- महाभारत वनपर्व के तीर्थयात्रापर्व के अंतर्गत अध्याय 134 में अष्टावक्र का शास्त्रार्थ का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से अष्टावक्र का शास्त्रार्थ के वर्णन की कथा कही है।[1]
विषय सूची
जनक की सभा में बन्दी उपस्थित
अष्टावक्र बोले- भयंकर सेनाओं से युक्त महाराज जनक! इस सभागार में सग ओर से अप्रतिम प्रभावशाली राजा आकर एकत्र हुए है, परंतु इन सबके बीच में वादियों मे प्रधान बन्दी को नहीं पहचान पाता हूँ। यदि पहचान लूं तो अगाध जल में हंस की भाँति उन्हें अवश्य पकड़ लूंगा। अपने को अतिवादी मानने वाले बन्दी! तुमने पराजित हुए पण्डितों को पानी में डुबवा देने का नियम कर रखा है, कितु आज मेरे सामने तुम्हारी बोली बन्द हो जायेगी। जैसे प्रलयकाल के प्रज्वलित अग्नि के सामने नदियों का प्रवाह सूख जाता है; उसी प्रकार मेरे सामने आने पर तुम भी सूख जाओगे- तुम्हारी वादशक्ति नष्ट हो जायेगी। बन्दी! आज मेरे सामने स्थिर होकर बैठो।
बन्दी ने कहा- मुझे सोता हुआ सिंह समझकर न जगाओं (न छेड़ो), अपने जबड़ो को चाटता हुआ विषैला सर्प मानो। तुमने पैरों से ठोकर मारकर मेरे मस्तक को कुचल दिया है। अब जब तक तुम डंस लिये नहीं जाते तब तक तुम्हें छुटकारा नहीं मिल सकता, इस बात को अच्छी तरह समझ लो। जो देहधारी अत्यन्त दूर्बल होकर अहंकावश अपने हाथ से पर्वत पर चोट करता है, उसी के हाथ और नख विदीर्ण हो जाते है, उस चोट से पर्वत में घाव होता नहीं देखा जाता है।
अष्टावक्र बोले- जैसे सब पर्वत मैनाक से छोटे है, सारे बछड़े बैलो से लघुतर है, उसी प्रकार भूमण्डल के समसत राजा मिथिला नरेश महाराज जनक की अपेक्षा निम्न श्रेणी में है। राजन! जैसे देवताओं मे महेन्द्र श्रेष्ट है और नदियों मे गंगा श्रेष्ट है, उसी प्रकार सब राजाओं मे एकमात्र आप ही उत्तम है। अब बन्दी को मेरे निकट बुलवाइये।
लोमश जी कहते है- युधिष्ठिर! (बन्दी के सामने आ जाने पर) राजसभा में गर्जते हुए अष्टावक्र ने बन्दी से कुपित होकर इस प्रकार कहा- ‘मेरी पूछी हुई बात का उत्तर तुम दो और तुम्हारी बात का उत्तर मै देता हूँ।
तब बन्दी ने कहा- अष्टावक्र! एक ही अग्नि अनेक प्रकार से प्रकाशित होती है, एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है। शत्रुओ का नाश करने वाला देवराज इन्द्र एक ही वीर है तथा पितरों का स्वामी यमराज भी एक ही है।
अष्टावक्र-बन्दी संवाद
अष्टावक्र बोले- जो दो मित्रों की भाँति सदा साथ विचरते है, वे इन्द्र और अग्नि दो देवता है। परस्पर मित्रभाव रखने वाले देवर्षि नारद और पर्वत भी दो ही है। अश्विनीकुमारों की संख्या दो ही है, रथ के पहिये भी दो ही होते है, तथा विधाता ने (एक दूसरे के जीवनसंगी) पति और पत्नी भी दो ही बनाये हैं।
बन्दी ने कहा- यह सम्पूर्ण प्रजा कर्मवश देवता, मनुष्य और तिर्यक रुप तीन प्रकार का जन्म धारण करती है, ऋक, साम, और जयु- ये तीन वेद ही परस्पर संयुक्त हो बाजपेय आदि यज्ञ कर्मो का निवार्ह करते हैं। अध्वर्युलोक भी प्रात: सवन, मध्यांह सवन ओर सांयसवन वेद से तीन सवनों (यज्ञों का ही अनुष्ठान करते है (कर्मानुसार प्राप्त होने वाले भोगों के बिए स्वर्ग, मृत्यु और नरक ये लोक भी तीन ही बतायें ये है और मुनियों ने सूर्य देवता, चन्द्र और अग्नि रुप तीन ही प्रकार की ज्योतियां है।[1]
अष्टावक्र बोले- ब्राह्मणों के लिये आश्रम चार है। वर्ण भी चार है, जो इस यज्ञ का भर वहन करते हैं। मुख्य दिशाएं भी चार ही है। वर्ण भी चार ही हैं तथा गो अथार्थ वाणी भी सदा चार ही चरणों से युक्त बतयी जाती हैं।
बन्दी बोले- यज्ञ की अग्नि गार्हपत्य, दक्षिणाअग्नि, आहवनीय, सभ्य और आवसध्य के भद से पांच प्रकार की कही गयी हैं। पंक्ति छन्द भी पांच पादों से ही बनता है, यज्ञ भी पांच ही है- देवयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ और मनुष्य यज्ञ। इस प्रकार इन्दियों की संख्या भी पांच ही है। वेद में पांच वेणी वाले[2]तथा लोक में पांच नदियों से विशिष्ट पुण्यमय पंचनन्द प्रदेया विख्यात है। अष्टावक्र बोले- कुछ विद्वानो का मत है कि अग्नि की स्थापना के समय दक्षिण में छ: गौ ही देनी चाहिये। ये छ: ऋतुएं ही संवत्सररुप कालचक्र की सिद्धि करती हैं। मन सहित ज्ञानेन्द्रयां भी छ: ही है। कृतिकाओं की संख्या छ: ही है तथा सम्पूर्ण वेदों में साद्यस्क नामक यज्ञ भी छ: ही देखे गये है।
