पुलस्त्य का भीष्म से तीर्थयात्रा माहात्म्य वर्णन

महाभारत वनपर्व के 'तीर्थयात्रापर्व' के अंतर्गत अध्याय 82 में भीष्म जी के पूछने पर पुलस्त्यजी का उन्हें विभिन्न तीथों की यात्रा का माहात्म्य बताने के बारे में बताया गया है, जिसका उल्लेख निम्न प्रकार है[1]-

पुलस्त्यजी ने कहा- धर्मज्ञ! उत्तम व्रत का पालन करने वाले महाभाग! तुम्हारे इस विनय, इन्द्रियसंयम और सत्यपालन से मैं बहुत संतुष्ट हूँ। निष्पाप वत्स! तुम्हारे द्वारा पितृभक्ति के आश्रित हो ऐसे उत्तम धर्म का पालन हो रहा है, इसी के प्रभाव से तुम मेरा दर्शन कर रहे हो और तुम पर मेरा बहुत प्रेम हो गया है। निष्पाप कुरुश्रेष्ठ भीष्म! मेरा दर्शन अमोघ है। बोलो, मैं तुम्हारे किस मनोरथ की पूर्ति करूं ? तुम जो मांगोगे, वहीं दूंगा।

भीष्म जी ने कहा- महाभाग! आप सम्पूर्ण लोको द्वारा पूजित हैं। आपके प्रसन्न हो जाने पर मुझे क्या नहीं मिला ? आप जैसे शक्तिशाली महर्षि का मुझे दर्शन हुआ, इतने ही से मैं अपने को कृतकृत्य मानता हूँ। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ महर्षे! यदि मैं आपकी कृपा का पात्र हूँ तो मैं आप के सामने अपना संशय रखता हूँ। आप उसका निवारण करें। मेरे मन में तीर्थों से होन वाले धर्म के विषय में कुछ संशय हो गया है, मैं उसी का समाधान सुनना चाहता हूं; आप बताने की कृपा करें। देवतुल्य ब्रह्मर्षे! जो (तीर्थों के उद्देश्य से) सारी पृथ्वी की परिक्रमा करता है, उसे क्या फल मिलता है ? यह निश्चित करके मुझे बताइये।

पुलस्त्यजी ने कहा- वत्स! तीर्थ यात्रा ऋर्षियों के लिये बहुत बड़ा आश्रय है। मैं इसके विषय में तुम्हें बताऊंगा तीर्थो के सेवन से जो फल होता है, उसे एकाग्र होकर सुनो। जिसके हाथ, पैर और मन अपने काबू में हों तथा जो विद्या, तप और कीर्ति से सम्पन्न हो, वही तीर्थ सेवन का फल पाता है। जो प्रतिग्रह से दूर रहे तथा जो कुछ अपने पास हो, उसी से संतुष्ट रहे और जिस में अहंकार का भाव हो, वही तीर्थ का फल पाता है। जो दम्भ आदि दोषों से दूर, कर्तृत्व के अहंकार से शून्य, अल्पाहारी और जितेन्द्रिय हो, वह सब पापों से विमुक्त हो तीर्थ के वास्तविक फल का भागी होता है। ऋषियों ने देवताओं के उद्देश्य से यथायोग्य यज्ञ बताये हैं और उन यज्ञों का यथाव्त फल भी बताया है, जो इहलोक और परलोक में भी सर्वथा प्राप्त होता है। परंतु भूपाल! द्ररिद मनुष्य उन यज्ञों का अनुष्ठान नहीं कर सकते ; क्योंकि उनमें बहुत सल सामग्रियों की आवश्यकता होती है। नाना प्रकार के साधनों का संग्रह होने से उनमें विस्तार बहुत बढ़ जाता है। अतः राजा लोग अथवा कहीं-कहीं कुछ समृद्धिशाली मनुष्य ही यज्ञों का अनुष्ठान कर सकते हैं। जिनके पास धन की कमी और सहाय को का अभाव होता है, जो अकेले और साधन शून्य हैं, उनके द्वारा यज्ञों का अनुष्ठान नहीं हो सकता।

