दमयन्ती का चेदिराज के यहाँ निवास

महाभारत वनपर्व के नलोपाख्यानपर्व के अंतर्गत अध्याय 65 में जंगली हाथियों द्वारा व्यापारियों के दल का सर्वनाष तथा दुःखित दमयन्ती का चेदिराज के भवन में सुखपूर्वक निवास के बारे में बताया गया है जिसका उल्लेख निम्न प्रकार है[1]-

तपस्वियों द्वारा दमयन्ती को आष्वासन दिया जाता है तथा उनकी व्यापारियों के दल से भेंट होती है व्यापारी गण कहते हैं- ‘कल्याणि! सच बताओ, तुम इस वन, पर्वत अथवा दिशा की अधिष्ठात्री देवी तो नहीं हो ? हम सब लोग तुम्हारी शरण में आये हैं। ‘तुम यक्षी हो या राक्षसी कोई श्रेष्ठ देवांगना हो ? इसके पश्चात् दमयन्ती अपना परिचय देती है कि वह शूरवीर राजा नल की आर्या है। इसके बाद की कथा इस प्रकार है।

बृहदश्व मुनि कहते हैं- राजन! दलके संचालन की वह बात सुनकर निर्दोष एवं सुन्दर अंगों वाली दमयन्ती पति देव के दर्शन के लिये उत्सुक हो व्यापारियों के उस दल के साथ ही यात्रा करने लगी। तदनन्तर बहुत समय के बाद एक भयंकर विशाल वन में पहुँचकर उन व्यापारियों ने एक महान सरोवर देखा, जिसका नाम था, पघ्र-सौगन्धिक। वह सब ओर से कल्याणप्रद जान पड़ता था। उस रमणीय सरोवर के पास घास ईन्धन की अधिकता थी, फूल और फल भी वहाँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते थे। उस तालाब पर बहुत-से पक्षी निवास करते थे। सरोवर जल स्वच्छ और स्वादु था, वह देखने में बड़ा ही मनोहर और अत्यन्त शीतल था। व्यापारियों के वाहन बहुत थक गये थे। इसलिये उन्होंने वहीं पड़ाव डालने का निश्चय किया। समूह अधिपति से अनुमति लेकर सब लोगों ने उस उत्तम वन में प्रवेश किया और वह महान जन समुदाय सरोवर के पश्चिम तट पर ठहर गया।

तत्पश्चात् आधी रात के समय जब कहीं से भी कोई शब्द सुनायी नहीं देता था और दल के सभी लोग थककर सो गये थे, उस समय गजराजों के मद की धारा से मलिन जलवाली पहाड़ी नदी में पानी पीने के लिये (जंगली) हाथियों का एक झुंड आ निकला। उस झुंड ने व्यापारियों के सोये हुए दल को और उनके साथ आये हुए बहुत से हाथियों को भी देखा। तब वन में रहने वाले उन सभी मदोन्मत्त गजों ने उन ग्रामीण हाथियों को देखकर उन्हें मार डालने की इच्छा से उन पर वेगपर्वूक आक्रमण किया। पर्वत की चोटी से टूटकर पृथ्वी पर गिरने वाले बड़े-बड़े शिखरों के समान उन आक्रमणकारी जंगली हाथियों का वेग[2]के लिये अत्यन्त दुःसह था। ग्रामीण हाथियों पर आक्रमण करने की चेष्टा वाले उन वनवासी गजराजों के वन्य मार्ग अवरुद्ध हो गये थे। सरोवर के तट पर व्यापारियों का महान समुदाय उनका मार्ग रोककर सो रहा था। उन हाथियों ने सहसों पहुँचकर समूचे दल को कुचल दिया।

कितने ही मनुष्य धरती पर पड़े पड़े छटपटा रहे थे। उस दल के कितने ही पुरुष हाहाकार करते हुए बचाव की जगह खोजते हुए जंगल के पौधों के समूह में भाग गये। बहुत-से मनुष्य तो नींद के मारे अन्धे हो रहे थे। हाथियों ने किन्ही को दांतों से, किन्हीं को सूंडों से और कितनों को पैरों से घायल कर दिया। उनके बहुत-से ऊंट और घोड़े मारे गये और उस समुदाय में बहुत-से पैदल भोग भी थे। वे सब लोग उस समय भय से चारों और भागते हुए एक दूसरे से टकराकर चोट खा जाते थे। घोर आर्तनाद करते हुए सभी लोग धरती पर गिरने लगे। कुछ लोग बड़े वेग से वृक्षों पर चढ़ते हुए नीचे की विषम भूमियों पर गिर पड़ते थे।

