

महाराज! उस समय उस हाथ से शाक का रस चूने लगा। शाक का रस चूता देख महर्षि हर्षवेश से मत वाले हो नृत्य करने लगे। वीर! उनके नृत्य करते समय उनके तेज से मोहित हो सारा चराचर जगत् नृत्य करने लगा। राजन! नरेश्वर! उस समय ब्रह्मा आदि देवता तथा तपोधन महर्षिगण-सब ने मंगणक मुनि के विषय में महादेव जी से निवेदन किया- ‘देव! आप कोई ऐसा उपाय करें, जिससे इनका वह नृत्य बन्द हो जाय।’ महादेव जी देवताओं के हित की इच्छा से हर्षाविश से नाचते हुए मुनि के पास गये और इस प्रकार बोले-‘धर्मज्ञ महर्षे! मुनिप्रवर! आप किसलिये नृत्य कर रहे हैं ? आज आप के इस हर्षतिरेक का क्या कारण है ?[7]

ऋषि ने कहा- द्विजश्रेष्ठ! ब्रह्मन! मैं धर्म के मार्ग पर स्थिर रहने वाला तपस्वी हूँ। मेरे हाथ से यह शाक का रस चू रहा है। क्या आप इसे नहीं देखते ? इसी को देखकर मैं महान हर्ष से नाच रहा हूँ। महर्षि राग से मोहित हो रहे थे। महादेव जी ने उनकी बात सुनते हुए हंसते हुए कहा- ‘विप्रवर! मुझे तो यह देखकर कोई आश्चर्य नहीं हो रहा है। मेरी ओर देखिये। ’ नरश्रेष्ठ! निष्पाप राजेन्द्र! ऐसा कहकर परम बुद्धिमान महादेवजी ने अगुंली के अग्रभाग से अपने अंगूठे को ठोंका। राजन! उनके चोट करने पर उस अंगूठे से बर्फ के समान सफेद भस्म गिरने लगा। महाराज! यह अद्भुत बात कहकर मुनि लज्जित हो महादेवजी के चरणों मे पड़ गये और उन्होंने दूसरे किसी देवता को महादेव जी से बढकर नहीं मानने का निश्चर्य किया।

वे बोले- ‘भगवन! देवता और असुरों सहित सम्पूर्ण जगत के आश्रय आप ही हैं। त्रिशूलधारी महेश्वर! आपने ही चराचर जीवों सहित सम्पूर्ण त्रिलोक को उत्पन्न किया है। फिर प्रलयकाल आने पर आप ही सब जीवों को अपना व्रास बना लेते हैं। देवता भी आपके स्वरूप को नहीं जान सकते, फिर मेरी तो बात ही क्या है ? ‘अनघ! ब्रह्मा आदि सब देवता आप ही में दिखायी देते हैं। इस जगत के करने और कराने वाले सब कुछ आप ही हैं।। ‘आप के प्रसाद से सब देवता यहाँ निर्भय और प्रसन्न रहते हैं।’ इस प्रकार स्तुति करके ऋषि ने फिर महादेव जी से कहा- ‘महादेव! आपकी कृपा से मेरी तपस्या नष्ट न हो।’

तब महादेव जी ने प्रसन्नचित्त हो महर्षि से कहा- ‘ब्रहान! मेरे प्रसाद से आपकी तपस्या हजार गुनी बढ़े। महामुने! मैं तुम्हारे साथ इस आश्रय में रहूंगा। ‘जो सप्तसार स्वत तीर्थ में स्नान कर के मेरी पूजा करेंगे, उनके लिये इहलोक और परलोक में कोई भी वस्तु दुलर्भ नहीं होगी। ‘इतना ही नहीं, वे सरस्वती के लोक में जायंगे, इस में संशय नहीं है।’ ऐसा कहकर महादेवजी वहीं अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर तीनों लोकों के विख्यात औशनस तीर्थ की यात्रा करे, जहाँ ब्रह्मा आदि देवता तथा तपस्वी ऋषि रहते हैं। भारत! शुक्राचार्य जी का प्रिय करने के लिये भगवान कार्तिकेय भी वहाँ सदा तीनों संध्याओं के समय उपस्थित रहते हैं। कपालमोचतीर्थ सब पापों से छुड़ने वाला है! नरश्रेष्ठ! वहाँ स्नान करके मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है।