योद्धाओं में श्रेष्ठ नरेश्वर! जो सत्कर्म दरिद्र लोग भी कर सकें और जो अपने पुण्यों द्वारा यज्ञों के समान फलप्रद हो सके, उसे बताता हूं, सुनो। भरतश्रेष्ठ! यह ऋषियों का परम गोपनीय रहस्य है। तीर्थ यात्रा बड़ा पवित्र सत्कर्म है। वह यज्ञों से भी बढ़कर है। मनुष्य इसीलिये द्ररिद होता है कि वह (तीथों में) तीन रात तक उपवास नहीं करता, तीर्थों की यात्रा नहीं करता और सुवर्ण-दान और गो दान नहीं करता। मनुष्य तीर्थ यात्रा में जिस फल को पाता है, उसी प्रचुर दक्षिण वाले अग्निष्टोम आदि यज्ञों द्वारा यजन करके भी नहीं पा सकता।

मनुष्यों के देवाधिदेव ब्रह्मजी का त्रिलोकविख्यात तीर्थ है, जो ‘पुष्कर’ नाम से प्रसिद्ध है। उसमें कोई बड़भागी मनुष्य प्रवेश ही प्रवेश कर पाता है। महामते कुरुनन्दन! पुष्कर में तीनों समय दस सहस्र कोटि (दस खरब) तीर्थो का निवास रहता है। विभो! वहाँ आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य, मरूद्गण, गन्धर्व, और अप्सराओं की नित्य संनिधि रहती है। महाराज! वहाँ तप करके देवता, दैत्य और ब्रह्मर्षि महान पुण्य से सम्पन्न हो दिव्य योग से युक्त होते हैं। जो मनस्वी पुरुष मन से ही पुष्कर तीर्थ में जाने की इच्छा करता है, उसके स्वर्ग के प्रतिबन्धक सारे पाप मिट जाते हैं और वह स्वर्ग लोक में पूजित होता है।

महाराज! उस तीर्थ में कमलासन भगवान ब्रह्मा जी नित्य ही बड़ी प्रसन्नता के साथ निवास करते हैं। महाभाग! पुष्कर में पहले देवता तथा ऋषि महान पुण्य सम्पन्न हो सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। जो वहाँ स्नान करता तथा देवताओं ओर पितरों की पूजा में संलग्न रहता है, उस पुरुष को अश्वमेधसे दस गुना फल प्राप्त होता है; ऐसा मनीषीगण कहते हैं। भीष्म! पुष्कर में जाकर कम से कम ब्राह्मण को अवश्य भोजन कराये। उस पुण्यकर्म से मनुष्य इहलोक और परलोक में भी आनंद का भागी होता है। मनुष्य साग, फल तथा मूल जिसके द्वारा स्वयं प्राण यात्रा निर्वाह करता है, वही श्रद्धाभाव से दूसरों के दोष न देखते हुए ब्राह्मणों को दान करे।

उसी के विद्वान पुरुष अश्वमेधयज्ञ का फल पाता है। नृपश्रेष्ठ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, अथवा शूद्र जो कोई भी महात्मा ब्रह्मजी के तीर्थ में स्नान कर लेते हैं, वे फिर किसी योनि में जन्म नहीं लेते हैं। विशेषतः कार्तिक मास की पूर्णिमा को जो पुष्कर तीर्थ में स्नान के लिये जाता है, वह मनुष्य ब्रह्मधर्म में अक्षय लोकों को प्राप्त होता है। स्त्री अथवा पुरुष ने जन्म से लेकर वर्तमान अवस्था तक जितने भी पाप किये हैं, पुष्करतीर्थ में स्नान करने मात्र वे सब पाप नष्ट हो जाते हैं। राजन्! जैसे भगवान मधुसूदन (विष्णु) सब देवताओं के आदि हैं, वैसे ही पुष्कर सब तीर्थों का आदि कहा जाता है। पुष्कर में पवित्रता पूर्वक संयम नियम के साथ बारह वर्षो तक निवास करके मानव सम्पूर्ण यज्ञों का फल पाता और ब्रह्मलोक को जाता है। जो पूरे सौ वर्षो तक अग्निहोत्र करता है और जो कार्तिक की एक ही पूर्णिमा को पुष्कर में वास करता है, दोनों का फल बराबर है।