राजन! इस प्रकार दैववश बहुतेरे जंगली हाथियों ने आक्रमण करके (प्रायः) उन सम्पूर्ण समृद्धिशाली व्यापारियों के समुदाय को नष्ट कर दिया। उस समय वहाँ तीनों लोकों को भय में डालने वाला महान आर्तनाद एवं चीत्कार हो रहा था। कोई कहता- ‘अरे! इधर बड़ी जोर की आग प्रज्वलित हो उठी है। यह भारी संकट आ गया (अब) दौड़ो और बचाओ। ’ दूसरा कहता- ‘अरे! ये ढेर-के-ढेर रत्न बिखरे पड़े हैं, इन्हें सम्हालकर रक्‍खों। इधर उधर भागते क्यों हो?

तीसरा कहता था-‘भाई! इस धन पर सबका समान अधिकार है, मेरी यह बात झूठी नहीं है’। कोई कहता- ‘ऐ कायरो! मैं फिर तुमसे बात करूंगा, अभी अपनी रक्षा की चिंता करो। इस तरह की बाते करते हुए सब लोग भय से भाग रहे थे। इस प्रकार जब वहाँ भयानक नर-संहार हो रहा था, उसी समय दमयन्ती भी जाग उठी। उसका हृदय भय से संत्रस्त हो उठा। वहाँ उसने वह महासंहार अपनी आंखों देखा, जो सब लोगों के लिये भयंकर था। उसने ऐसी दुर्घटना पहले कभी नहीं देखी थी। वह सब देखकर वह कमलनयनी बाला भय से व्याकुल हो उठी। उसको कहीं से कोई सान्त्वना नहीं मिल रही थी। वह इस प्रकार स्तब्ध हो रही थी, मानो धरती से सट गयी हो। तदनन्तर वह किसी प्रकार उठकर खड़ी हुई। दल के जो लोग संकट से मुक्त हो आघात से बचे हुए थे, वे सब एकत्र हो कहने लगे कि ‘यह हमारे किस कर्म का फल है ? निश्चय ही हमने महायशस्वी मादिभद्र का पूजन नहीं किया है। इसी प्रकार हमने श्रीमहान यक्षराज कुबेर की भी पूजा नहीं की है अथवा विघ्नकर्ता विनायकों की भी पहले पूजा नहीं कर ली थी। अथवा हमने पहले जो-जो शगुन देखे थे, उसका विपरित फल है। यदि हमारे ग्रह विपरीत न होते तो और किस हेतु से यह संकट हमारे ऊपर कैसे आ सकता है ?

दूसरे लोग जो अपने कुटुम्बीजनों और धन के विनाश से दीन हो रहे थे, वे इस प्रकार कहने लगे- ‘आज हमारे विशाल जन समूह के साथ वह जो उन्मत्त जैसी दिखायी देने वाली नारी आ गयी थी, वह विकराल आकार वाली राक्षसी थी तो भी अलौकिक सुन्दर रूप धारण करके हमारे दल में घुस गयी थी। उसी ने पहले से ही यह अत्यन्त भयंकर माया फैला रक्खी थी। ‘निश्चय ही वह राक्षसी, यक्षी अथवा भयंकर पिशाची थी- इसमें विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं कि वह सारा पाप पूर्ण कृत्य उसी का किया हुआ है। उसने हमें अनेक प्रकार का दुःख दिया और प्रायः सारे दल का विनाश कर दिया। वह पापिनी समूचे सार्थ के लिये अवश्य ही कृत्या बनकर आयी थी। यदि हम उसे देख लेंगे तो ढेलों से, धूल और तिलकों से, लकडि़या और मुक्कों से भी अवश्य मार डालेंगे।