नरश्रेष्ठ! वहाँ से अग्गितीर्थ को जाय। उस में स्नान करने से मनुष्य अग्निलोक में जाता और अपने कुल का उद्धार कर देता हैं। भरतसत्तम! वहीं विश्वमित्रतीर्थ है। नरश्रेष्ठ! वहाँ स्नान करने से ब्राह्मणत्व की प्राप्ति होती है। नरश्रेष्ठ! ब्रह्मयोनि तीर्थ में जाकर पवित्र एवं जितात्मा पुरुष वहाँ स्नान करने से ब्रह्मलोक प्राप्त कर लेता है साथ ही, अपने कुल की सात पीढि़यों तक को पवित्र कर देता है, इसमें संशय नहीं है। राजेन्द्र! तरनन्तर कार्तिकेय के त्रिभुवनविख्यात पृथूदक तीर्थ की यात्रा करे और वहाँ स्नान करके देवताओं तथा पितरों की पूजा में संलग्न रहे। भारत! स्त्री हो या पुरुष, उसने मानव-बुद्धि से अनजान में या-जान बूझकर जो कुछ भी पापकर्म किया है वह सब पृथूदकतीर्थ में स्नान करने मात्र से नष्ट हो जाता है और तीर्थसेवी पुरुष को अश्वमेध यज्ञ के फल एवं स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है।[8]

कुरुक्षेत्र तीर्थ को सबसे पवित्र कहते हैं, कुरुक्षेत्र से भी पवित्र है सरस्वती नदी, सरस्वती से भी पवित्र है उसका तीर्थ और उन तीर्थों से भी पवित्र हैं पृथूदक। वह सब तीर्थों में उत्तम है, जो पृथूदक तीर्थ में जपपरायण हो कर अपने शरीर का त्याग करता है, उसे पृन:मृत्यु का भय नहीं होता। यह बात भगवान सनत्कुमार तथा महात्मा व्यास ने कहा है। राजन! इस प्रकार तीर्थ यात्री नियम पूर्वक पृथूदक तीर्थ की यात्रा करे। कुरुश्रेष्ठ! पृथूदक में श्रेष्ठतम तीर्थ दूसरा कोई नहीं है। वही मेध्य, पवित्र और पावन है, इस में संशय नहीं है। भरतश्रेष्ठ! वहीं मधुस्वत तीर्थ है। राजन! उसमें स्नान करने से मनुष्य को सहस्र गो दान का फल मिलता है। राजेन्द्र! तदनन्तर क्रमशः लोकविख्यात सरस्वती अरुणासंगम नामक पवित्र तीर्थ की यात्रा करे। वहाँ स्नान करके तीन रात उपवास करने से ब्रह्महत्या से छुटकारा मिल जाता है। इतना ही नहीं, वह मनुष्य अग्निष्टोम और अतिरात्र यज्ञों से मिलने वाले फल को भी पा लेता है।

भरतश्रेष्ठ! वह अपने कुल की सात पीढि़यों को पवित्र कर देता है।। कुरुकुलशिरोमणे! वहीं अर्धकील नामक तीर्थ है, जिसे पूर्वकाल में दर्मी मुनि ने ब्राह्मणों पर कृपा करने के लिये प्रकट किया था। वहाँ व्रत, उपनयन और उपवास करने से मनुष्य कर्मकाण्ड और मन्त्रों का ज्ञाता ब्राह्मण होता है, इसमें संशय नहीं है। नरश्रेष्ठ! क्रियाविहीन और मन्त्रहीन पुरुष भी उसमें स्नान करके व्रता का पालन करने से विद्वान होता है, यह बात प्राचीन महर्षियों ने प्रत्यक्ष देखी है।। दर्भीमुनि वहाँ चार समुद्रों को भी ले आये हैं। नरश्रेष्ठ! उसमें स्नान करने वाला मनुष्य कभी दुर्गति में नहीं पड़ता। और उसे चार हजार गो दान का भी फल प्राप्त होता है। धर्मज्ञ! तदनन्तर वहाँ से शतसहस्र और साहस्त्रक तीर्थों की यात्रा करे। वे दोनों लोक विख्यात तीर्थ हैं। उसमें स्नान करने से मनुष्य को सहस्र गो दान का फल प्राप्त होता है। वहाँ किये हुए दान अथवा उपवास का महत्त्व अन्यत्र से सहस्रगुना अधिक है।