तीन शुभ्र पर्वत शिखर, तीन सोते और तीन पुष्कर ये आदिसिद्ध तीर्थ हैं। ये कब किस कारण से तीर्थ माने गये ? इसका हमें पता नहीं है। पुष्कर में जाना अत्यन्त दुलर्भ है, पुष्कर में तप अत्यन्त दुलर्भ है, पुष्कर में दान देने का सुयोग तो और भी दुलर्भ है और उसमें निवास का सौभाग्य तो अत्यन्त ही दुष्कर है। वहाँ इन्द्रियसंयम और नियमित आहार करते हुए बारह रात रह कर तीर्थ की परिक्रमा करने के पश्चात् जम्बूमार्ग को जाय। जम्बू मार्ग देवताओं, ऋषियों तथा पितरों से सेवित तीर्थ है। उसमें जाकर मनुष्य समस्त मनोवांछित भागों से उत्पन्न हो अश्वमेधयज्ञ का फल आता है। वहाँ पांच रात निवास करने से मनुष्य का अन्तःकरण पवित्र हो जाता है उसे कभी दुर्गति नहीं प्राप्त होती, वह उत्तम सिद्धि पा लेता है।[2]

जम्बूमार्ग से लौटकर मनुष्य तन्दुलिका श्रम को जाय। इस से वह दुर्गति में नहीं पड़ता और अन्त ब्रह्मलोक को चला जाता है। राजन! जो अगस्त्य सरोवर जाकर देवताओं और पितरों के पूजन में तत्पर हो तीन रात उपवास करता है, वह अग्निष्टोमयज्ञ का फल पाता है। जो शाकाहार या फलहार करके वहाँ रहता है, वह परम उत्तम कुमार लोक (कार्तिकेय के लोक) में जाता है। वहाँ से लोकपूजित कण्व के आश्रम में जाय, जो भगवती लक्ष्मी के द्वारा सेवित है। भरतश्रेष्ठ! वह धर्मारण्य कहलाता है, उसे परम पवित्र एवं अदितीर्थ माना गया है। उसमें प्रवेश करने मात्र से मनुष्य सब पापों से छुटकारा पा जाता है। जो वहाँ नियम पूर्वक मिताहारी होकर देवता और पितरों की पूजा करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओं से सम्पन्न यज्ञ का फल पाता है।

तदनन्तर उस तीर्थ की परिक्रमा करके वहाँ से ययातिपतन नामक तीर्थ में जाय। वहाँ जाने से यात्री को अवश्य ही अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। वहाँ से महाकालतीर्थ को जाय। वहाँ नियम पूर्वक रहकर नियमित भोजन करे। वहाँ कोटितीर्थ में आचमन (एवं स्नान) करने से अश्वमेधयज्ञ का फल प्राप्त होता है। वहाँ से धर्मज्ञ पुरुष उमावल्लभ भगवान् स्थाणु (शिव) के उस तीर्थ में जाय, तो तीनों लोकों में ‘भद्रवट’ के नामसे प्रसिद्ध है। वहाँ भगवान् शिव का निकट से दर्शन करके नरश्रेष्ठ यात्री एक हजार गोदान का फल पाता है और महादेवजी के प्रसाद से वह गणों का अधिपत्य प्राप्त कर लेता है जो अधिपत्य भारी समृद्धि और लक्ष्मी से सम्पन्न तथा शत्रुजनित बाधा से रहित होता है। वहाँ से त्रिभुवनविख्यात नर्मदा नदी के तट पर जाकर देवताओं और पितरों का तपर्ण करने से अग्निष्टोमयज्ञ का फल प्राप्त होता है। इन्द्रियों को काबू में रखकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए दक्षिण समुद्र की यात्रा करने से मनुष्य अग्निष्टोमयज्ञ का फल और विमान पर बैठने का सौभाग्य पाता है।

इन्द्रियसंयम या शौच-संतोष आदि के पालन पूर्वक नियमित आहार का सेवन करते हुए चर्मण्वती (चंबल) नदी के स्नान आदि करने से राजा रन्तिदेव द्वारा अनुमोदित अग्निष्टोमयज्ञ का फल प्राप्त होता है। धर्मज्ञ युधिष्ठिर! वहाँ से आगे हिमालय पुत्र अर्बुद (आबू) की यात्रा करे, यहाँ पहले पृथ्वी में विवर था। वहाँ महर्षि वसिष्ठ का त्रिलोकविख्यात आश्रम है, जिस में एक रात रहने से सहस्र गोदान का फल मिलता है। नरश्रेष्ठ! पिंगतीर्थी में स्नान एवं आचमन करके ब्रह्मचारी एवं जितेन्द्रिय मनुष्य सौ कपिलाओं के दान का फल प्राप्त कर लेता है। राजेन्द्र! तदनन्तर उत्तम प्रभासतीर्थ में जाय।

