- महाभारत वनपर्व के 'अर्जुनाभिगमनपर्व' के अंतर्गत अध्याय 33 में भीमसेन द्वारा युधिष्ठिर से क्षत्रिय धर्म अपनाने का अनुरोध किया गया है, जिसका उल्लेख निम्न प्रकार है[1]-
भीमसेन, युधिष्ठिर से कहते है- ‘इसी दशा में यदि हम पीठ न दिखाकर युद्ध में निष्कपट भाव से लड़ते रहे और उसमें हमारा वध भी हो जाये, तो वह कल्याणकारक है; क्योंकि मरने से हमें उत्तम लोकों की प्राप्ति होगी। ‘अथवा भरतश्रेष्ठ! यदि हम ही इन शत्रुओं को मारकर सारी पृथ्वी ले लें तो वही हमारे लिये कल्याणकर है। ‘हम अपने क्षत्रिय-धर्म के अनुष्ठान में संलग्न हो वैर का बदला लेना चाहते हैं और संसार में महान् यश का विस्तार करने की अभिलाषा रखते है, अतः हमारे लिये सब प्रकार से युद्ध करना ही उचित है। ‘शत्रुओं ने हमारे राज्य को छिन लिया है, ऐसे अवसर पर यदि हम अपने कर्तव्य को समझकर अपने लाभ के लिये ही युद्ध करें तो भी इसके लिये जरात् में हमारी प्रशंसा ही हागी, निंदा नहीं होगी।‘महाराज! जो धर्म अपने तथा मित्रों के लिये क्लेश उत्पन्न करने वाला हो, वह तो संकट ही है। वह धर्म नहीं, कुधर्म है। ‘तात! जैसे मुर्दो को दु‘ख और सुख दोनों ही नहीं होते, उसी प्रकार जो सर्वथा और सर्वदा धर्म में ही तत्पर रहकर उनके अनुष्ठान से दुर्बल हो गया है, उसे धर्म और अर्थ दोनों त्याग देते हैं। जिसका धर्म केवल धर्म के लिये ही होता है, वह धर्म के नामपर केवल क्लेश उठानेवाला मानव बुद्धिमान् नहीं है। जैसे अन्धा सूर्य की प्रभा को नहीं जानता, उसी प्रकार वह धर्म के अर्थ को भी नहीं समझता है। ‘जिसका धन केवल धन के लिये है, दान आदि के लिये नहीं है, वह धन के तत्त्व को नहीं जानता। जैसे सेवक (ग्वालिया) वन में गौओं की रक्षा करता है, उसी प्रकार वह उस धन का दूसरे के लिये रक्षकमात्र है। ‘जो केवल अर्थ के ही संग्रह की अत्यन्त इच्छा दखने वाला है और धर्म एवं काम का अनुष्ठान नहीं करता है, वह ब्रह्म हत्यारे के समान घृणापात्र है और सभी प्राणियों के लिये वध्य है। ‘इसी प्रकार जो निरन्तर काम की ही अभिलाषा रखकर धर्म और अर्थ का सम्पादन नहीं करता, उसके मित्र नष्ट हो जाते हैं[2]और यह धर्म एवं अर्थ दोनों से वंचित ही रह जाता है। ‘जैसे पानी सूख जाने पर उसमें रहनेवाली मछली की मृत्यु निश्चित है, उसी प्रकार जो धर्म अर्थ से हीन होकर केवल काम में ही रमण करता है, उस काम (भोगसामग्री) की समाप्ति होने पर उसकी भी अवश्य मृत्यु हो जाती है। ‘इसलिये विद्वान् पुरुष कभी धर्म और अर्थ के सम्पादन में प्रमाद नहीं करते हैं धर्म और अर्थ काम की उत्पत्ति के स्थान हैं[3]जैसे अरणि अग्नि का उत्पत्ति स्थान है। ‘अर्थ का कारण है धर्म और धर्म सिद्ध होता है अर्थ-संग्रह से। जैसे मेघ से समुद्र की पुष्टि होती है और समुद्र से मेघ की पूर्ति। इस प्रकार धर्म और अर्थ को एक-दूसरे के आश्रित समझना चाहिये। ‘स्त्री, माला, चन्दन आदि द्रव्यों के स्पर्श और सुवर्ण आदि धन के लाभ से जो प्रसन्नता होती है, उसके लिये जो चित्त में संकल्प उठता है, उसी का नाम काम है। उस काम का शरीर नहीं देखा जाता[4]। ‘
राजन्! धन की इच्छा रखनेवाले पुरुष महान् धर्म की अभिलाषा रखता है और कामार्थी मनुष्य धन चाहता है जैसे धर्म से धन की और धन से काम की इच्छा करता है, उस प्रकार वह काम से किसी दूसरी वस्तु की इच्छा नहीं करता है। ‘जैसे फल उपभोग में आकर कृतार्थ हो जाता है, उससे दूसरा फल नहीं प्राप्त हो सकता तथा जिस प्रकार काष्ठ से भस्म बन सकता है; इसी तरह बुद्धिमान् पुरुष एक काम से किसी दूसरे काम की सिद्धि नहीं मानते, क्योंकि वह साधन नहीं, फल ही है। ‘राजन्! जैसे पक्षियों को मारने वाला व्याध इन पक्षियों को मारता है, यह विशेष प्रकार ही हिंसा ही अधर्म का स्वरूप है[5]। वैसे ही जो खोटी बुद्धिवाला मनुष्य काम और लोभ के वंशीभूत होकर धर्म के स्वरूप को नहीं जानता, वह इहलोक और परलोक में भी सब प्राणियों का वध्य होता है। ‘राजन्! आपको यह अच्छी तरह ज्ञात है कि धन से ही भोग्य-साम्रगी का संग्रह होता है और धन के द्वारा जो बहुत-से कार्य सिद्ध होते हैं, उसे भी आप जानते हैं। ‘उस धन का अभाव होने पर अथवा प्राप्त हुए धन का नाश होने पर अथवा स्त्री आदि धन के जरा-जीर्ण एवं मृत्यु-ग्रस्त होने पर मनुष्य की जो दशा होती है, उसी को सब लोग अनर्थ मानते हैं। वही इस समय हमलोगों को भी प्राप्त हुआ है।। ‘पांचों ज्ञानेन्द्रियों, मन और बुद्धि की अपने विषयों में प्रवृत होने के समय