राजेन्द्र! वहाँ से उत्तम रेणुकातीर्थ की यात्रा करे। पहले उस तीर्थ में स्नान करे; फिर देवताओं और पितरों की पूजा में तत्पर हो जाय। इस से तीर्थयात्री सब पापों से शुद्ध हो अग्निष्टोम यज्ञ का फल पाता है। विमोचनतीर्थ में स्नान और आचमन करके क्रोध और इन्द्रियों को काबू में रखने वाला मनुष्य प्रतिग्रहजनित सारे दोषों से मुक्त हो जाता है। वहाँ योगेश्वर एवं वृषभध्वज स्वयं भगवान शिव निवास करते हैं। उन देवेश्वर की पूजा करके मनुष्य वहाँ जाने मात्र से सिद्ध हो जाता है। वही तैजस नामक वरुण देवता सम्बन्धी तीर्थ है, जो अपने तेज से प्रकाशित होता है। जहाँ ब्रह्मा आदि देवताओं तथा तपस्वी ऋषियों ने कार्तिकेय को देव सेनापति के पद पर अभिषिक्त किया था।

कुरूश्रेष्ठ! तैजसतीर्थ के पूर्वभाग में कुरुतीर्थ है। जो मनुष्य ब्रह्मचर्य पालन और इन्द्रियसंयम पूर्वक कुरुतीर्थ में स्नान करता है, वह सब पापों से शुद्ध हो कर ब्रह्मलोक में जाता है। तदनन्तर नियम परायण हो नियमित भोजन करते हुए स्वर्गद्वार को जाय। उस तीर्थ के सेवन से मनुष्य स्वर्गलोक पाता और ब्रह्मलोक में जाता है। नरेश्वर! तदनन्तर तीर्थसेवी पुरुष अनरकतीर्थ में जाय। राजन उस में स्नान करने से मनुष्य कभी दुर्गति में नहीं पड़ता। महीपते! पुरुषसिंह! वहाँ स्वंय ब्रह्मा, नारायण आदि देवताओं के साथ नित्य निवास करते हैं।[9]

कुरूश्रेष्ठ! महाराज! वहाँ रुद्र पत्नी दुर्गा जी का स्थान भी है। उस देवी के निकट जाने से मनुष्य कभी दुर्गति में नहीं पड़ता। महाराज! वहीं विश्वनाथ उमावल्लभ महादेव जी का स्थान है। वहाँ की यात्रा करके मनुष्य सब पापों से छूट जाता है। शत्रुदमन महाराज! पद्यनाथ भगवान नारायण के निकट जाकर[10] मनुष्य तेजस्वी रूप धारण करके भगवान विष्णु के लोक में जाता है। पुरुषरत्न! सब देवताओं के तीथों में स्नान करके मनुष्य सब दुःखों से मुक्त हो चन्द्रमा के समान प्रकाशित होता है। नरेश्वर! तदनन्तर तीर्थसेवी पुरुष स्वस्तिपुर में जाय, उनकी परिक्रमा करने से सहस्र गो दान का फल मिलता है। तत्पश्चात् पावनतीर्थ में जाकर देवताओं और पितरों का तर्पण करे। भारत! ऐसा करने वाले पुरुष को अग्निष्टोमयज्ञ का फल मिलता है। भरतश्रेष्ठ! वहीं गंगाह्रद नामक कूप है। भूपाल! उस कूप में तीन करोड़ तीर्थों का वास है। राजन! उसमें स्नान करके मानव स्वर्गलोक में जाता है।