उनका वह अत्यन्त भयंकर वचन सुनकर दमयन्ती लज्जा से गड़ गयी भय से व्याकुल हो उठी। उनके पापपूर्ण संकल्प के संघटित होने की आशंका करके वह उसी ओर भाग गयी, जहाँ घना जंगल था। वहाँ जाकर अपनी इस परिस्थितियों पर विचार करके वह विलाप करने लगी- ‘अहो! मुझ पर विधाता का अत्यन्त भयानक और महान कोप है, जिससे मुझे कहीं भी कुशल-क्षेम की प्राप्ति नहीं होती। न जाने, यह हमारे किस कर्म का फल है ? ‘मैंने मन, वाणी और क्रिया द्वारा कभी किसी का थोड़ा-सा भी अमंगल किया हो, इसकी याद नहीं आती, फिर यह मेरे किस कर्म का फल मिल रहा है ? ‘निश्चय ही यह मेरे दूसरे जन्मों के किये हुए पाप का महान फल प्राप्त हुआ है, जिससे मैं इस अनन्त कष्ट में पड़ गयी हूँ। ‘मेरे स्वामी के राज्य का अपहरण हुआ, उन्हें आत्मीय जन से ही पराजित होना पड़ा, मेरा अपने पति देव से वियोग हुआ और अपनी संतानों के दर्शन से भी वंचित हो गयी हूँ।[3]‘इतना ही नहीं, असंख्य सर्प आदि जन्तुओं से भरे हुए इस वन में मुझे अनाथ की-सी दशा में रहना पड़ता हैं,। तदनन्तर दूसरा दिन प्रारम्भ होने पर मरने से बचे हुए लोग उस स्थान से निकलकर उस विकट संहार के लिये शोक करने लगे। राजन कोई भाई के लिये दुखी था, कोई पिता के लिये ; किसी को पुत्र का शोक था और किसी को मित्र का। विदर्भराजकुमारी दमयन्ती भी इसके लिये शोक करने लगी कि ‘मैंने कौन सा पाप किया है, जिससे इन निर्जन वन में मुझे जो यह समुद्र के समान जनसमुदाय प्राप्त हो गया था, वह भी मेरे ही दुभाग्य के झुंड द्वारा मारा गया। निश्चय ही मुझे अभी दीर्घकाल तक दुःख-ही-दुःख भोगना है।

‘जिनकी मृत्यु समय नहीं आया है, वह इच्छा होते हुए भी मर नहीं सकता। वृद्ध पुरुषों का यह जो उपदेश मैंने सुन रक्खा है, यह ठीक ही जान पड़ता है, तभी तो आज मैं दुःखित होने पर भी हाथियों के झुंड से कुचल कर मर न सकी। मनुष्यों को इस जगत में कोई भी सुख या दुःख ऐसा नहीं मिलता, जो विधाता का दिया हुआ न हो। मैंने बचपन में भी मन, वाणी अथवा क्रियाओं ऐसा पाप नहीं किया है, जिससे मुझे यह दुःख प्राप्त होता। ‘मैं समझती हूं, स्वयंवर के लिये जो लोकपाल देवगण पधारे थे, नल के कारण मैंने उसका तिरस्कार कर दिया था। अवश्य उन्हीं देवताओं के प्रभाव से आज मुझे वियोग का कष्ट प्राप्त हुआ है।’ इस प्रकार दुःख से आतुर हुई सुन्दरी पतिव्रता दमयन्ती ने उस समय अनेक प्रकार से विलाप एवं प्रलाप किये।

नृपश्रेष्ठ! तदनन्तर मरने से बचे हुए वेदों के पारंगत विद्वान ब्राह्मणों के साथ यात्रा करती हुई शरत्काल के चन्द्रमा की कला के समान वह सुन्दरी थोड़े ही समय में संध्या होते होते सत्यदर्शी चेदिराज सुबाहु ही राजधानी में जा पहुँची। शरीर में आधी साड़ी को लपेटे हुए ही उसने उस उत्तम नगर में प्रवेश किया। वह विहृल, दीन और दुर्बल हो रही थी। उसके सिर के बाल खुले हुए थे। उसने स्नान नहीं किया था। पुरवासियों ने उसे उन्मत्ता की भाँति जाते देखा। चेदिनरेश की राजधानी में उसे प्रवेश करते देख उस समय बहुत-से ग्रामीण बालक कौतूहलवश उसके साथ हो लिये थे। उनसे घिरी हुई दमयन्ती राजमहल के समीप गयी। उस समय राजमाता ने उसे महल पर से देखा। वह जनसाधारण से घिरी हुई थी। राजमाता ने धाय से कहा ‘जाओ, इस युवती को मेरे पास ले आओ।