वीर! उस तीर्थ में देवताओं के मुख्य स्वरूप भगवान अग्निदेव, जिनके सारथि वायु हैं, सदा निवास करते हैं। उस तीर्थ में स्नान करके शुद्ध एवं संयत चित्त हो मानव अतिरात्र और अग्निष्टोम यज्ञों का फल पाता है। तदनन्तर सरस्वती और समुद्र के संगम में जाकर स्नान करने से मनुष्य सहस्र गोदान का फल और स्वर्गलोक पाता है। भरतश्रेष्ठ! वह पुण्यात्मा पुरुष अपने तेज से सदा अग्नि की भाँति प्रकाशित होता है। मनुष्य शुद्धचित्त हो जलों के स्वामी वरुण के तीर्थ (समुद्र) में स्नान करके वहाँ तीन रात रहे और प्रतिदिन नहाकर देवताओं तथा पितरों का तर्पण करे। ऐसा करने वाले यात्री चन्द्रमा के समान प्रकाशित होता है। साथ ही उसे अश्वमेध का फल मिलता है। भरतश्रेष्ठ! वहाँ से वरदानतीर्थ में जाय।[3]

युधिष्ठिर! यह वह स्थान है, जहाँ मुनिवर दुर्वासा ने श्रीकृष्ण को वरदान दिया था। वरदानतीर्थ में स्नान करने से मानव सहस्र गोदान का फल पाता है। वहाँ से तीर्थयात्रा को द्वार का जाना चाहिये। वह नियम से रहे और नियमित भोजन करे। पिण्डारकतीर्थ में स्नान करने से मनुष्य को अधिकाधिक सुर्वण की प्राप्ति होती है। महाभाग! उस तीर्थ में आज भी कमल के चिह्नों से चिह्नित सुर्वण मुद्राएं देखी जाती हैं। शत्रुदमन! यह एक अद्भुत बात है। पुरुषरत्न कुरुनन्दन! जहाँ त्रिशूल से अंकित कमल दृष्टिगोचर होते हैं। वहीं महादेवजी का निवास है। भारत! सागर और सिन्धु नदी में संगम मं जाकर वरुण तीर्थ के स्नान करके शुद्धचित्त हो देवताओं, ऋषियों तथा पितरों का तर्पण करे। भरतकुलतिलक! ऐसा करने से मनुष्य दिव्य दीप्ति देदीप्यमान वरुणलोक को प्राप्त करता है।।

युधिष्ठिर! वहाँ अंकुकर्णेश्वर शिव की पूजा करने से मनीषी पुरुष अश्वमेध से दस गुने पुण्यफल की प्राप्ति बताते हैं। भरतवंशावंतस कुरुश्रेष्ठ! उनकी परिक्रमा करके त्रिभुवन-विख्यात ‘दमी’ नामक तीर्थ में जाय, जो सब पापों का नाश करने वाला है। वहाँ ब्रह्म आदि देवता भगवान महेश्वर की उपासना करते हैं। वहाँ स्नान, जलपान और देवताओं से घिरे हुए रुद्र देव का दर्शन पूजन करने से स्नानकर्ता पुरुष के जन्म से लेकर वर्तमान समय तक के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। नरश्रेष्ठ! भगवान दमी का सभी देवता स्तवन करते हैं। पुरुषसिंह! वहाँ स्नान करने से अश्वमेध यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है। महाप्राज्ञ नरेश! सर्वशक्तिमान भगवान विष्णु ने पहले दैत्यों-दानवों का वध करके इसी तीर्थ में जाकर (लोकसंग्रह के लिये) शुद्धि की थी।