बन्दी ने कहा- ग्राम्य पशु सात है ( जिनके नाम इस प्रकार है) – गाय, भैस, बकरी, भेड, घोड़ा, कुत्ता और गदहा। जंगली पशु भी सात है[3]। गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप और जगती- ये सात ही छन्द एक एक यज्ञ का निर्वाह करते हैं। सर्प्तषि नाम से प्रसिद्ध ऋषियों की संख्या भी सात ही है ( यथा- मरीचि, अत्रि, पुलह, पुलस्त्य, क्रतु अगिरा और वसिष्ठ), पूजन के संक्षिप्त उपचार भी सात है ( यथा- गन्ध, पुश्प, धूप, दौप, नैवेध, आचमन और ताम्बुल) तथा वीणा के भी सात ही तार विख्यात है।
अष्टावक्र बोले- तराजू में लगी हुई सन की डोरीयां भी आठ ही होती हैं, जो सैकड़ो का मान (तौल) करतती हैं। सिंह को भी मार गिराने वाले शरभ के आठ ही पैर होते हैं। देवताओं में वसुधा की संख्या भी आठ ही सुनी गयी है और सम्पूर्ण यज्ञों में आठ कोण के ही यूप का निर्माण किया जाता है।
बन्दी ने कहा- पितृयज्ञ में समिधा देकर अग्नि को उद्दीप्त करने के लिये जो मन्त्र पढ़े जाते है, उन्हें सामिधेनी ऋचा कहते है, उनकी संख्सा नौ ही बतायी गयी है, इसमें प्रकृति, पुरुष, महत्तत्व, अहंकार तथा पंचतन्मात्रा- इन नौ पदार्थों का संयोग कारण है, ऐसा विज्ञ पुरुषों का कथन है। बृहती-छन्द के प्रत्येक चरण में नौ अक्षर बताये गये है और एक से लेकर नौ अंको का योग सदा गणना के उपयोग में आता है।[4][5]
अष्टावक्र ने कहा- पुरुष के लिये संसार में दस दिशायें बतायी गयी है। दस सौ मिलकर ही पूरा ऐ सहस्त्र कहा जाता है, गर्भवती स्त्रियां दस मास तक ही गर्भ धारण करती है, निन्दक भी दस होते है, शरीर की अवस्थाएं भी दस है तथा पूजनीय पुरुष भी दस ही बताये गये है।
बन्दी ने कहा- प्राणधारी पशुओ ( जीवों ) के लिए ग्यारह विषय है। उन्हें प्रकाशित करने वाली इन्द्रियां भी ग्यारह ही है, यज्ञ, याग आदि में यूप भी ग्यारह ही होते है, प्राणियों के विकार भी ग्यारह है, तथा स्वार्गीय देवताओं में जो रुद्र कहलाते है; उनकी संख्या भी ग्यारह ही है।
अष्टावक्र बोले- एक संवत्सर में महीने बताये गये है, जगती छन्द का प्रत्येक पाद बारह अक्षरों का होता है, प्राकृत यज्ञ बारह दिनों का माना गया है, ज्ञानी पुरुष यहाँ बारह आदित्यों का वर्णन करते हैं।
बन्दी बोले- त्रयोदशी तिथि उत्तम बतायी यी है तथा यह पृथ्वी तेरह द्वीपों से युक्त है। 1 काम क्रोघ, लोभ-मोहि, मद-मत्सर, हर्ष-शोक, राग-द्वेष और अहंकार- ये ग्यारह विकार होते हैं। 2 ’मृगव्याध, सर्प, तहायशस्वी, र्निऋति, अजैकपाद, अर्हिबुध्न्य, शत्रु-संतापन पिना की, दहन, ईश्वर, परमकान्िमान कपाली, स्थाणु और भगवान भव- ये ग्यारह रुद्र माने गये है। 3- ‘धाता, मित्र, अर्यमा, इन्द्र, वरुण, अंश, भग, विवस्वान, पूषा, दसवें सविता, ग्यारह वे त्वष्टा और बारहवें विष्णु कहे गये है। ‘
लोमश जी कहते है- इतना कहकर बन्दी चुप हो गया। तब शेष आधे श्लोक की पुष्टि अष्टावक्र ने इस प्रकार की।
अष्टावक्र द्वारा श्लोक की पुष्टि
अष्टावक्र बोले- केशी नामक दानव ने भगवान विष्णु के साथ तेरह दिनों तक युद्ध किया था। वेद में जो अतिशब्द विशिष्ट छन्द बताये गये है, उनका एक एक पाद तेरह आदि अक्षरों से सम्पन्न होता है (अर्थात अतिजगती छन्द का एक पाद तेरह अक्षरों का, अतिशकरी का एक पाद पन्द्रह अक्षरों का, अत्यष्टिका प्रत्येक पाद सत्रह अक्षरों का तथा अतिभूति का हर एक पाद उन्नीस अक्षरों का होता है )।
लोमश जी कहते है- इतना सुनते ही सूतपुत्र बन्दी चुप हो गया और मूंह नीचा किये किसी भारी सोच विचार मे पड़ गया। इधर अष्टावक्र बोलते ही रहें, यह सब देख दर्शको और श्रोताओं में महान कोलाहल मच गया। महाराज जनक के उस समृद्धिशाली यज्ञ में जब कि चारों ओर कोलाहल व्याप्त हो रहा था, सब ब्राह्मण हाथ जोड़े हुए श्रद्धापूर्वक अष्टावक्र के समीप आये और उनका आदर सत्कारपूर्वक पूजन किया।
तत्पश्चात अष्टावक्र ने कहा- महाराज! इसी बन्दी ने पहले बहुत से शास्त्रज्ञ (विद्वान) ब्राह्मणों को शास्त्रार्थ मे पराजित करके पानी में डुबवाया है, अत: इसकी भी वही गति होनी चाहिये, जो इसके द्वारा दूसरो की हुई। इसलिये इसे पकड़कर शीघ्र पानी में डुबवा दीजिये। बन्दी बोला- महाराज जनक! मैं राजा वरुण का पुत्र हुं। मेरे पिता के यहाँ भी आपके इस यज्ञ के समान ही बारह वर्षों में पूर्ण होने वाला यज्ञ हो रहा था। उस यज्ञ के अनुष्ठान के लिये ही ( जल में डुबाने के बहाने ) कुछ चुने हुए श्रेष्ट ब्राह्मणों को मैने वरुणलोक में भेज दिया था। [6][7]
वे सब-के-सब वरुण का यज्ञ देखने के लिये गये है और अब पुन: लौटकर आ रहे है। मैं पूजनीय ब्राह्मण अष्टावक्र जी का सत्कार करता हूं; जिनके कारण मेरे अपने पिताजी से मिलना होगा।
