कृष्ण द्वारा शाल्ववधोपाख्यान की समाप्ति

महाभारत वनपर्व के अर्जुनभिगमनपर्व के अंतर्गत अध्याय बाईस में कृष्ण द्वारा शाल्ववधोपाख्यान की समाप्ति का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से कृष्ण और शाल्व की माया के वर्णन की कथा कही है।[1]

श्रीकृष्ण संवाद

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- भरतश्रेष्ठ! तब मैं अपना सुन्दर धनुष उठाकर बाणों द्वारा सौभ विमान से देवद्रोही दानवों के मस्तक काट-काटकर गिराने लगा। तत्पश्चात् शांग धनुष से छूटे हुए विषैले सर्पों के समान प्रतीत होने वाले, सुन्दर पंखों से सुशोभित, प्रचण्ड तेजस्वी तथा अनेक ऊर्ध्वगामी बाण मैंने राजा शाल्व पर चलाये। कुरुकुलशिरोमणे! परंतु उस समय सौभ विमान माया से अदृश्य हो गया, अतः किसी प्रकार दिखायी नहीं देता था। इससे मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। भरतवंशी महाराज! तदनन्तर जब मैं निर्भय अचल भाव से स्थित हुआ तथा उन पर शस्त्र प्रहार करने लगा, तब विकृत मुख और केश वाले सौभविमान दानवगण जोर-जोर से चिल्लाने लगे। तब मैंने उनके वध के लिये उस महान संग्राम में बड़ी उतावली के साथ शब्दवेधी बाण का संधान किया। यह देख उनका कोलाहल शान्त हो गया। जिन दानवों ने पहले कोलाहल किया था, वे सब सूर्य के समान तेजस्वी शब्दवेधी बाणों द्वारा मारे गये। महाराज! वह कोलाहल शान्त होने पर फिर दूसरी ओर उनका शब्द सुनायी दिया। तब मैंने उधर भी बाणों का प्रहार किया भारत! इस तरह वे असुर इधर-उधर ऊपर- नीचे, दसों दिशाओं में कोलाहल करते और मेरे हाथों से मारे जाते थे। तदनन्तर इच्छानुसार चलने वाला सौभ विमान प्राग्ज्योषिपुर के निकट जाकर मेरे नेत्रों को भ्रम में डालता हुआ फिर दिखायी दिया। तत्रपश्चात् लोकान्तकारी भयंकर आकृति वाले दानव ने आकर सहसा पत्थरों की भारी वर्षा के द्वारा मुझे आवृत कर दिया। राजेन्द्र! शिलाखण्डों की उस निरन्तर वृष्टि से बार-बार आहत होकर मैं पर्वतों से आच्छादित बाँबी-सा प्रतीत होने लगा। राजन! मेरे चारों ओर शिलाखण्ड जमा हो गये थे।

मैं घोड़ों और सारथी सहित प्रस्तर खण्डों से चुन-सा गया था, जिससे दिखायी नहीं देता था। यह देख वृष्णिकुल के श्रेष्ठ वीर जो मेरे सैनिक थे, भय से आहत हो, सहसा चारों दिशाओं में भाग चले। प्रजानाथ! मेरे अदृश्य हो जाने पर भूलोक, अन्तरिक्ष तथा स्वर्गलोक-सभी स्थानों में हाहाकार मच गया। राजन! उस समय मेरे सभी सुहृद खिन्नचित्त हो दुःख- शोक में डूबकर रोने चिल्लाने लगे। शत्रुओं में उल्लास छा गया और मित्रों में शोक। अपनी मर्यादा से च्युत न होने वाले वीर युधिष्ठिर! इस प्रकार राजा शाल्व एक बार मुझ पर विजयी हो चुका था। यह बात मैंने सचेत होने पर पीछे सारथि के मुँह से सुनी थी। तब मैंने सब प्रकार के प्रस्तरों को विदीर्ण करने वाले इन्द्र के प्रिय आयुध वज्र का प्रहार करके उन समस्त शिलाखण्डों को चूर-चूर कर दिया। महाराज! उस समय पर्वतखण्डों के भार से पीड़ित हुए मेरे घोडे़ कम्पित-से हो रहे थे। उनकी बलसाव्य चेष्टाएँ बहुत कम हो गयी थीं। जैसे आकाश में बादलों के समुदाय को छिन्न-भिन्न करके सूर्य उदित होता है, उसी प्रकार शिलाखण्डों को हटाकर मुझे प्रकट हुआ देख मेरे सभी बन्धु-बान्धव हर्ष से खिल उठे। तब प्रस्तरखण्डों के भार से पीड़ित तथा धीरे-धीरे प्राण-साध्य चेष्टा करने वाले घोड़ों को देखकर सारथि ने मुझसे यह समयोचित बात कही- ‘वार्ष्‍णेय! वह देखिये, सौभराज साल्व वहाँ खड़़ा है। श्रीकृष्ण! इसकी उपेक्षा करने से कोई लाभ नहीं। इसके वध का कोई उपाय कीजिये।'[1]