धर्मज्ञ! वहाँ से वसुधारातीर्थ में जाय, जो सब के द्वारा प्रशंसित है। वहाँ जाने मात्र से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। कुरुश्रेष्ठ! वहाँ स्नान करके शुद्ध और समाहितचित्त होकर देवताओं और पितरों का तर्पण करने से मनुष्य विष्णु लोक में प्रतिष्ठित है। भरतश्रेष्ठ! उस तीर्थ में वसुओं का पवित्र सरोवर है। उसमें स्नान और जलपान करने से मनुष्य वसु देवताओं का प्रिय होता है। नरश्रेष्ठ! वहीं सिन्धूत्तम नाम से प्रसिद्ध तीर्थ है , जो सब पापों का नाश करने वाला है। उसमें स्नान करने से प्रचुर स्वर्णराशि की प्राप्ति होती है। भद्रतुंगतीर्थ में जाकर पवित्र एवं सुशील पुरुष ब्रह्म लोक में जाता और वहाँ उत्तम गति पाता है। शक्रकुमाररिका तीर्थ सिद्ध पुरुषों द्वारा सेवित है। वहाँ स्नान करके मनुष्य शीघ्र ही स्वर्ग लोक प्राप्त कर लेता है। वहीं सिद्धसेवित रेणुका तीर्थ है, जिसमें स्नान करके ब्राह्मण चन्द्रमा के समान निर्मल होता है। तदनन्तर शौच-संतोष आदि नियमों का पालन और नियमित भोजन करते हुए पंचनद तीर्थ में जाकर मनुष्य पंचमहायज्ञों का फल पाता है जो शास्त्रों में क्रमशः बतलाये गये हैं।

राजेन्द्र! वहाँ से भीमा के उत्तम स्थान की यात्रा करे! भरतश्रेष्ठ! वहाँ योनितीर्थ मे स्नान करके मनुष्य देवी का पुत्र होता है। उसकी अंगकान्ति तपाये हुए सुवर्णकुण्डल के समान होती है। राजन! उस तीर्थ के सेवन से मनुष्य को सहस्र गोदान का फल मिलता है। त्रिभुवनविख्यात श्रीकुण्ड में जाकर ब्रह्मजी को नमस्कार करने से सहस्र गो दान का फल प्राप्त होता है। धर्मज्ञ! वहाँ से परम उत्तम विमलतीर्थ की यात्रा करे, जहाँ आज भी सोने और चांदी के रंग की मछलियां दिखायी देती थी।[4]उसमें स्नान करने में मनुष्य शीघ्र ही इन्द्रलोक को प्राप्त होता है और पापों से शुद्ध हो परमगति प्राप्त कर लेता है। भारत! वितस्तातीर्थ (झेलम) में जाकर वहाँ देवताओं और पितरों का तर्पण करने से मनुष्य को वाजपेययज्ञ का फल प्राप्त होता है। काश्मीर में ही नागराज तक्षक का वितस्ता नाम से प्रसिद्ध भवन है, जो सब पापो का नाश करने वाला है। वहाँ स्नान करने से मनुष्य निश्चय ही वाजपेययज्ञ का फल प्राप्त करता है और सब पापो से शुद्ध हो उत्तम गति का भागी होता है। वहाँ से त्रिभुवन विख्यात वडवातीर्थ को जाय। वहाँ पश्चिम संध्या के समय विधि पूर्वक स्नान को आचमन करके अग्निदेव को यथाशक्ति चरू निवेदन करे। वहाँ पितरों के लिये दिया हुआ दान अक्षय होता है; ऐसा मनीषी पुरुष कहते हैं।

राजन! वहाँ देवता, ऋषि, पितर, गन्धर्व, अप्सरा, गुह्यक, किन्नर, यक्ष, सिद्ध, विद्याधर, मनुष्य, राक्षस, दैत्य, रुद्र और ब्रह्म- इन सब ने नियम पूर्वक सहस्र वर्षो के लिये उत्तम दीक्षा ग्रहण करके भगवान विष्णु की प्रसन्नता के लिये चरू अर्पण किया। ऋग्वेद के सात-सात मन्त्रों द्वारा सब ने चरू की सात-सात आहुतियां दी, और भगवान केशव को प्रसन्न किया। उनपर प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें अष्टगुण-ऐश्वर्य अर्थात अणिमा आदि आठ सिद्धियां प्रदान कीं। महाराज! तत्पश्चात् उनकी इच्छा के अनुसार अन्यान्य वर देकर भगवान केशव वहाँ से उसी प्रकार अन्तर्धान हो गये, जैसे मेघों की घटा से बिजली तिरोहित हो जाती है। भारत! इसीलिये वह तीर्थ तीनों लोकों में सप्तचरू के नाम से विख्यात है। वहाँ अग्नि के लिये दिया हुआ चरू एक लाख गो दान, सौ राजसूय यज्ञ और सहस्र अश्वमेध यज्ञ से भी अधिक कल्याकारी है।