जो मनुष्य आपगा में स्नान करके महादेव जी की पूजा करता है, वह गणपति पद पाता और अपने कुल का उद्धार कर देता है। तदनन्तर बहरीपाचन नाम से प्रसिद्ध वरिष्ठ के आश्रम पर जय और वहाँ तीन राज उपवासपूर्वक रहकर बेर का फल खाय। जो मनुष्य वहाँ बारह वर्षोतक भलीभाँति त्रिरात्रोपवासपूर्वक बेर का फल खाता है, वह उन्हीं वरिष्ठ के समान होता है। राजन्! नरेश्वर! तीर्थसेवी मनुष्य रुद्रमार्ग में जाकर एक दिन-रात उपवास करे। इससे वह इन्द्रलोक में प्रतिष्ठित होता है। तदनन्तर एकरात्रतीर्थ में जाकर मनुष्य नियमपूर्वक और सत्यवादी होकर एक रात निवास करने पर ब्रह्मलोक में पूजित होता है। राजेन्द्र! तत्पश्चात् उस त्रैलोक्विख्यात तीर्थ में जाय, जहाँ तेजोराशि महात्मा सूर्य का आश्रम है। उसमें स्नान करके सूर्यदेव की पूजा करने से मनुष्य सूर्य के लोक में जाता और अपने कुल का उद्धार करता है।

नरेश्वर! सोमतीर्थ में स्नान करके तीर्थसेवी मानव सोमलोक को प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है। धर्मज्ञ राजन्! तदनन्तर महात्मा दधीच के लोकविख्यात परम पुण्यमय, पावन तीर्थ की यात्रा करे। जहाँ तपस्या के भण्डार सरस्वती पुत्र अंगिराक जन्म हुआ। उस तीर्थ में स्नान करने से मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है और सरस्वती लोक को प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है। तदनन्तर नियम पूर्वक रह कर ब्रह्मचर्य पालन करते हुए कन्याश्रम तीर्थ में जाय। राजन! वहाँ तीन रात उपवास करते नियम पूर्वक नियमित भोजन करने से सौ दिव्य कन्याओं की प्राप्ति होती है और वह मनुष्य स्वर्गलोक में जाता है। धर्मज्ञ! तदनन्तर वहाँ से संनिहतीतीर्थ की यात्रा करे। उस तीर्थ में ब्रह्मा आदि देवता और तपोधन महर्षि प्रतिमास महान पुण्य से सम्पन्न होकर जाते हैं। सूर्यग्रहण के समय संनिहती में स्नान करने से सौ अश्वमेध यज्ञों अभीष्ट एवं शास्वत फल प्राप्त होता है।

पृथ्वी पर और आकाश में जितने तीर्थ, नदी, ह्रद, तड़ाग, सम्पूर्ण झरने, उदपान, बावली, तीर्थ और मंदिर हैं, वे प्रत्येक मास की अमास्या को संनिहती में अवश्य पधारेंगे। तीथों का संघात या समूह होने के कारण ही वह संनिहती नाम से विख्यात है। राजन! उसमें स्नान और जलपान करके मनुष्य स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। जो सूर्यग्रहण के समय अमावस्या को वहाँ पितरों का श्राद्ध करता है, उसके पुण्यफल का वर्णन सुनो।[11]

भलीभाँति सम्पन्न किये हुए सहस्र अश्वमेध यज्ञों का जो फल होता है, उसी मनुष्य उस तीर्थ में स्नानमात्र करके अथवा श्राद्ध करके पा लेता है। स्त्री या पुरुष ने जो कुछ भी दुष्कर्म किया हो, वह सब वहाँ स्नान करने मात्र से नष्ट हो जाता है; इसमें संशय नहीं है। वह पुरुष कमल के समान रंग वाले विमान द्वारा ब्रह्मलोक में जाता है।

तदनन्तर मचक्रुक नामक द्वारपाल यक्ष को प्रणाम करके कोटितीर्थ में स्नान करने से मनुष्य को प्रचुर सुवर्णराशि की प्राप्ति होती है। धर्मज्ञ भरतश्रेष्ठ! वहीं गंगाह्रद नामक तीर्थ है, उसमें ब्रह्मचर्य पालन पर्वूक एकाग्रचित्त करे, इससे मनुष्य को राजसूय और अश्वमेध यज्ञों द्वारा मिलने वाले फल की प्राप्ति होती है। भूण्डल के निवासियों के लिये नैमिष, अंतरिक्ष निवारियों के लिये पुष्कर और तीनों लोकों के निवासियों के लिये कुरुक्षेत्र विशिष्टि तीर्थ हैं।