जो प्रीति होती है, वही मेरी समझ में काम है। वह कर्मों का उत्तम फल है। इस प्रकार धर्म, अर्थ और काम तीनों को पृथक्-पृथक् समझकर मनुष्य केवल धर्म, केवल अर्थ अथवा केवल काम के ही सेवन में तत्पर न रहे। उन सबका सदा इस प्रकार सेवन करे, जिससे इनमें विरोध न हो। इस विषय शास्त्रों का यह विधान है कि दिन के पूर्वभाग में धर्म का, दूसरे भाग में अर्थ का और अंतिम भाग में काम का सेवन करे। ‘इसी प्रकार अवस्था क्रम में शास्त्र विधान यह है कि आयु के पूर्वभाग में (युवावस्था) काम का, मध्यभाग (प्रौढ़ अवस्था) में धनका तथा अंतिमभाग (वृद्ध-अवस्था) में धर्म का पालन करे। ‘वक्ताओं में श्रेष्ठ! उचित काल का ज्ञान रखनेवाला विद्वान् पुरुष धर्म, अर्थ और काम तीनों का यथावत् विभाग करके उपयुक्त समय पर उन सबका सेवन करे। ‘कुरूनन्दन! निरतिशय सुख की इच्छा रखनेवाले मुमुक्षुओं के लिये यह मोक्ष ही परम कल्याप्रद है। राजन्! इसी प्रकार लौकिक सुख की इच्छावालों के लिये धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्ग की प्राप्ति ही परम श्रेय है। अतः महाराज! भक्ति और योगसहित ज्ञान का आश्रय लेकर आप शीघ्र ही या तो मोक्ष ही प्राप्ति कर लीजिये अथवा धर्म, अर्थ, काम रूप त्रिवर्ग की प्राप्ति के उपाय का अवलम्बन कीजिये। जो इन दोनों के बीच में रहता है, उसका जीवन तो आर्त मनुष्य के समान दुःखमय ही है। ‘मुझे मालूम है कि आपके सदा धर्म का ही आरण किया है, इस बात को जानते हुए भी आपके हितैषी, सगे-सम्बन्धी आप को (धर्मयुक्त) कर्म एवं पुरुषार्थ के लिये ही प्रेरित करते हैं। महाराज! इहलोक और परलोक में भी दान, यज्ञ, संतो का आदर, वेदों का स्वाध्याय और सरलता आदि ही उत्तम एंव प्रबल धर्म माने गये हैं।[6]‘पुरुषसिंह राजन्! यद्यपि मनुष्य के दूसरे सभी गुण मौजूद हों तो भी यह यज्ञ आदि रूप धर्म धनहीन पुरुष के द्वारा नहीं सम्पादित किया जा सकता। ‘महाराज! इस जगत् का मूल कारण धर्म ही है। इस जगत् में धर्म से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। उस धर्म का अनुष्ठान भी महान् धन से ही हो सकता है। ‘राजन्! भीख मांगने से, कायरता दिखाने से अथवा केवल धर्म में ही मन लगाये रहने से धन की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती। नरश्रेष्ठ! ब्राह्मण जिस याचना के द्वारा कार्यसिद्धि कर लेता है वह तो आप कर नहीं सकते, क्योंकि क्षत्रिय के लिये उसका निषेध है। अतः आप अपने तेज के द्वारा ही धन पाने का प्रयत्न कीजिये। ‘क्षत्रिय के लिये न तो भीख मांगने का विधान है और न तो वैश्य और शूद्र की जीविका करने का ही। उसके लिये तो बल और उत्साह ही विशेष धर्म हैं।
युधिष्ठिर, भीमसेन से कहते है- ‘पार्थ! अपने धर्म का आश्रय लीजिये, प्राप्त हुए शत्रुओ का वध कीजिये। मेरे तथा अर्जुन द्वारा धृतराष्ट्र पुत्ररूपी जंगल को कटा डालिये। ‘मनीषी विद्वान् दानशीलता को ही धर्म कहते हैं, अतः आप उस दानशीलता को ही प्राप्त कीजिये। आप को इस दयनीय अवस्था में नहीं रहना चाहिये।
भीमसेन, युधिष्ठिर से कहते है- ‘महाराज! आप सनातन धर्मों को जानते हैं, आप कठोर कर्म करने वाले क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए हैं, जिससे सब लोग भयभीत रहते हैं, अतः अपने स्वरूप और कर्तव्य की ओर ध्यान दीजिये। ‘तब आप राज्य प्राप्त कर लेंगे, उस समय प्रजा पालन रूप धर्म से आपको जिस पुण्य फल की प्राप्ति होगी, वह आपके लिये गर्हित नहीं होगा। महाराज! विधाता ने आप जैसे क्षत्रिय का यही सनतान धर्म नियत किया है।
युधिष्ठिर, भीमसेन से कहते है- ‘पार्थ! उस धर्म के हीन होने पर तो संग्राम में आप उपहास के पात्र हो जायेंगे। मनुष्यों का अपने धर्म से भ्रष्ट होना कुछ प्रशंसा की बात नहीं है। ‘कुरूनन्दन! अपने हृदय को क्षत्रियोचित उत्साह से भरकर मन की इस शिथिलता को दूर करके पराक्रम का आश्रय ले आप एक धुरन्दन वीर पुरुष की भाँति युद्ध का भार वहन कीजिये। ‘आत्मबल ही धन का मूल है, इसके विपरित जो कुछ है, वह मिथ्या है; क्योंकि हेमन्त ऋतु में वृक्षों की छाया के समान वह आत्मा की दुर्बलता किसी भी काम की नहीं है। ‘कुन्तीकुमार! जैसे किसान अधिक अन्नराशि उपजाने की लालसा से धान्य के अल्प बीजों का भूमि में परित्याग कर देता है, उसी प्रकार श्रेष्ठ अर्थ पाने की इच्छा से अल्प अर्थ का त्याग किया जा सकता है। आपको इस विषय में संशय नहीं करना चाहिये। जहाँ अर्थ का उपयोंग करने पर उससे अधिक या समान अर्थ की प्राप्ति न हो वहाँ उस अर्थ को नहीं लगाना चाहिये, क्योंकि वह (परस्पर) गधों के शरीर को खुजलाने के समान व्यर्थ है।