कृष्ण द्वारा शाल्व वध

‘महाबाहु केशव! अब शाल्व की ओर से कोमलता और मित्रभाव हटा लीजिये। इसे मार डालिये, जीवित न रहने दीजिये। ‘शत्रुहन्ता वीरवर! आपको सारा पराक्रम लगाकर इस शत्रु का वध कर डालना चाहिये। कोई कितना ही बलवान क्‍यों न हो, उसे अपने दुर्बल शत्रु की भी अवहेलना नहीं करना चाहिये।' ‘कोई शत्रु अपने घर में आसन पर बैठा हो (युद्ध न करना चाहता हो), तो भी उसे नष्ट करने से चूकना नहीं चाहिये; फिर जो संग्राम में युद्ध करने के लिये खड़ा हो, उसकी तो बात ही क्या है?' अतः पुरुष सिंह! प्रभो! आप सभी उपायों से इस शत्रु को मार डालिये। वृष्णिवंशावतंस! इस कार्य में आपको पुनः विलम्ब नहीं करना चाहिये। यह मृदुतापूर्ण उपाय से वश में आने वाला नहीं। वास्तव में यह आपका मित्र भी नहीं है; क्योंकि वीर! इसने आपके साथ युद्ध किया और द्वारकापुरी को तहस-नहस कर दिया, अतः इसको शीघ्र मार डालना चाहिये।’ कुन्तीनन्दन! ' सारथि के मुख से इस तरह की बातें सुनकर मैंने सोचा, यह ठीक ही तो कहता है। यह विचार कर, मैंने शाल्वराज का वध करने और सौभ विमान को गिराने के लिये युद्ध में मन लगा दिया।'

वीर! तत्पश्चात् मैंने दारुक से कहा- ‘सारथे! दो घड़ी और ठहरो( फिर तुम्हारी इच्छा पूरी हो जायेगी)।' ‘ तदनन्तर मैंने कहीं भी कुण्ठित न होने वाले, दिव्य, अभेद्य, अत्यन्त शक्तिशाली, सब कुछ सहन करने में समर्थ, प्रिय तथा परमकान्तिमान आग्नेय शस्त्र का अपने धनुष पर संधान किया। वह अस्त्र युद्ध में दानवों का अन्त करने वाला था। इतना ही नहीं, वह यक्षो, राक्षसों, दानवों तथा विपक्षी राजाओं को भी भस्म कर डालने वाला और महान था। वह आग्नेय शास्त्र सुदर्शन चक्र के रूप में था। इसके परिधि भाग में सब तीखे छुरे लगे हुए थे। वह उज्ज्वल अस्त्र काल, यम और अन्त के समान भयंकर था। उस शत्रुनाशक अनुपम अस्त्र को अभिमन्त्रि करके मैंने कहा-‘तुम अपनी शक्ति से सौभविमान और उस पर रहने वाले मेरे शत्रुओं को मार डालो।' ‘ ऐसा कहकर अपने बाहुबल से रोषपूर्वक मैंने वह अस्त्र सौभ विमान की ओर चलाया।