कुरुक्षेत्र से वायु द्वारा उड़ायी हुई धूल भी पापल से पापी मनुष्य पर पड़ जाय तो उसे परमगति को पहुँचा देती है। सरस्वती से दक्षिण, दृषद्वती से उत्तर कुरुक्षेत्र में जो लोग निवास करते हैं, वे मानों स्वर्गलोक में बसते हैं। ‘मैं कुरुक्षेत्र में जाऊंगा, कुरुक्षेत्र में निवास करूंगा, ऐसी बात एक बार मुंह से कह देने पर भी मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है।

कुरुक्षेत्र ब्रह्माजी की वेदी है, इस पुण्यक्षेत्र का ब्रह्मर्षिगण सेवन करते हैं। जो मानव उसमें निवसा करते हैं, वे किसी प्रकार शोकजनक अवस्था में नहीं पड़ते। तरन्तुक और अरन्तुक के तथा रामह्रद और मचक्रुक के बीच का जो भूभाग है, वहीं कुरुक्षेत्र एवं समन्तपंचक है। इसे ब्रह्माजी की उत्तरवेदी कहते हैं।[12]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत वन पर्व अध्याय 83 श्लोक 1-23
  2. महाभारत वन पर्व अध्याय 83 श्लोक 24-46
  3. योग की क्रिया
  4. महाभारत वन पर्व अध्याय 83 श्लोक 47-71
  5. महाभारत वन पर्व अध्याय 83 श्लोक 72-97
  6. वही नैमिषकुंज कहलाता है
  7. महाभारत वन पर्व अध्याय 83 श्लोक 98-121
  8. महाभारत वन पर्व अध्याय 83 श्लोक 122-144
  9. महाभारत वन पर्व अध्याय 83 श्लोक 145-169
  10. उनका दर्शन करके
  11. महाभारत वन पर्व अध्याय 83 श्लोक 170-195
  12. महाभारत वन पर्व अध्याय 83 श्लोक 196-208