‘इसे लोग तंग कर रहे हैं। वह दुःखिनी युवती कोई आश्रम चाहती है। मुझे इसका रूप ऐसा दिखायी देता है, जो मेरे घर को प्रकाशित कर लेगा। ‘इसका वेष तो उन्मत्त के समान है, परन्तु यह विशाल नेत्रों वाली युवती कल्याणमयी लक्ष्मी के समान जान पड़ती हैं।’ धाय उन सब लोगों को हटाकर उसे उत्तम राजमहल की अट्टालिका पर चढ़ा ले आयी। राजन! तत्पश्चात् विस्मित होकर राजमाता ने दमयन्ती से पूछा- ‘अहो! तुम इस प्रकार दुःख से दबी होने पर भी इतना सुन्दर रूप कैसे धारण करती हो ?[4]

मेघमाला के प्रकाशित होने वाली बिजली की भाँति तुम इस दुःख में भी कैसी तेजस्विनी दिखायी देती हो। मुझसे बताओ, तुम कौन हो? किसकी स्त्री हो,? यद्यपि तुम्हारे शरीर पर कोई आभूषण नहीं है तो भी तुम्हारा यह रूप मानव-जगत का नहीं जान पड़ता। देवता की-सी दिव्य कांति धारण करने वाली वत्से! तुम असहाय-अवस्था में हो कर भी लोगों से डरती क्यों नहीं हो ?’ उसकी वह बात सुनकर भीमकुमारी ने कहा- ‘माताजी! आप मुझे मानव-कन्या ही समझिये। मैं अपने पति के चरणों में अनुराग रखने वाली एक नारी हूँ। मेरी अन्तःपुर में काम करने वाली सैरन्ध्री जाति है। मैं सेविका हूँ और जहाँ इच्छा होती है, वहीं रहती हूँ। ‘मैं अकेली हूँ फल-मूल खाकर जीवन निर्वाह करती हूँ और जहाँ सांझ होती है, वहीं टिक जाती हूँ।

मेरे स्वामी में असंख्य गुण हैं, उनका मेरे प्रति सदा अत्यन्त अनुराग है। ‘जैसे छाया राह चलने वाले पथिक के पीछे-पीछे चलती है, उसी प्रकार मैं भी अपने वीर पतिदेव में भक्ति भाव रखकर सदा उन्हीं का अनुसरण करती हूँ। र्दुभाग्यवश एक दिन मेरे पतिदेव जूआ खेलने में अत्यन्त आसक्त हो गये। ‘और उसी में अपना सब कुछ हार कर वे अकेले ही वन की ओर चले दिये। एक वस्त्र धारण किये उन्मत्त और विहृल हुए अपने वीर स्वामी को सान्त्वना देती हुई मैं भी उनके साथ वन में चली गयी। एक दिन की बात हैं, मेरे वीर स्वामी किसी कारणवश वन में गये। ‘उत्तम समय वे भूख से पीड़ित और अनमने हो रहे थे। अतः उन्होंने अपने उस एक वस्त्र को भी कहीं वन में छोड़ दिया। मेरे शरीर पर भी एक ही वस्त्र था। वे नग्न, उन्मत्त-जैसे और अचेत हो रहे थे। उसी दशा में सदा उनका अनुसरण करती हुई अनेक रात्रियों तक कभी सो न सकी! तदनन्तर बहुत समय के पश्चात् एक दिन जब मैं सो गयी थी, उन्होंने मेरी आधी साड़ी फाड़ ली और मुझ निरपराधिनी पत्नी को वहीं छोड़कर वे कहीं चल दिये। मैं दिन-रात वियोगाग्नि में जलती हुई निरन्तर उन्हीं पतिदेव को ढूंढ़ती फिरती हूँ। ‘मेरे प्रियतम की कांति कमल के भीतरी भाग के समान है। वे देवताओं के समान तेजस्वी, मेरे प्राणों के स्वामी और शक्तिशाली हैं। बहुत खोजने पर भी मैं अपने प्रिय को न तो देख सकी हूँ और न उनका पता ही पा रहीं हूं’।