आकाश में जाते ही उस सुर्दशन चक्र का स्वरूप प्रलयकाल में उगने वाले द्वितीय सूर्य के भाँति प्रकाशित हो उठा। उस दिव्य शास्त्र ने सौभनगर में पहुँचकर उसे श्रीहीन कर दिया और जैसे आरा ऊँचे काठ को चीर डालता है, उसी प्रकार सौभ विेमान को बीच से काट डाला। सुदर्शन चक्र की शक्ति से कटकर दो टुकड़ों में बँटा हुआ सौभ विमान महादेव जी के बाणों से छिन्न-भिन्न हुए त्रिपुर की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा। सौभ विमान के गिरने पर चक्र फिर से मेरे हाथों में आ गया। मैंने फिर उसे लेकर वेगपूर्वक चलाया और कहा-‘अब की बार शाल्व को मारने के लिये तुम्हें छोड़ रहा हूँ।' तब उस चक्र ने उस महासमर में बड़ी भारी गदा घुमाने वाले शाल्व के सहसा दो टुकड़े कर दिये और वह तेज से प्रज्वलित हो उठा। वीर शाल्व के मारे जाने पर दानवों के मन मे भय समा गया। मेरे बाणों से पीड़त हो हाहाकार करते हुए वे सब दिशाओं में भाग गये। [2]

तब मैंने सौभ विमान के समीप अपने रथ को खड़ा करके प्रसन्नतापूर्वक शंख बजाकर सभी सुहृदों को हर्ष में निमग्न कर दिया। मेरुपर्वत के शिखर के समान आकृति वाले सौभनगर की अट्टालिका और गोपुर सभी नष्ट हो गये। उसे जलते देख उस पर रहने वाली स्त्रियाँ इधर-उधर भाग गयीं। धर्मराज! इस प्रकार सौभ विमान तथा राजा शाल्व को नष्ट करके पुनः आनर्तनगर ( द्वारका ) में लौट आया और सहृकों का हर्ष बढ़ाया। राजन! यही कारण है, जिससे मैं उन दिनों हस्तिनापुर में न आ सका। शत्रुवीरों का नाश करने वाले धर्मराज! मेरे आने पर या तो जुआ नहीं होता या दुर्योधन जीवित नहीं रह पाता। जैसे बाँध टूट जाने पर पानी को कोई रोका नहीं सकता, उसी प्रकार आज जबकि सब कुछ बिगड़ चुका है, तब मैं क्या कर सकूँगा।

मधुसूदन का द्वारका की ओर प्रस्थान

वैशम्पायन जी कहते है- जनमेजय। ऐसा कहकर पुरुषों मे श्रेष्ठ महाबाहु श्रीमान मधुसूदन कुरुनन्दन युधिष्ठिर की आज्ञा लेकर द्वारका की ओर चल पड़े। महाबाहु श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को प्रणाम किया। राजा युधिष्ठिर तथा भीम ने बड़ी-बड़ी भुजाओं वाले श्रीकृष्ण का सिर सूँघा। अर्जुन ने उनको गले से लगाया और नकुल-सहदेव ने उनके चरणों में प्रणाम किया। पुरोहित धौम्य जी ने उनका सम्मान किया तथा द्रौपदी ने अपने आँसुओं से उनकी अर्चना की। पाण्डवों से सम्मानित श्रीकृष्ण सुभद्रा और अभिमन्यु को अपने सुवर्णमय रथ पर बैठाकर स्वयं भी उस पर आरूढ़ हुए। उस रथ में शैव्य और सुग्रीव नामक घोड़े जुते हुए थे और सूर्य के समान तेजस्वी प्रतीत होता था। युधिष्ठिर को आश्वासन देकर श्रीकृष्ण उसी रथ के द्वारा द्वारकापुरी की ओर चल दिये। श्रीकृष्ण के चले जाने पर द्रुपद पुत्र धृष्ट द्युम्न ने द्रौपदीकुमारों को साथ ले अपनी राजधानी को प्रस्थान किया। चेदिराज धृष्टकेतु भी अपनी बहिन करेणुमति को, जो नकुल की भार्या थी, साथ ले पाण्डवों से मिल-जुलकर अपनी सुरम्य राजधानी शुक्तीमतीपुरी को चले गये। भारत! केकयराजकुमार भी अमित तेजस्वी कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर की आज्ञा पा समस्त पाण्डवों से विदा लेकर अपने नगर को चले गये। युधिष्ठिर के राज्य में रहने वाले ब्राह्मण तथा वैश्य बारंबार विदा करने पर भी पाण्डवों को छोड़कर जाना नहीं चाहते थे। भरतवंशभूषण महाराज जनमेजय! उस समय काम्यक वन में उन महात्माओं का बड़ा अद्भुत सम्मेलन जुटा था। तदनन्तर महात्मा युधिष्ठिर ने सब ब्राह्मणों की अनुमति से अपने सेवकों को समय पर आज्ञा दी- ‘रथों को जोतकर तैयार करो।'[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत वन पर्व अध्याय 22 श्लोक 1-21
  2. महाभारत वन पर्व अध्याय 22 श्लोक 22-38
  3. महाभारत वन पर्व अध्याय 22 श्लोक 39-54