भीमसेन, युधिष्ठिर से कहते है- ‘नरेश्वर! इसी प्रकार जो मनुष्य अल्प धर्म का परित्याग करके महान् धर्म की प्राप्ति करता है, वह निश्चय ही बुद्धिमान् है। ‘मित्रों के सम्पन्न शत्रु को विद्वान् पुरुष अपने मित्रों द्वारा भेदनीति से उसमें और उसके मित्रों में फूट डाल देते हैं, फिर भेदभाव होने पर मित्र जब उसकों त्याग देते हैं, तब वे उस दुर्बल शत्रु को अपने वश में कर लेते हैं। ‘राजन्! अत्यन्त बलवान् पुरुष भी आत्मबल से ही युद्ध करता है, वह किसी अन्य प्रयत्न से या प्रशंसा द्वारा सब प्रजा को अपने वश में नहीं करता। ‘जैसे मधुमक्खियां संगठित होकर मधु निकालने वाले को मार डालती हैं, उसी प्रकार सर्वथा संगठित रहने वाले दुर्बल मनुष्यों द्वारा बलवान् शुत्र भी मारा जा सकता है। राजन्! जैसे भगवान् सूर्य, पृथ्वी के रस को ग्रहण करते और अपनी किरणों द्वारा वर्षा कर के उन सब की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप भी प्रजाओं से कर लेकर उनकी रक्षा करते हुए सूर्य के ही समान हो जाइये। ‘राजेन्द्र! हमोर बाप-दादों ने जो किया है, वह धर्म पूर्वक पृथ्वी का पालन भी प्राचीनकाल से चला आने वाला तप ही है; ऐसा हमने सुना है। ‘धर्मराज! क्षत्रिय तपस्या के द्वारा वैसे पुण्य लोकों को नहीं प्राप्त होता, जिन्हें वह अपने लिये विहित युद्ध के द्वारा विजय अथवा मृत्यु को अंगीकार करने से प्राप्त करता है। ‘आप पर जो वह संकट आया है, उस समभव-सी घटना को देखकर लोग वह निश्चयपूर्वक मानने लगे हैं कि सूर्य से उस की प्रभा और चन्द्रमा से उसकी चांदनी भी दूर हो सकती है। ‘राजन्! साधारण लोग भिन्न-भिन्न सभाओं में सम्मिलित होकर अथवा अलग-अलग समूह-के-समूह इकट्ठे होकर आपकी प्रशंसा और दुर्योधन की निंदा से ही सम्बन्ध रखनेवाली बातें करते हैं। ‘महाराज! इसके सिवा, यह भी सुनने में आया है कि ब्राह्मण और कुरुवंशी एकत्र होकर बड़ी प्रसन्नता के साथ आपकी सत्य प्रतिज्ञा का वर्णन करते हैं। ‘उनका कहना है कि आपके कभी न तो मोह से, न दीनता से, न लोभ से, न भय से, न कामना से और न धन के ही कारण से किंचिन्मात्र भी असत्य भाषण किया है। ‘राजा पृथ्वी को अपने अधिकार में करते समय युद्धजनित हिंसा आदि के द्वारा जो कुछ पाप करता है, वह सब राज्य प्राप्ति के पश्चात् भारी दक्षिणा वाले यज्ञों द्वारा नष्ट कर देता है। ‘नरेश्वर! ब्राह्मण को बहुत-से-गांव और सहस्रों गौएं दान में देकर राजा अपने समस्त पापों से उसी प्रकार मुक्त हो जाता है, जैसे चन्द्रमा अन्धकार से। 'महाराज! केवल धर्म में ही लगे रहनेवाले किसी भी नरेश ने आज तक न तो कभी पृथ्वी पर विजय पायी है और न ऐश्वर्य तथा लक्ष्मी को ही प्राप्त किया है। ‘जैसे बहेलिया लुब्ध हृदय वाले छोटे-छोटे मृगों को कुछ खाने की वस्तुओं का लोभ देकर छल से उन्हें पकड़ लेता है, उसी प्रकार नीतिज्ञ राजा शत्रुओं के प्रति कूटनीति का प्रयोग करके उनसे राज्य को प्राप्त कर लेता है। ‘नृपश्रेष्ठ! आप जानते हैं कि असुरगण देवताओं के बड़े भाई हैं, उन से पहले उत्पन्न हुए हैं और सब प्रकार से समृद्धिशाली हैं तो भी देवताओं ने छल से उन्हें जीत लिया। ‘महाराज! महाबाहो! इस प्रकार बलवान् का ही सब पर अधिकार होता है, यह समझकर आप भी कूटनीति का आश्रय ले अपने शत्रुओं को मार डालिये। ‘युद्ध में अर्जुन के समान कोई धनुर्धर अथवा मेरे समान गदाधारी योद्धा न तो है और न आगे होने की सम्भावना है। ‘पाण्डुनन्दन! अत्यन्त बलवान् पुरुष भी आत्मबल से ही युद्ध करता है, इसलिये आप सावधानी पूर्वक महान् उत्साह और आत्मबल का आश्रय लीजिये[7]।
युधिष्ठिर, भीमसेन से कहते है- ‘आत्मबल ही धन का मूल है, इसके विपरित जो कुछ है, वह मिथ्या है; क्योंकि हेमन्त ऋतु में वृक्षों की छाया के समान वह आत्मा की दुर्बलता किसी भी काम की नहीं है। ‘कुन्तीकुमार! जैसे किसान अधिक अन्नराशि उपजाने की लालसा से धान्य के अल्प बीजों का भूमि में परित्याग कर देता है, उसी प्रकार श्रेष्ठ अर्थ पाने की इच्छा से अल्प अर्थ का त्याग किया जा सकता है। आप को इस विषय में संशय नहीं करना चाहिये। जहाँ अर्थ का उपयोंग करने पर उससे अधिक या समान अर्थ की प्राप्ति न हो वहाँ उस अर्थ को नहीं लगाना चाहिये, क्योंकि वह (परस्पर) गधों के शरीर को खुजलाने के समान व्यर्थ है। ‘नरेश्वर! इसी प्रकार जो मनुष्य अल्प धर्म का परित्याग करके महान् धर्म की प्राप्ति करता है, वह निश्चय ही बुद्धिमान् है। ‘मित्रों के सम्पन्न शत्रु को विद्वान् पुरुष अपने मित्रों द्वारा भेदनीति से उसमें और उसके मित्रों में फूट डाल देते हैं, फिर भेदभाव होने पर मित्र जब उसकों त्याग देते हैं, तब वे उस दुर्बल शत्रु को अपने वश में कर लेते हैं।