भीमकुमारी दमयन्ती के नेत्रों में आंसू भरे हुए थे एवं वह आर्तस्वर से बहुत विलाप कर रही थी। राजमाता स्वयं भी उनके दुःख से दुखी हो बोली-‘कल्याणि! तुम मेरे पास रहो। तुम पर मेरा बहुत प्रेम है। भद्रे! मेरे सेवक तुम्हारे पति की खोज करेंगे। ‘अथवा यह भी सम्भव है, वे इधर-उधर भटकते हुए स्वयं ही इधर आ निकलें। भद्रे तुम यहीं रहकर अपने पति को प्राप्त कर लोगी’। राजमाता की यह बात सुनकर दमयन्ती ने कहा- ‘वीरमातः मैं एक नियम के साथ आपके यहाँ रह सकती हूँ। ‘मैं किसी का जूठा नहीं खाऊंगी, किसी के पैर नहीं धोऊंगी और किसी भी दूसरे पुरुष से किसी तरह भी वार्तालाप नहीं करूंगी। ‘यदि कोई पुरुष मुझे प्राप्त करना चाहे तो वह आपके द्वारा दण्डनीय हो और बार-बार ऐसे अपराध करने वाले मूढ़ को आप प्राणदण्ड भी दें, यही मेरा निश्चित व्रत है।[5]

‘मैं अपने पति की खोज के लिये केवल ब्राह्मणों से मिल सकती हूँ। यदि यहाँ ऐसी व्यवस्था हो सके तो निश्चय ही आपके निकट निवास करूंगी। इसमें संशय नहीं हैं।

‘यदि इसके विपरित कोई बात हो तो कहीं तो रहने का मेरे मन में संकल्प नहीं हो सकता। ’यह सुनकर राजमाता प्रसन्नचित्त होकर उससे बोली- ‘बेटी! मैं यह सब करूंगी। सौभाग्य की बात है कि तुम्हारा व्रत ऐसा उत्तम है।’ राजा युधिष्ठिर! दमयन्ती से ऐसा कहकर राजमाता अपनी पुत्री सुनन्दा से बोली- ‘सुनन्दे! इस सैरन्ध्री को तुम देवीस्वरूपा समझो।

‘यह अवस्था में तुम्हारे समान है, अतः तुम्हारी सखी होकर रहे। तुम इसके साथ सदा प्रसन्नचित एवं आनंदमग्न रहो’। तब सखियों से घिरी हुई सुनन्दा अत्यन्त हषोल्लास में भरकर दमयन्ती को साथ ले अपने भवन में आयी।

सुनन्दा दमयन्ती के इच्छानुसार सब प्रकार की व्यवस्था करके उसे बड़े आदर-सत्कार के साथ रखने लगी। इससे दमयन्ती को बड़ी प्रसन्नता हुई और वह वहाँ उद्वेग रहित हो रहने लगी।[6]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत वन पर्व अध्याय 65 श्लोक 1-16
  2. उस यात्री दल
  3. महाभारत वन पर्व अध्याय 65 श्लोक 17-34
  4. महाभारत वन पर्व अध्याय 65 श्लोक 35-52
  5. महाभारत वन पर्व अध्याय 65 श्लोक 53-69
  6. महाभारत वन पर्व अध्याय 65 श्लोक 70-76