अष्टावक्र बोले- राजन! बन्दी ने अपनी जिस वाणी (प्रवचनपटुता अथवा मेघ बुद्धिबल) से विद्वान ब्राह्मणों को भी परास्त किया और समुद्र के जल मे डुबाया है, उसी उस वाकशक्ति को मैने अपनी बुद्धि से किस प्रकार उखाड़ फेंका है, यह सब इस सभा में बैठे हुए विद्वान पुरुष मेरी बातें सूनकर ही जान गये होंगे। अग्नि स्वाभाव से ही दहन करने वाला है तो भी वह ज्ञेय विषय तत्काल जानने मे समर्थ है। इस कारण परीक्षा के समय जो सदाचारी और सत्यवादी होते है, उनके घरों को ( शरीरों को ) छोड़ देता है, जलता नहीं। वैसे ही संत लोग भी विनम्रभाव से बोलने वाले बालक पुत्रों के वचनों मे से जो सत्य और हितकर बात होती है, उसे चुन लेते है- (उसे मान लेते है, उनकी अवहेलना नहीं करते )। भाव यह कि तुमको मेरे वचनों का भाव समझकर उन्हें ग्रहण करना चाहिये। राजन! जान पड़ता है, तुमने लसोड़े के पत्तों पर भोजन किया है या उसका फल खा लिया है, इसी से तुम्हारा तेज क्षीण हो गया है; अत: तुम बन्दी द्वारा की गई स्तुतियां तुम्हें उन्मत्त कर रही है, यही कारण है कि अंकुश की मार खाकर भी न मानने वाले मतवाले हाथी की भाँति तुम मेरी इन बातों को नहीं सुन पा रहे हो।
जनक ने कहा- ब्रह्मन! मै आपकी दिव्य एवं अलौकिक वाणी सुन रहा हूं, आप साक्षात दिव्यस्वरूप है, आपने शास्त्रार्थ में बन्दी को जीत लिया है। आपकी इच्छा अभी पूरी की जा रही है। देखिये यह है आपके द्वारा जीता हुआ बन्दी।
अष्टावक्र बोले- महाराज! इस बन्दी के जीवित रहने से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। यदि इसके पिता वरुणदेव है तो उनके पास जाने के लिये इसे निश्चय ही जलाशय में डुबो दीजियें।
बन्दी बोला- राजन! मै वास्तव में राजा वरुण का पुत्र हूं, अत: डुबाये जाने पर का मुझे कोई भय नहीं हैं। ये अष्टावक्र दीर्घकाल से नष्ट हुए अपने पिता कहोड़ को इसी समय देखेंगे।[8]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत वन पर्व अध्याय 134 श्लोक 1-10
- ↑ पंचचूड़ा अप्सरा का वर्णन देखा गया है
- ↑ यथा सिहं, बाघ, भेड़िया, हाथी, वानर भालू और मृग
- ↑ 1- ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास। 2- ब्राह्मण, क्ष्त्रिय, वैश्य और शुद्र। 3- पूर्व, दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर। 4- हृस्व, दीर्ध, प्लुत और हल। 5- परा, पश्यन्ती मध्यमा और वैखरी- ये बाणी के चार पैर है। 6- आठ-आठ अखर के पांच पादों से पंक्तिछन्द की सिद्धि होती है। 7- त्वचा, ओत्र, नेत्र, रसना और नासिका- ये पांच ज्ञानेन्द्रियां हैं। 8- पंचचूडा अप्सरा का उल्लेख महाभारत के अनुशासन पर्व में 38 वे अध्याय मं भी आया हैं। 9- बिपाशा (व्यास), इरावती (रावी), वितस्त (झेलम), चन्द्रभागा (चिनाव) और शतद्र (शतलज) ये ही पांच प्रदेश की पांच नदियां है।
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 134 श्लोक 11-16
- ↑ 1 यथा रोगी, दरिद्र, शोकार्त, राजदण्डित, शठ, खल वृत्ति- से वंचित, उन्मत्त, र्इर्ष्यापरायण और कामि- ये दस निन्दक होते हैं। जैसा कि निम्नाकितं श्लोक से सियुधिष्ठिर होता है- ‘आमयी दुर्मत: शोकी दण्डितश्व शठ: खल:। नष्टवृत्तिमदी चैष्यीं कामी च दश निन्दका:। ।’ ( इति नीतिशास्त्रोक्ति) 2- उन दसो अवस्थाओं के नाम इस प्रकार है- गर्भवास, जन्म, बाल्य, कौमार, पौगण्ड, कैशोर, योवन, प्रौड़, वाद्धक्य तथा मृत्यु’ 3- अध्यापक, पिता, ज्येष्ठ भ्राता, राजा, मामा, श्वश्रुर, नाना, दादा अपने से बडी अवस्था वाले कुटुम्बी तथा पितृत्य ( चाचा ताउ)- ये दस पूजनीय पुरुष माने गये है। जैसा कि कूर्मपुराण का वचन है- उपाध्याय: पिता ज्येष्ठभ्राता चैव महीपती:। मातुल: श्चसुरश्वैव मातामहपितामहौ।। वन्धुजष्ठ: पितृव्यश्च पुंस्येते गुरुओं मता:। 4- वाक्य बोलना, ग्रहण करना, चलना, फिरना, मलत्याग करना और मैथुन जनित सुख का अनुभव करना- से पांच कामेंन्द्रियों के विषय है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गन्ध– से पांच ज्ञानेन्द्रियों के विषय है और इन सबका मनन- मन का विषय है। इस प्रकार कुल मिलाकर ग्यारह विषय है।
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 134 श्लोक 17-24
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 134 श्लोक 25-36
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| पांडवों का पुन: नरनारायणाश्रम में लौटना
जटासुरवध पर्व
जटासुर द्वारा द्रौपदी, युधिष्ठिर, नकुल एवं सहदेव का हरण
| भीमसेन द्वारा जटासुर का वध
यक्षयुद्ध पर्व
पांडवों का नरनारायणाश्रम से वृषपर्वा के जाना
| पांडवों का राजर्षि आर्ष्टिषेण के आश्रम पर जाना
| आर्ष्टिषेण का युधिष्ठिर के प्रति उपदेश
| पांडवों का आर्ष्टिषेण के आश्रम पर निवास
| भीमसेन द्वारा मणिमान का वध