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यक्षयुद्ध पर्व
पांडवों का नरनारायणाश्रम से वृषपर्वा के जाना | पांडवों का राजर्षि आर्ष्टिषेण के आश्रम पर जाना | आर्ष्टिषेण का युधिष्ठिर के प्रति उपदेश | पांडवों का आर्ष्टिषेण के आश्रम पर निवास | भीमसेन द्वारा मणिमान का वध | कुबेर का गंधमादन पर्वत पर आगमन | कुबेर की युधिष्ठिर से भेंट | कुबेर का युधिष्ठिर आदि को उपदेश तथा सान्त्वना | धौम्य द्वारा मेरु शिखरों पर स्थित ब्रह्मा-विष्णु आदि स्थानों का वर्णन | धौम्य का युधिष्ठिर से सूर्य-चन्द्रमा की गति एवं प्रभाव का वर्णन | पांडवों की अर्जुन के लिए उत्कंठा
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आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत | पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान | पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास | पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश | द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना | भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना | भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप | युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज | युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना | सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश | पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन | तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य | ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा | तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद | वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा | चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन | प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन | मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन | मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप | बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना | मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन | युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन | कल्कि अवतार का वर्णन | भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश | इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह | शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता | इन्द्र और बक मुनि का संवाद | सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा | ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान | सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र | इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा | नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन | इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा | मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन | मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन | उत्तंक मुनि की कथा | उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह | ब्रह्मा की उत्पत्ति | विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध | धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति | कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध | कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति | पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य | कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान | कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना | धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा | धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन | धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश | धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना | धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार | अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना | अंगिरा की संतति का वर्णन | बृहस्पति की संतति का वर्णन | पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति | पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन | अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन | सह अग्नि का जल में प्रवेश | अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य | इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार | इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना | अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन | स्कन्द की उत्पत्ति | स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण | विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना | अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना | इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान | स्कन्द के पार्षदों का वर्णन | स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप | स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक | स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह | कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति | मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन | स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार | रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा | देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध | कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा | द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा | सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार | शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना | दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना | दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति | द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद | कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय | गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण | कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश | पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध | पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय | चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा | दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन | दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना | दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश | कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय | दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना | दैत्यों का दुर्योधन को समझाना | दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान | भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव | कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान | कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय | कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार | दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी | दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति | कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा | युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन | व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन | दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा | महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना | देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन | व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार | दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना | द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना | कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना | जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना | कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना | द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर | जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद | जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण | पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना | द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन | पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार | युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना | भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना | शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना | राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन | रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति | कुबेर का रावण को शाप देना | देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना | राम के राज्याभिषेक की तैयारी | राम का वन को प्रस्थान | भरत की चित्रकूट यात्रा | राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप | राम द्वारा मारीच का वध | रावण द्वारा सीता का अपहरण | रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार | राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध | राम और सुग्रीव की मित्रता | राम द्वारा बाली का वध | अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन | रावण और सीता का संवाद | राम का सुग्रीव पर कोप | सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना | हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना | वानर सेना का संगठन | नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण | विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश | अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना | राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम | राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध | प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध | रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना | कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध | इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा | राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना | लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध | रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना | राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध | राम का सीता के प्रति संदेह | देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन | राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक | मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति | सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण | सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय | सावित्री और सत्यवान का विवाह | सावित्री की व्रतचर्या | सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना | सावित्री और यम का संवाद | यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना | सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप | राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता | सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन | द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना | कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना | सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश | कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय | कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन | कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना | कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या | कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश | कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन | कुन्ती-सूर्य संवाद | सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन | कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप | अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति | कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन | कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति | इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग | युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश | नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना | यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद | यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर | युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना | यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना | युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना | भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श

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