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जटासुरवध पर्व
जटासुर द्वारा द्रौपदी, युधिष्ठिर, नकुल एवं सहदेव का हरण | भीमसेन द्वारा जटासुर का वध
यक्षयुद्ध पर्व
पांडवों का नरनारायणाश्रम से वृषपर्वा के जाना | पांडवों का राजर्षि आर्ष्टिषेण के आश्रम पर जाना | आर्ष्टिषेण का युधिष्ठिर के प्रति उपदेश | पांडवों का आर्ष्टिषेण के आश्रम पर निवास | भीमसेन द्वारा मणिमान का वध | कुबेर का गंधमादन पर्वत पर आगमन | कुबेर की युधिष्ठिर से भेंट | कुबेर का युधिष्ठिर आदि को उपदेश तथा सान्त्वना | धौम्य द्वारा मेरु शिखरों पर स्थित ब्रह्मा-विष्णु आदि स्थानों का वर्णन | धौम्य का युधिष्ठिर से सूर्य-चन्द्रमा की गति एवं प्रभाव का वर्णन | पांडवों की अर्जुन के लिए उत्कंठा
निवातकवच युद्ध पर्व
अर्जुन का स्वर्गलोक से आगमन तथा भाईयों से मिलन | इन्द्र का आगमन तथा युधिष्ठिर को सान्त्वना देना | अर्जुन का अपनी तपस्या यात्रा के वृत्तान्त का वर्णन | अर्जुन द्वारा शिव से संग्राम एवं पाशुपतास्त्र प्राप्ति की कथा | अर्जुन का युधिष्ठिर से स्वर्गलोक में प्राप्त अपनी अस्त्रविद्या का कथन | अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्ध की तैयारी का कथन | अर्जुन का पाताल में प्रवेश | अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्धारम्भ | अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध | अर्जुन के साथ निवातकवचों के मायामय युद्ध का वर्णन | अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध | अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध | इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन | युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा | नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत | पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान | पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास | पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश | द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना | भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना | भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप | युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज | युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना | सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश | पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन | तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य | ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा | तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद | वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा | चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन | प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन | मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन | मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप | बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना | मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन | युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन | कल्कि अवतार का वर्णन | भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश | इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह | शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता | इन्द्र और बक मुनि का संवाद | सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा | ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान | सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र | इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा | नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन | इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा | मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन | मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन | उत्तंक मुनि की कथा | उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह | ब्रह्मा की उत्पत्ति | विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध | धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति | कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध | कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति | पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य | कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान | कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना | धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा | धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन | धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश | धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना | धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार | अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना | अंगिरा की संतति का वर्णन | बृहस्पति की संतति का वर्णन | पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति | पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन | अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन | सह अग्नि का जल में प्रवेश | अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य | इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार | इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना | अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन | स्कन्द की उत्पत्ति | स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण | विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना | अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना | इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान | स्कन्द के पार्षदों का वर्णन | स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप | स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक | स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह | कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति | मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन | स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार | रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा | देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध | कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा | द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा | सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार | शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना | दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना | दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति | द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद | कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय | गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण | कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश | पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध | पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय | चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा | दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन | दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना | दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश | कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय | दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना | दैत्यों का दुर्योधन को समझाना | दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान | भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव | कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान | कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय | कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार | दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी | दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति | कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा | युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन | व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन | दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा | महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना | देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन | व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार | दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना | द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना | कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना | जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना | कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना | द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर | जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद | जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण | पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना | द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन | पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार | युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना | भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना | शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना | राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन | रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति | कुबेर का रावण को शाप देना | देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना | राम के राज्याभिषेक की तैयारी | राम का वन को प्रस्थान | भरत की चित्रकूट यात्रा | राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप | राम द्वारा मारीच का वध | रावण द्वारा सीता का अपहरण | रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार | राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध | राम और सुग्रीव की मित्रता | राम द्वारा बाली का वध | अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन | रावण और सीता का संवाद | राम का सुग्रीव पर कोप | सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना | हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना | वानर सेना का संगठन | नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण | विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश | अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना | राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम | राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध | प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध | रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना | कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध | इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा | राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना | लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध | रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना | राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध | राम का सीता के प्रति संदेह | देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन | राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक | मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति | सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण | सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय | सावित्री और सत्यवान का विवाह | सावित्री की व्रतचर्या | सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना | सावित्री और यम का संवाद | यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना | सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप | राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता | सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन | द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना | कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना | सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश | कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय | कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन | कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना | कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या | कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश | कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन | कुन्ती-सूर्य संवाद | सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन | कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप | अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति | कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन | कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति | इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग | युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश | नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना | यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद | यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर | युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना | यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना | युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना | भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

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