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अरण्य पर्व
पांडवों का वन प्रस्थान | पांडवों का प्रमाणकोटि तीर्थ निवास | युधिष्ठिर से ब्राह्मणों व शौनक का वार्तालाप | युधिष्ठिर द्वारा सूर्य उपासना | विदुर की धृतराष्ट्र को सलाह | पांडवों का काम्यकवन में प्रवेश | काम्यकवन में विदुर-पांडव मिलन | धृतराष्ट्र की विदुर से क्षमा प्रार्थना | शकुनि द्वारा वन में पांडव वध का षड़यंत्र | व्यास का धृतराष्ट्र से अनुरोध | व्यास द्वारा सुरभि तथा इंद्र उपाख्यान का वर्णन | मैत्रेयी का धृतराष्ट्र तथा दुर्योधन से सद्भाव का अनुरोध | मैत्रेयी का दुर्योधन को शाप
किर्मीर वध पर्व
भीम द्वारा किर्मीर वध
अर्जुनाभिगमन पर्व
अर्जुन तथा द्रौपदी द्वारा कृष्ण स्तुति | द्रौपदी का कृष्ण से अपने अपमान का वर्णन | कृष्ण द्वारा जूए दोष का वर्णन | कृष्ण द्वारा शाल्व वध का वर्णन | द्वारका में युद्ध सम्बंधी तैयारियों का वर्णन | यादव सेना द्वारा शाल्व सेना का प्रतिरोध | प्रद्युम्न और शाल्व का युद्ध | प्रद्युम्न का अनुताप | प्रद्युम्न द्वारा शाल्व की पराजय | कृष्ण और शाल्व का युद्ध | कृष्ण और शाल्व की माया | कृष्ण द्वारा शाल्ववधोपाख्यान की समाप्ति | पांडवों की द्वैतवन में प्रवेश की उद्यता | पांडवों का द्वैतवन में प्रवेश | मार्कण्डेय द्वारा पांडवों को धर्म आदेश | बक द्वारा युधिष्ठिर से ब्राह्मण महत्त्व का वर्णन | द्रौपदी का युधिष्ठिर से संतापपूर्ण वचन | द्रौपदी द्वारा प्रह्लाद-बलि संवाद वर्णन | युधिष्ठिर द्वारा क्रोध निन्दा | द्रौपदी का युधिष्ठिर और ईश्वर न्याय पर आक्षेप | युधिष्ठिर द्वारा द्रौपदी आक्षेप का समाधान | द्रौपदी द्वारा पुरुषार्थ को प्रधानता | भीम द्वारा पुरुषार्थ की प्रशंसा | भीम का युधिष्ठिर से क्षत्रिय धर्म अपनाने का अनुरोध | युधिष्ठिर द्वारा धर्म पर ही रहने की घोषणा | भीम द्वारा युधिष्ठिर का उत्साह वर्धन | व्यास द्वारा युधिष्ठिर को प्रतिस्मृतिविद्या का दान | अर्जुन का इन्द्रकील पर्वत पर प्रस्थान
कैरात पर्व
अर्जुन की उग्र तपस्या | अर्जुन का शिव से युद्ध | अर्जुन द्वारा शिव स्तुति | अर्जुन को शिव का वरदान | अर्जुन के पास दिक्पालों का आगमन | इन्द्र द्वारा अर्जुन को स्वर्ग आगमन का आदेश
इन्द्रलोकाभिगमन पर्व
अर्जुन का स्वर्गलोक प्रस्थान | अर्जुन का इन्द्रसभा में स्वागत | अर्जुन को अस्त्र और संगीत की शिक्षा | चित्रसेन और उर्वशी का वार्तालाप | उर्वशी का अर्जुन को शाप | इन्द्र-अर्जुन से लोमश मुनि की भेंट | धृतराष्ट्र की पुत्र चिन्ता तथा संताप | वन में पांडवों का आहार | कृष्ण प्रतिज्ञा का संजय द्वारा वर्णन
नलोपाख्यान पर्व
बृहदश्व द्वारा नलोपाख्यान | बृहदश्व द्वारा नल-दमयन्ती के गुणों का वर्णन | दमयन्ती स्वयंवर के लिए राजाओं का प्रस्थान | नल द्वारा दमयन्ती से देवताओं का संदेश | नल-दमयन्ती वार्तालाप | नल-दमयन्ती विवाह | नल के विरुद्ध कलियुग का कोप | नल और पुष्कर की द्यूतक्रीड़ा | दमयन्ती का कुमार-कुमारी को कुण्डिनपुर भेजना | नल-दमयन्ती का वन प्रस्थान | नल द्वारा दमयन्ती का त्याग | दमयन्ती का पातिव्रत्यधर्म | दमयन्ती का विलाप | दमयन्ती को तपस्वियों द्वारा आश्वासन | दमयन्ती का चेदिराज के यहाँ निवास | नल द्वारा कर्कोटक नाग की रक्षा | नल की ऋतुपर्ण के यहाँ अश्वाध्यक्ष पद पर नियुक्ति | विदर्भराज द्वारा नल-दमयन्ती की खोज | दमयन्ती का पिता के यहाँ आगमन | दमयन्ती को नल का समाचार मिलना | ऋतुपर्ण का विदर्भ देश को प्रस्थान | बाहुक की अद्भुत रथसंचालन कला | ऋतुपर्ण से नल को द्यूतविद्या के रहस्य की प्राप्ति | नल के शरीर से कलियुग का निकलना | ऋतुपर्ण का कुण्डिनपुर में प्रवेश | केशिनी-बाहुक संवाद | केशिनी द्वारा बाहुक की परीक्षा | नल-दमयन्ती मिलन | नल-ऋतुपर्ण वार्तालाप | नल द्वारा पुष्कर को जूए में हराना | नल आख्यान का महत्त्व | बृहदश्व का युधिष्ठिर को आश्वासन
तीर्थ यात्रा पर्व
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जटासुरवध पर्व
जटासुर द्वारा द्रौपदी, युधिष्ठिर, नकुल एवं सहदेव का हरण | भीमसेन द्वारा जटासुर का वध
यक्षयुद्ध पर्व
पांडवों का नरनारायणाश्रम से वृषपर्वा के जाना | पांडवों का राजर्षि आर्ष्टिषेण के आश्रम पर जाना | आर्ष्टिषेण का युधिष्ठिर के प्रति उपदेश | पांडवों का आर्ष्टिषेण के आश्रम पर निवास | भीमसेन द्वारा मणिमान का वध | कुबेर का गंधमादन पर्वत पर आगमन | कुबेर की युधिष्ठिर से भेंट | कुबेर का युधिष्ठिर आदि को उपदेश तथा सान्त्वना | धौम्य द्वारा मेरु शिखरों पर स्थित ब्रह्मा-विष्णु आदि स्थानों का वर्णन | धौम्य का युधिष्ठिर से सूर्य-चन्द्रमा की गति एवं प्रभाव का वर्णन | पांडवों की अर्जुन के लिए उत्कंठा
निवातकवच युद्ध पर्व
अर्जुन का स्वर्गलोक से आगमन तथा भाईयों से मिलन | इन्द्र का आगमन तथा युधिष्ठिर को सान्त्वना देना | अर्जुन का अपनी तपस्या यात्रा के वृत्तान्त का वर्णन | अर्जुन द्वारा शिव से संग्राम एवं पाशुपतास्त्र प्राप्ति की कथा | अर्जुन का युधिष्ठिर से स्वर्गलोक में प्राप्त अपनी अस्त्रविद्या का कथन | अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्ध की तैयारी का कथन | अर्जुन का पाताल में प्रवेश | अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्धारम्भ | अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध | अर्जुन के साथ निवातकवचों के मायामय युद्ध का वर्णन | अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध | अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध | इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन | युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा | नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत | पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान | पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास | पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश | द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना | भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना | भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप | युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज | युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना | सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश | पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन | तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य | ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा | तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद | वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा | चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन | प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन | मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन | मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप | बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना | मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन | युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन | कल्कि अवतार का वर्णन | भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश | इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह | शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता | इन्द्र और बक मुनि का संवाद | सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा | ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान | सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र | इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा | नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन | इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा | मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन | मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन | उत्तंक मुनि की कथा | उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह | ब्रह्मा की उत्पत्ति | विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध | धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति | कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध | कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति | पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य | कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान | कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना | धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा | धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन | धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश | धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना | धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार | अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना | अंगिरा की संतति का वर्णन | बृहस्पति