राजेन्द्र! वहाँ से लौटकर रुद्रपद नामक तीर्थ में जाय। वहाँ महादेवजी की पूजा करके तीर्थयात्री पुरुष अश्वमेध का फल पाता है। राजन! एकाग्रचित्त हो ब्रह्मचर्य- पालन पूर्वक मणिमान तीर्थ में जाय और वहाँ एक रात निवास करे। इससे अग्निष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त होता है। भरतवंशशिरोमणे! राजेन्द्र! वहाँ से लोकविख्यात देविकातीर्थ की यात्रा करे, जहाँ ब्राह्मणों की उत्पत्ति सुनी जाती है। वहाँ त्रिशूलपाणि भगवान महेश्वर का पूजन और उन्हें यथाशक्ति चरू निवेदन करके सम्पूर्ण कामनाओं से समृद्ध यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है। वहाँ भगवान शंकर का देवसेवित कामतीर्थ है। भारत! उस में स्नान करके मनुष्य शीघ्र मनोवांछित सिद्धि प्राप्त कर लेता है। वहाँ यजन, याजन तथा वेदों का स्वाध्याय करके अथवा वहाँ की बालू, पुष्प एवं जल का स्पर्श करके मृत्यु को प्राप्त हुआ पुरुष शोक से पार हो जाता है। वहाँ पांच योजन लम्बी और आधा योजन चैड़ी पवित्र वेदिका हैं, जिसका देवता तथा ऋषि-मुनि भी सेवन करते हैं। धर्मज्ञ! वहाँ से क्रमशः ‘दीर्धसत्र’ नामक तीर्थ में जाय।

वहाँ ब्रह्म आदि देवता, सिद्ध और महर्षि रहते हैं। ये नियम पूर्वक व्रत का पालन करते हुए दीक्षा लेकर दीर्धसुत्र की उपासना करते हैं। शत्रुओं का दमन करने वाले भरतवंशी राजेन्द्र! वहाँ की यात्रा करने मात्र से मनुष्य राजसूय और अश्वमेध यज्ञों के समान फल पाता है। तदनन्तर शौच-संतोषादि नियमों का पालन और नियमित आहार ग्रहण करते हुए विनशनतीर्थ में जाय, जहाँ मेरु पृष्ठ पर रहने वाली सरस्वती अदृश्य भाव से बहती है।[5]वहाँ चमसोद्भेद, शिवोद्भेद और नागोद्भेद तीर्थ में सरस्वती का दर्शन होता है। चमसोद्भेद में स्नान करने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त होता है। शिवोद्भेद में स्नान करके मनुष्य सहस्र गो दान का फल पाता है। नागोद्भेदतीर्थ में स्नान करने से उसे नाग लोक की प्राप्ति होती है। राजेन्द्र! शशयान नामक तीर्थ अत्यन्त दुर्लभ है। उसमें जाकर स्नान करे।

महाराज भारत! वहाँ सरस्वती नदी में प्रतिवर्ष कार्तिक की पूर्णिमा को शश (खरगोश) के रूप में छिपे हुए पुष्कर तीर्थ देखे जाते हैं। भरतश्रेष्ठ! नरव्याघ्र! वहाँ स्नान करके मनुष्य सदा चन्द्रमा के समान प्रकाशित होता है। भरतकुलतिलक! उसे सहस्र गो दान का फल भी मिलता है। कुरुनन्दन! वहाँ से कुमारकोटि तीर्थ में जाकर वहाँ नियम पूर्वक स्नान करे और देवता तथा पितरों के पूजन में तत्पर रहे। ऐसा करने से मनुष्य दस हजार गो दान का फल पाता है और अपने कुल का उद्धार कर देता है।

धर्मज्ञ! वहाँ से एकाग्रचित्त हो रुद्रकोटि तीर्थ में जाय। महाराज! रुद्रकोटि वह स्थान है, जहाँ पूर्वकाल में एक करोड़ मुनि बड़े हर्ष में भरकर भगवान रुद्र के दर्शन की अभिलाषा से आये थे। भारत! ‘भगवान वृषभध्वज का दर्शन पहले मैं करूंगा, मैं करूंगा’ ऐसा संकल्प करके वे महर्षि वहाँ के लिये प्रस्थित हुए थे। राजन! तब योगेश्वर भगवान शिव ने भी येग का आश्रय ले, उन शुद्धात्मा महर्षियों के शोक की शांति के लिये करोड़ों शिवलिंगों की सृष्टि कर दी, जो उन सभी ऋषियों के आगे उपस्थित थे; इससे उन सब ने अलग-अलग भगवान के दर्शन किया।

