- महाभारत वनपर्व के अर्जुनभिगमनपर्व के अंतर्गत अध्याय तीस में द्रौपदी का युधिष्ठिर और ईश्वर न्याय पर आक्षेप का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से द्रौपदी का युधिष्ठिर और ईश्वर न्याय पर आक्षेप के वर्णन की कथा कही है।[1]
विषय सूची
द्रौपदी-यधिष्ठिर संवाद
द्रौपदी ने कहा-राजन! उस धाता (ईश्वर) और विधाता (प्रारब्ध) को नमस्कार है, जिन्होंने आपकी बुद्धि में मोह उत्पन्न कर दिया। पिता-पितामहों के आचार का भार वहन करने में भी आपका विचार विपरीत दिखायी देता है। कर्मों के अनुसार उत्तम, मध्यम, अधम, योनि में भिन्न-भिन्न लोकों की प्राप्ति बतलायी गयी है, अतः कर्म नित्य हैं (भोगे बिना उन कर्मों का क्षय नहीं होता)। मूर्ख लोग लोभ से ही मोक्ष पाने की इच्छा रखते हैं। इस जगत में धर्म, कोमलता, क्षमा, विनय, और दया से कोई भी मनुष्य कभी धन और ऐश्वर्य की प्राप्ति नहीं कर सकता। भारत! इसी कारण तो आप पर भी यह दुःसह संकट आ गया, जिसके योग्य न तो आप हैं और न आपके महातेजस्वी ये भाई ही हैं। भरतकुलतिलक! आपके भाइयों ने न तो पहले कभी और न आज ही धर्म से अधिक प्रिय दूसरी किसी वस्तु को समझा है। अपितु धर्म को जीवन से भी बढ़कर माना है। आपका राज्य धर्म के लिये ही है, आपका जीवन भी धर्म के ही लिये है। ब्राह्मण, गुरुजन और देवता सभी इस बात को जानते हैं। मुझे विश्वास है कि आप मेरे सहित भीमसेन, अर्जुन और नकुल-सहदेव का भी त्याग कर देंगे; किंतु धर्म का त्याग नहीं करेंगे। मैंने आर्यों के मुँह से सुना है कि यदि धर्म की रक्षा की जाये तो वह धर्मरक्षक राजा की स्वयं भी रक्षा करता है। किंतु मुझे मालूम होता है कि वह आपकी रक्षा नहीं कर रहा है। नरश्रेष्ठ! जैसे अपनी छाया सदा मनुष्य के पीछे चलती है, उसी प्रकार आपकी बुद्धि सदा अनन्य भाव से धर्म का ही अनुसरण करती है। आपने अपने समान और अपने से छोटों का भी कभी अपमान नहीं किया। फिर अपने से बड़ों का तो करते ही कैसे? सारी पृथ्वी का राज्य पाकर भी आपका प्रभुताविषयक अहंकार कभी नहीं बढ़ा। कुन्तीनन्दन! आप स्वाहा, स्वधा, और पूजा के द्वारा देवताओं, पितरों और ब्राह्मणों की सदा सेवा करते रहते हैं। पार्थ! आपने ब्राह्मणों की समस्त कामनाएँ पूरी करके सदा उन्हें तृप्त किया है। भारत! आपके यहाँ मोक्षाभिलाषी संन्यासी तथा गृहस्थ ब्राह्मण सोने के पात्रों में भोजन करते थे। जहाँ मैं स्वयं अपने हाथों उनकी सेवा-टहल करती थी। वानप्रस्थों को भी आप सोने के पात्र दिया करते थे। आपके घर में कोई ऐसी वस्तु नहीं थी, जो ब्राह्मणों के लिये अदेय हो। राजन! आपके द्वारा शान्ति के लिये जो घर में यह वैश्व-देव कर्म किया जाता है, उसमें अथियों और प्राणियों के लिये अन्न देकर आप अवशिष्ट अन्न के द्वारा जीवन-निर्वाह किया करते हैं। इष्टि (पूजा), पशुबन्ध (पशुओं का बाँधना), काम्य याग, नैमित्तिक याग, पाकयज्ञ तथा नित्यज्ञ- ये सब भी आपके यहाँ बराबर चलते रहते हैं। आप राज्य से निकलकर लुटेरों द्वारा सेवित इस निर्जन महावन में निवास कर रहे हैं, तो भी आपका धर्मकार्य कभी शिथिल नहीं हुआ है। अश्वमेघ, राजसूय, पुण्डरीक तथा गोसव इन सभी महायज्ञों का आपने प्रचुर दक्षिणा- दानपूर्वक अनुष्ठान किया है।[1]
परंतु महाराज! उस कपट द्यूत जनित पराजय के समय आपकी बुद्धि विपरीत हो गयी, जिसके कारण आप राज्य, धन, आयुध तथा भाइयों और मुझे भी दाँव पर रखकर हार गये। आप सरल, कोमल, उदार, लज्जाशील, और सत्यवादी हैं। न जाने कैसे आपकी बुद्धि में जुआ खेलने का व्यसन आ गया। आपके इस दुःख और भयंकर विपत्ति को विचार कर अत्यन्त मोह प्राप्त हो रहा है और मेरा मन दुःख से पीडित हो रहा है। इस विषय में लोग इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण देते हैं, जिसमें कहा गया है कि सब लोग ईश्वर के वश में हैं, कोई भी स्वाधीन नहीं है। विधाता ईश्वर ही सबके पूर्वकर्मों के अनुसार प्राणियों के लिये सुख- दुःख, प्रिय- अप्रिय की व्यवस्था करते हैं। नरवीर नरेश! जैसे कठपुतली सूत्राधार से प्रेरित हो अपने अंगो का संचालन करती है, उसी प्रकार यह सारी प्रजा ईश्वर की प्रेरणा से अपने हस्त-पाद आदि अंगों द्वारा विविध चेष्टाएँ करती हैं। भारत! ईश्वर आकाश के समान सम्पूर्ण प्राणियों में व्याप्त होकर उनके कर्मानुसार सुख-दुःख का विधान करते हैं।जीव स्वतन्त्र नहीं है, वह डोरे में बँधे हुए पक्षी की भाँति कर्म के बन्धन में बँधा होने से परतन्त्र है। वह ईश्वर के ही वश में होता है। उसका न तो दूसरों पर वश चलता है, न अपने ऊपर।