की संतति का वर्णन | पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति | पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन | अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन | सह अग्नि का जल में प्रवेश | अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य | इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार | इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना | अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन | स्कन्द की उत्पत्ति | स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण | विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना | अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना | इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान | स्कन्द के पार्षदों का वर्णन | स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप | स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक | स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह | कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति | मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन | स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार | रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा | देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध | कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा | द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा | सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार | शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना | दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना | दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति | द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद | कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय | गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण | कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश | पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध | पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय | चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा | दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन | दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना | दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश | कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय | दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना | दैत्यों का दुर्योधन को समझाना | दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान | भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव | कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान | कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय | कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार | दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी | दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति | कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा | युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन | व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन | दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा | महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना | देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन | व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार | दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना | द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना | कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना | जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना | कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना | द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर | जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद | जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण | पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना | द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन | पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार | युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना | भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना | शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना | राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन | रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति | कुबेर का रावण को शाप देना | देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना | राम के राज्याभिषेक की तैयारी | राम का वन को प्रस्थान | भरत की चित्रकूट यात्रा | राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप | राम द्वारा मारीच का वध | रावण द्वारा सीता का अपहरण | रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार | राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध | राम और सुग्रीव की मित्रता | राम द्वारा बाली का वध | अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन | रावण और सीता का संवाद | राम का सुग्रीव पर कोप | सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना | हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना | वानर सेना का संगठन | नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण | विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश | अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना | राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम | राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध | प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध | रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना | कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध | इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा | राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना | लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध | रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना | राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध | राम का सीता के प्रति संदेह | देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन | राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक | मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति | सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण | सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय | सावित्री और सत्यवान का विवाह | सावित्री की व्रतचर्या | सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना | सावित्री और यम का संवाद | यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना | सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप | राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता | सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन | द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना | कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना | सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश | कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय | कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन | कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना | कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या | कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश | कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन | कुन्ती-सूर्य संवाद | सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन | कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप | अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति | कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन | कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति | इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग | युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश | नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना | यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद | यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर | युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना | यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना | युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना | भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श

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