भीमसेन, युधिष्ठिर से कहते है- ‘राजन्! अत्यन्त बलवान् पुरुष भी आत्मबल से ही युद्ध करता है, वह किसी अन्य प्रयत्न से या प्रशंसा द्वारा सब प्रजा को अपने वश में नहीं करता। ‘जैसे मधुमक्खियां संगठित होकर मधु निकालने वाले को मार डालती हैं, उसी प्रकार सर्वथा संगठित रहने वाले दुर्बल मनुष्यों द्वारा बलवान् शुत्र भी मारा जा सकता है। राजन्! जैसे भगवान् सूर्य पृथ्वी के रस को ग्रहण करते और अपनी किरणों द्वारा वर्षा करके उन सब की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप भी प्रजाओं से कर लेकर उनकी रक्षा करते हुए सूर्य के ही समान हो जाइये। ‘राजेन्द्र! हमोर बाप-दादों ने जो किया है, वह धर्म पूर्वक पृथ्वी का पालन भी प्राचीन काल से चला आने वाला तप ही है; ऐसा हमने सुना है। ‘धर्मराज! क्षत्रिय तपस्या के द्वारा वैसे पुण्य लोकों को नहीं प्राप्त होता, जिन्हें वह अपने लिये विहित युद्ध के द्वारा विजय अथवा मृत्यु को अंगीकार करने से प्राप्त करता है। ‘आप पर जो वह संकट आया है, उस समभव-सी घटना को देखकर लोग वह निश्चय पूर्वक मानने लगे हैं कि सूर्य से उसकी प्रभा और चन्द्रमा से उसकी चांदनी भी दूर हो सकती है। ‘राजन्! साधारण लोग भिन्न-भिन्न सभाओं में सम्मिलित होकर अथवा अलग-अलग समूह-के-समूह इकट्ठे होकर आपकी प्रशंसा और दुर्योधन की निंदा से ही सम्बन्ध रखने वाली बातें करते हैं। ‘महाराज! इसके सिवा, यह भी सुनने में आया है कि ब्राह्मण और कुरुवंशी एकत्र होकर बड़ी प्रसन्नता के साथ आप की सत्य प्रतिज्ञा का वर्णन करते हैं। ‘उनका कहना है कि आपके कभी न तो मोह से, न दीनता से, न लोभ से, न भय से, न कामना से और न धन के ही कारण से किंचिन्मात्र भी असत्य भाषण किया है। ‘राजा पृथ्वी को अपने अधिकार में करते समय युद्धजनित हिंसा आदि के द्वारा जो कुछ पाप करता है, वह सब राज्य प्राप्ति के पश्चात् भारी दक्षिणा वाले यज्ञों द्वारा नष्ट कर देता है। ‘नरेश्वर! ब्राह्मण को बहुत-से-गांव और सहस्रों गौएं दान में देकर राजा अपने समस्त पापों से उसी प्रकार मुक्त हो जाता है, जैसे चन्द्रमा अन्धकार से[8]। ‘कुरूनन्दन युधिष्ठिर! प्रायः नगर और जनपद में निवास करने वाले आलाबवृद्ध सब लोग आप की प्रशंसा करते हैं। ‘कुत्ते चमडे़ की कुप्पी से रक्खा हुआ दूध, शूद्र में स्थित वेद, चोर में सत्य और नारी में स्थित बल जैसे अनुचित है, उसी प्रकार दुर्योधन में स्थित राजस्व भी संगत नहीं है। ‘भारत! लोक में यह उपर्युक्त सत्य प्रवाद पहले से चला आ रहा है। स्त्रियां और बच्चे तक इसे नित्य किये जाने वाले पाठ की तरह दुहराते रहते हैं। ‘शत्रुदमन! बड़े दुःख की बात है कि हम आज इस दुरवस्था में पहुँच गये हैं और आप ही के कारण ऐसा उपद्रव आया है हम सब लोग नष्ट हो गये। ‘महाराज! आप विजय में प्राप्त हुए धन का ब्राह्मणों को दान करने के लिये अस्त्र-शस्त्र आदि सभी आवश्यक सामग्रियों से सुसज्जित रथ पर बैठकर शीघ्र यहाँ से युद्ध के लिये निकलिये। ‘जैसे सर्पो के समान भयंकर शूरवीर देवताओं से घिरे हुए वृत्रनाशक इन्द्र, असुरों पर आक्रमण करते हैं, उसी प्रकार अस्त्र-विद्या के ज्ञाता और सुदृढ़ धनुष धारण करने वाले हम सब भाईयों से घिरे हुए आप श्रेष्ठ ब्राह्मणों से स्वतिवाचन कराकर आज ही हस्तिनापुर पर चढ़ाई कीजिये। महाबली कुन्तीकुमार! जैसे इन्द्र अपने तेज से दैत्यों को मिट्टी में मिला देते हैं, उसी प्रकार आप अपने प्रभाव से शत्रुओं को मिट्टी में मिलाकर धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन से अपनी राजलक्ष्मी को ले लीजिये। मनुष्यों में कोई ऐसा नहीं है, जो गाण्डीव धनुष से छूटे हुए विषैले सर्पो के समान भयंकर गृघपंखयुक्त बाणों का स्पर्श सह सके। ‘भारत! इसी प्रकार जगत् में ऐसा कोई अश्व या गजराज या कोई वीर पुरुष भी नहीं है, जो रणभूमि में क्रोधपूर्वक विचरने वाले मुझ भीमसेन की गदा का वेग सह सके। ‘कुन्तीनन्दन! संजय और कैकयवंशी वीरों तथा वृष्णि वंशावतं भगवान् श्रीकृष्ण के साथ होकर हम संग्राम में अपना राज्य कैसे नहीं प्राप्त कर लेंगे ? ‘राजन्! आप विशाल सेना से सम्पन्न हो यहाँ प्रयत्नपूर्वक युद्ध ठानकर शत्रुओं के हाथ में गयी हुई पृथ्वी को उनसे छीन क्यों नहीं लेते?' [9]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 33 श्लोक 17-30