सूत में पिरोयी हुई मणि, नाक में नथे हुए बैल और किनारे से टूटकर बीच में गिरे हुए वृक्ष की भाँति यह सदा ईश्वर के आदेश का ही अनुसरण करता है; क्योंकि वह उसी से व्याप्त और उसी के अधीन है। यह मनुष्य स्वाधीन होकर समय को नहीं बिताता। यह जीव अज्ञानी तथा अपने सुख- दुःख के विधान में भी असमर्थ है। यह ईश्वर से प्ररित होकर ही स्वर्ग एवं नरक में जाता है। भारत! जैसे क्षुद्र तिनके बलवान वायु के वश में हो उड़ते-फिरते हैं, उसी प्रकार समस्त प्राणी ईश्वर के अधीन हो आवागमन करते हैं। कोई श्रेष्ठ कर्म में लगा हुआ हो चाहे पापकर्म में, ईश्वर सभी प्राणियों में व्याप्त होकर विचरते हैं; किंतु वे यही हैं। इस प्रकार उनका लक्ष्य नहीं होता। यह क्षेत्रसंज्ञक शरीर ईश्वर का साधनमात्र है, जिसके द्वारा वे सर्वव्यापी परमेश्वर प्राणियों से स्वेच्छाप्रारब्ध रूप शुभाशुभ फल भुगताने वाले कर्मों का अनुष्ठान करवाते हैं। तत्त्वदर्शी मुनियों ने वस्तुओं के स्वरूप कुछ और प्रकार से देखे हैं; किंतु अज्ञानियों के सामने किसी और रूप में आभासित होते हैं। जैसे आकाशचारी सूर्य की किरणें मरुभूमि में पड़कर जल के रूप में प्रतीत होने लगती हैं। लोग भिन्न-भिन्न वस्तुओं को भिन्न-भिन्न रूपों में मानते हैं; परंतु शक्तिशाली परमेश्वर उन्हें और ही रूप में बनाते हैं और बिगाड़ते हैं। महाराज युधिष्ठिर! जैसे अचेतन एवं चेष्टरहित काठ, पत्थर और लोहे को मनुष्य काठ, पत्थर और लोहे से ही काट देता है, उसी प्रकार सबके पितामह स्वयम्भू भगवान श्रीहरि माया की आड़ लेकर प्राणियों से ही प्राणियों का विनाश करते हैं। जैसे बालक खिलौना खेलता है, उसी प्रकार स्वेच्छानुसार कर्म ( भाँति-भाँति की लीलाएँ ) करने वाले शक्तिशाली भगवान सब प्राणियों के साथ उनका परस्पर संयोग-वियोग कराते हुए लीला करते रहते हैं।[2]
ईश्वर के न्याय पर आक्षेप
राजन! मैं समझती हूँ, ईश्वर समस्त प्राणियों के प्रति माता-पिता के समान दया एवं स्नेहयुक्त बर्ताव नहीं कर रहे हैं, वे तो दूसरे लोगों की भाँति मानो रोष से ही व्यवहार कर रहे हैं। क्योंकि जो लोग श्रेष्ठ, शीलवान और संकोची हैं, वे तो जीविका के लिये कष्ट पा रहे हैं; किन्तु जो अनार्य ( दुष्ट ) हैं, वे सुख भोगते हैं; यह सब देखकर मेरी उक्त धारणा पुष्ट होती है और मैं चिन्ता से विहल-सी हो रही हूँ। कुन्तीनन्दन! आपकी इस आपत्ति को तथा दुर्योधन की समृद्धि को देखकर मैं उस विधाता की निन्दा करता हूँ, जो विषम दृष्टि से देख रहा है अर्थात सज्जन को दुःख और दुर्जन को सुख देकर उचित विचार नहीं कर रहा है। जो आर्य शास्त्रों की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला, क्रूर, लोभी तथा धर्म की हानि करने वाला है, उस धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन को धन देकर विधाता क्या फल पाता है? यदि किया हुआ कर्म कर्ता का ही पीछा करता है, दूसरे के पास नहीं जाता,तब तो ईश्वर भी उस पापकर्म में अवश्य लिप्त होंगे। इसके विपरीत, यदि किया हुआ पाप-कर्म कर्ता को नहीं प्राप्त होता तो इसका कारण यहाँ बल ही है।[3] उस दशा में मुझे दुर्बल मनुष्यों के लिये शोक हो रहा है।[4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत वन पर्व अध्याय 30 श्लोक 1-17
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 30 श्लोक 18-37
- ↑ ईश्वर शक्तिशाली हैं, इसीलिये उन्हें पापकर्म का फल नहीं मिलता होगा
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 30 श्लोक 38-42
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| हनुमान द्वारा भीमसेन को विशाल रूप का प्रदर्शन
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| क्रोधवश राक्षसों का भीमसेन से सामना
| भीमसेन द्वारा क्रोधवश राक्षसों की पराजय
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यक्षयुद्ध पर्व
पांडवों का नरनारायणाश्रम से वृषपर्वा के जाना
| पांडवों का राजर्षि आर्ष्टिषेण के आश्रम पर जाना
| आर्ष्टिषेण का युधिष्ठिर के प्रति उपदेश
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| भीमसेन द्वारा मणिमान का वध
| कुबेर का गंधमादन पर्वत पर आगमन
| कुबेर की युधिष्ठिर से भेंट
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| धौम्य का युधिष्ठिर से सूर्य-चन्द्रमा की गति एवं प्रभाव का वर्णन
| पांडवों की अर्जुन के लिए उत्कंठा
निवातकवच युद्ध पर्व
अर्जुन का स्वर्गलोक से आगमन तथा भाईयों से मिलन
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| अर्जुन का अपनी तपस्या यात्रा के वृत्तान्त का वर्णन
| अर्जुन द्वारा शिव से संग्राम एवं पाशुपतास्त्र प्राप्ति की कथा
| अर्जुन का युधिष्ठिर से स्वर्गलोक में प्राप्त अपनी अस्त्रविद्या का कथन
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्ध की तैयारी का कथन
| अर्जुन का पाताल में प्रवेश
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्धारम्भ
| अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध
| अर्जुन के साथ निवातकवचों के मायामय युद्ध का वर्णन
| अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध
| अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध
| इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन
| युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा
| नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत
| पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान
| पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास
| पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश
| द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना
| भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना
| भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप
| युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज
| युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना
| सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश
| पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन
| तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य
| ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा
| तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद
| वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा
| चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन
| प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप
| बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना
| मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन
| युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन
| कल्कि अवतार का वर्णन
| भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश
| इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह
| शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता
| इन्द्र और बक मुनि का संवाद
| सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा
| ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान
| सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र
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| मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन
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| अंगिरा की संतति का वर्णन
| बृहस्पति की संतति का वर्णन
| पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति
| पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन
| अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन
| सह अग्नि का जल में प्रवेश
| अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य
| इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार
| इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना
| अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन
| स्कन्द की उत्पत्ति
| स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण
| विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना
| अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना
| इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान
| स्कन्द के पार्षदों का वर्णन
| स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप
| स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक
| स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह
| कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति
| मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन
| स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार
| रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा
| देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध
| कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा
| द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा
| सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार
| शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना
| दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना
| दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति
| द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद
| कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय
| गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण
| कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश
| पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध
| पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय
| चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा
| दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन
| दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना
| दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश
| कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय
| दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना
| दैत्यों का दुर्योधन को समझाना
| दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान
| भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव
| कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान
| कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय
| कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार
| दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी
| दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति
| कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा
| युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन
| व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन
| दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा
| महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना
| देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार
| दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना
| द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना
| कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना
| जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना
| कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना
| द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर
| जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद
| जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण
| पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना
| द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन
| पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार
| युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना
| भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना
| शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना
| राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन
| रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति
| कुबेर का रावण को शाप देना
| देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना
| राम के राज्याभिषेक की तैयारी
| राम का वन को प्रस्थान
| भरत की चित्रकूट यात्रा
| राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप
| राम द्वारा मारीच का वध
| रावण द्वारा सीता का अपहरण
| रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार
| राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध
| राम और सुग्रीव की मित्रता
| राम द्वारा बाली का वध
| अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन
| रावण और सीता का संवाद
| राम का सुग्रीव पर कोप
| सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना
| हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना
| वानर सेना का संगठन
| नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण
| विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश
| अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना
| राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम
| राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध
| प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध
| रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना
| कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध
| इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा
| राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना
| लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध
| रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना
| राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध
| राम का सीता के प्रति संदेह
| देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन
| राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक
| मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति
| सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण
| सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय
| सावित्री और सत्यवान का विवाह
| सावित्री की व्रतचर्या
| सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना
| सावित्री और यम का संवाद
| यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना
| सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप
| राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता
| सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन
| द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना
| कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना
| सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश
| कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय
| कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन
| कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना
| कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या
| कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश
| कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन
| कुन्ती-सूर्य संवाद
| सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
| कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप
| अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति
| कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन
| कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति
| इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग
| युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश
| नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना
| यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद
| यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
| युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना
| यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना
| युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना
| भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श
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