| कुबेर का गंधमादन पर्वत पर आगमन
| कुबेर की युधिष्ठिर से भेंट
| कुबेर का युधिष्ठिर आदि को उपदेश तथा सान्त्वना
| धौम्य द्वारा मेरु शिखरों पर स्थित ब्रह्मा-विष्णु आदि स्थानों का वर्णन
| धौम्य का युधिष्ठिर से सूर्य-चन्द्रमा की गति एवं प्रभाव का वर्णन
| पांडवों की अर्जुन के लिए उत्कंठा
निवातकवच युद्ध पर्व
अर्जुन का स्वर्गलोक से आगमन तथा भाईयों से मिलन
| इन्द्र का आगमन तथा युधिष्ठिर को सान्त्वना देना
| अर्जुन का अपनी तपस्या यात्रा के वृत्तान्त का वर्णन
| अर्जुन द्वारा शिव से संग्राम एवं पाशुपतास्त्र प्राप्ति की कथा
| अर्जुन का युधिष्ठिर से स्वर्गलोक में प्राप्त अपनी अस्त्रविद्या का कथन
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्ध की तैयारी का कथन
| अर्जुन का पाताल में प्रवेश
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्धारम्भ
| अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध
| अर्जुन के साथ निवातकवचों के मायामय युद्ध का वर्णन
| अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध
| अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध
| इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन
| युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा
| नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत
| पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान
| पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास
| पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश
| द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना
| भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना
| भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप
| युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज
| युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना
| सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश
| पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन
| तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य
| ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा
| तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद
| वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा
| चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन
| प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप
| बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना
| मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन
| युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन
| कल्कि अवतार का वर्णन
| भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश
| इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह
| शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता
| इन्द्र और बक मुनि का संवाद
| सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा
| ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान
| सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र
| इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा
| नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन
| इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा
| मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन
| मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन
| उत्तंक मुनि की कथा
| उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह
| ब्रह्मा की उत्पत्ति
| विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध
| धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति
| कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध
| कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति
| पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य
| कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान
| कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना
| धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा
| धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन
| धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश
| धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना
| धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार
| अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना
| अंगिरा की संतति का वर्णन
| बृहस्पति की संतति का वर्णन
| पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति
| पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन
| अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन
| सह अग्नि का जल में प्रवेश
| अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य
| इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार
| इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना
| अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन
| स्कन्द की उत्पत्ति
| स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण
| विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना
| अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना
| इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान
| स्कन्द के पार्षदों का वर्णन
| स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप
| स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक
| स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह
| कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति
| मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन
| स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार
| रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा
| देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध
| कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा
| द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा
| सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार
| शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना
| दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना
| दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति
| द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद
| कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय
| गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण
| कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश
| पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध
| पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय
| चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा
| दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन
| दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना
| दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश
| कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय
| दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना
| दैत्यों का दुर्योधन को समझाना
| दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान
| भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव
| कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान
| कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय
| कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार
| दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी
| दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति
| कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा
| युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन
| व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन
| दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा
| महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना
| देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार
| दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना
| द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना
| कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना
| जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना
| कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना
| द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर
| जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद
| जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण
| पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना
| द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन
| पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार
| युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना
| भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना
| शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना
| राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन
| रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति
| कुबेर का रावण को शाप देना
| देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना
| राम के राज्याभिषेक की तैयारी
| राम का वन को प्रस्थान
| भरत की चित्रकूट यात्रा
| राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप
| राम द्वारा मारीच का वध
| रावण द्वारा सीता का अपहरण
| रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार
| राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध
| राम और सुग्रीव की मित्रता
| राम द्वारा बाली का वध
| अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन
| रावण और सीता का संवाद
| राम का सुग्रीव पर कोप
| सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना
| हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना
| वानर सेना का संगठन
| नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण
| विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश
| अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना
| राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम
| राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध
| प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध
| रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना
| कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध
| इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा
| राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना
| लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध
| रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना
| राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध
| राम का सीता के प्रति संदेह
| देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन
| राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक
| मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति
| सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण
| सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय
| सावित्री और सत्यवान का विवाह
| सावित्री की व्रतचर्या
| सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना
| सावित्री और यम का संवाद
| यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना
| सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप
| राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता
| सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन
| द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना
| कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना
| सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश
| कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय
| कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन
| कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना
| कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या
| कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश
| कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन
| कुन्ती-सूर्य संवाद
| सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
| कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप
| अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति
| कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन
| कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति
| इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग
| युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश
| नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना
| यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद
| यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
| युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना
| यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना
| युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना
| भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श
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