- ↑ उसको त्यागकर चल देते हैं
- ↑ अर्थात् धर्म और अर्थ से ही काम की सिद्धि होती है
- ↑ इसीलिये वह ‘अनंग’ कहलाता है
- ↑ अतः वह हिंसक सबके लिये वध्य है
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 33 श्लोक 31-46
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 33 श्लोक 47-63
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 33 श्लोक 64-79
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 33 श्लोक 80-90
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| परशुराम का अपनी माता का मस्तक काटना
| जमदग्नि मुनि की हत्या
| परशुराम का पृथ्वी को नि:क्षत्रिय करना
| युधिष्ठिर द्वारा परशुराम का पूजन
| युधिष्ठिर की प्रभासक्षेत्र में तपस्या
| यादवों का पांडवों से मिलन
| बलराम की पांडवों के प्रति सहानुभूति
| सात्यकि के शौर्यपूर्ण उद्गार
| युधिष्ठिर द्वारा कृष्ण के वचनों का अनुमोदन
| गय के यज्ञों की प्रशंसा
| पयोष्णी, नर्मदा तथा वैदूर्य पर्वत का माहात्म्य
| च्यवन को सुकन्या की प्राप्ति
| च्यवन को रूप तथा युवावस्था की प्राप्ति
| च्यवन का इन्द्र पर कोप
| च्यवन द्वारा मदासुर की उत्पत्ति
| लोमश द्वारा अन्यान्य तीर्थों के महत्त्व का वर्णन
| मान्धाता की उत्पत्ति
| मान्धाता का संक्षिप्त चरित्र
| सोमक और जन्तु का उपाख्यान
| सोमक और पुरोहित का नरक तथा पुण्यलोक का उपभोग
| कुरुक्षेत्र के प्लक्षप्रस्रवण तीर्थ की महिमा
| लोमश द्वारा तीर्थों की महिमा तथा उशीनर कथा का आरम्भ
| उशीनर द्वारा शरणागत कबूतर के प्राणों की रक्षा
| अष्टावक्र के जन्म का वृत्तान्त
| अष्टावक्र का जनक के दरबार में जाना
| अष्टावक्र का जनक के द्वारपाल से वार्तालाप
| अष्टावक्र का जनक से वार्तालाप
| अष्टावक्र का शास्त्रार्थ
| अष्टावक्र के अंगों का सीधा होना
| कर्दमिलक्षेत्र आदि तीर्थों की महिमा
| रैभ्य तथा यवक्रीत मुनि की कथा
| ऋषियों का अनिष्ट करने से मेघावी की मृत्यु
| यवक्रीत का रैभ्य की पुत्रवधु से व्यभिचार तथा मृत्यु
| भरद्वाज का पुत्रशोक में विलाप
| भरद्वाज का अग्नि में प्रवेश
| अर्वावसु की तपस्या तथा रैभ्य, भरद्वाज और यवक्रीत का पुनर्जीवन
| पांडवों की उत्तराखण्ड यात्रा
| भीमसेन का उत्साह तथा पांडवों का हिमालय को प्रस्थान
| युधिष्ठिर द्वारा अर्जुन की चिन्ता तथा उनके गुणों का वर्णन
| पांडवों द्वारा गंगा की वन्दना
| लोमश द्वारा पांडवों से नरकासुर वघ की कथा
| लोमश द्वारा पांडवों से वसुधा उद्धार की कथा
| गन्दमाधन यात्रा में पांडवों का आँधी-पानी से सामना
| द्रौपदी की मूर्छा तथा भीम के स्मरण से घटोत्कच का आगमन
| घटोत्कच की सहायता से पांडवों का गंधमादन पर्वत तथा बदरिकाश्रम में प्रवेश
| बदरीवृक्ष, नरनारायणाश्रम तथा गंगा का वर्णन
| भीमसेन का सौगन्धिक कमल लाने के लिए जाना
| भीमसेन की कदलीवन में हनुमान से भेंट
| भीमसेन और हनुमान का संवाद
| हनुमान का भीमसेन से रामचरित्र का संक्षिप्त वर्णन
| हनुमान द्वारा चारों युगों के धर्मों का वर्णन
| हनुमान द्वारा भीमसेन को विशाल रूप का प्रदर्शन
| हनुमान द्वारा चारों वर्णों के धर्मों का प्रतिपादन
| भीमसेन को आश्वासन देकर हनुमान का अन्तर्धान होना
| भीमसेन का सौगन्धिक वन में पहुँचना
| क्रोधवश राक्षसों का भीमसेन से सामना
| भीमसेन द्वारा क्रोधवश राक्षसों की पराजय
| युधिष्ठिर आदि का सौगन्धिक वन में भीमसेन के पास पहुँचना
| पांडवों का पुन: नरनारायणाश्रम में लौटना
जटासुरवध पर्व
जटासुर द्वारा द्रौपदी, युधिष्ठिर, नकुल एवं सहदेव का हरण
| भीमसेन द्वारा जटासुर का वध
यक्षयुद्ध पर्व
पांडवों का नरनारायणाश्रम से वृषपर्वा के जाना
| पांडवों का राजर्षि आर्ष्टिषेण के आश्रम पर जाना
| आर्ष्टिषेण का युधिष्ठिर के प्रति उपदेश
| पांडवों का आर्ष्टिषेण के आश्रम पर निवास
| भीमसेन द्वारा मणिमान का वध
| कुबेर का गंधमादन पर्वत पर आगमन
| कुबेर की युधिष्ठिर से भेंट
| कुबेर का युधिष्ठिर आदि को उपदेश तथा सान्त्वना
| धौम्य द्वारा मेरु शिखरों पर स्थित ब्रह्मा-विष्णु आदि स्थानों का वर्णन
| धौम्य का युधिष्ठिर से सूर्य-चन्द्रमा की गति एवं प्रभाव का वर्णन
| पांडवों की अर्जुन के लिए उत्कंठा
निवातकवच युद्ध पर्व
अर्जुन का स्वर्गलोक से आगमन तथा भाईयों से मिलन
| इन्द्र का आगमन तथा युधिष्ठिर को सान्त्वना देना
| अर्जुन का अपनी तपस्या यात्रा के वृत्तान्त का वर्णन
| अर्जुन द्वारा शिव से संग्राम एवं पाशुपतास्त्र प्राप्ति की कथा
| अर्जुन का युधिष्ठिर से स्वर्गलोक में प्राप्त अपनी अस्त्रविद्या का कथन
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्ध की तैयारी का कथन
| अर्जुन का पाताल में प्रवेश
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्धारम्भ
| अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध
| अर्जुन के साथ निवातकवचों के मायामय युद्ध का वर्णन
| अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध
| अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध
| इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन
| युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा
| नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत
| पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान
| पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास
| पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश
| द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना
| भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना
| भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप
| युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज
| युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना
| सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश
| पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन
| तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य
| ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा
| तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद
| वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा
| चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन
| प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप
| बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना
| मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन
| युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन
| कल्कि अवतार का वर्णन
| भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश
| इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह
| शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता
| इन्द्र और बक मुनि का संवाद
| सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा
| ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान
| सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र
| इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा
| नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन
| इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा
| मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन
| मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन
| उत्तंक मुनि की कथा
| उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह
| ब्रह्मा की उत्पत्ति
| विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध
| धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति
| कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध
| कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति
| पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य
| कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान
| कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना
| धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा
| धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन
| धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश
| धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना
| धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार
| अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना
| अंगिरा की संतति का वर्णन
| बृहस्पति की संतति का वर्णन
| पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति
| पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन
| अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन
| सह अग्नि का जल में प्रवेश
| अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य
| इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार
| इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना
| अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन
| स्कन्द की उत्पत्ति
| स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण
| विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना
| अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना
| इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान
| स्कन्द के पार्षदों का वर्णन
| स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप
| स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक
| स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह
| कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति
| मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन
| स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार
| रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा
| देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध
| कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा
| द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा
| सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार
| शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना
| दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना
| दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति
| द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद
| कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय
| गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण
| कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश
| पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध
| पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय
| चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा
| दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन
| दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना
| दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश
| कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय
| दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना
| दैत्यों का दुर्योधन को समझाना
| दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान
| भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव
| कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान
| कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय
| कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार
| दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी
| दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति
| कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा
| युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन
| व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन
| दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा
| महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना
| देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार
| दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना
| द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना
| कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना
| जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना
| कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना
| द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर
| जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद
| जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण
| पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना
| द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन
| पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार
| युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना
| भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना
| शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना
| राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन
| रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति
| कुबेर का रावण को शाप देना
| देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना
| राम के राज्याभिषेक की तैयारी
| राम का वन को प्रस्थान
| भरत की चित्रकूट यात्रा
| राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप
| राम द्वारा मारीच का वध
| रावण द्वारा सीता का अपहरण
| रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार
| राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध
| राम और सुग्रीव की मित्रता
| राम द्वारा बाली का वध
| अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन
| रावण और सीता का संवाद
| राम का सुग्रीव पर कोप
| सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना
| हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना
| वानर सेना का संगठन
| नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण
| विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश
| अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना
| राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम
| राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध
| प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध
| रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना
| कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध
| इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा
| राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना
| लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध
| रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना
| राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध
| राम का सीता के प्रति संदेह
| देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन
| राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक
| मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति
| सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण
| सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय
| सावित्री और सत्यवान का विवाह
| सावित्री की व्रतचर्या
| सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना
| सावित्री और यम का संवाद
| यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना
| सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप
| राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता
| सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन
| द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना
| कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना
| सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश
| कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय
| कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन
| कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना
| कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या
| कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश
| कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन
| कुन्ती-सूर्य संवाद
| सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
| कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप
| अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति
| कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन
| कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति
| इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग
| युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश
| नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना
| यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद
| यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
| युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना
| यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना
| युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना
| भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श
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