राजन! उन शुद्धचेता मुनियों की उत्तम भक्ति से संतुष्ट हो महादेव जी ने उन्हें वर दिया। महर्षियों! आज से तुम्हारे धर्म की उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहेगी। नरश्रेष्ठ! उस रुद्रकोटि में स्नान करके शुद्ध होती रहेगी। नरश्रेष्ठ! उस रुद्रकोटि में स्नान करके शुद्ध हुआ मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और अपने कुल का उद्धार कर देता है। राजेन्द्र! तदनन्तर परम पुण्यमल लोकविख्यात सरस्वती संगमतीर्थ में जाय, जहाँ ब्रह्मा आदि देवता और तपस्या के धनी महर्षि भगवान केशव की उपासना करते हैं।

राजेन्द्र! वहाँ लोग चैत्र शुक्ला चतुर्दशी को विशेष रूप से जाते हैं। पुरुषसिंह! वहाँ स्नान करने से प्रचुर सुवर्णराशि की प्राप्ति होती है और सब पापों से शुद्धचित्त होकर मनुष्य ब्रह्मलोक को जाता है। परेश्वर! जहाँ ऋषियों के सत्र समाप्त हुए हैं, वहाँ अवसान तीर्थ में जाकर मनुष्य सहस्र गो दान का फल पाता है।[6]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत वन पर्व अध्याय 82 श्लोक 1-19
  2. महाभारत वन पर्व अध्याय 82 श्लोक 20-42
  3. महाभारत वन पर्व अध्याय 82 श्लोक 43-63
  4. महाभारत वन पर्व अध्याय 82 श्लोक 64-87
  5. महाभारत वन पर्व अध्याय 82 श्लोक 88-111
  6. महाभारत वन पर्व अध्याय 82 श्लोक 112-118

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बृहदश्व द्वारा नलोपाख्यान | बृहदश्व द्वारा नल-दमयन्ती के गुणों का वर्णन | दमयन्ती स्वयंवर के लिए राजाओं का प्रस्थान | नल द्वारा दमयन्ती से देवताओं का संदेश | नल-दमयन्ती वार्तालाप | नल-दमयन्ती विवाह | नल के विरुद्ध कलियुग का कोप | नल और पुष्कर की द्यूतक्रीड़ा | दमयन्ती का कुमार-कुमारी को कुण्डिनपुर भेजना | नल-दमयन्ती का वन प्रस्थान | नल द्वारा दमयन्ती का त्याग | दमयन्ती का पातिव्रत्यधर्म | दमयन्ती का विलाप | दमयन्ती को तपस्वियों द्वारा आश्वासन | दमयन्ती का चेदिराज के यहाँ निवास | नल द्वारा कर्कोटक नाग की रक्षा | नल की ऋतुपर्ण के यहाँ अश्वाध्यक्ष पद पर नियुक्ति | विदर्भराज द्वारा नल-दमयन्ती की खोज | दमयन्ती का पिता के यहाँ आगमन | दमयन्ती को नल का समाचार मिलना | ऋतुपर्ण का विदर्भ देश को प्रस्थान | बाहुक की अद्भुत रथसंचालन कला | ऋतुपर्ण से नल को द्यूतविद्या के रहस्य की प्राप्ति | नल के शरीर से कलियुग का निकलना | ऋतुपर्ण का कुण्डिनपुर में प्रवेश | केशिनी-बाहुक संवाद | केशिनी द्वारा बाहुक की परीक्षा | नल-दमयन्ती मिलन | नल-ऋतुपर्ण वार्तालाप | नल द्वारा पुष्कर को जूए में हराना | नल आख्यान का महत्त्व | बृहदश्व का युधिष्ठिर को आश्वासन
तीर्थ यात्रा पर्व
अर्जुन के लिए पांडवों की चिन्ता | युधिष्ठिर के पास नारद का आगमन | पुलस्त्य का भीष्म से तीर्थयात्रा माहात्म्य वर्णन | कुरुक्षेत्र के तीर्थों की महत्ता | पुलस्त्य द्वारा विभिन्न तीर्थों का वर्णन | गंगासागर, अयोध्या, चित्रकूट, प्रयाग आदि की महिमा का वर्णन | गंगा का माहात्म्य | युधिष्ठिर धौम्य संवाद | धौम्य द्वारा पूर्व दिशा के तीर्थों का वर्णन | धौम्य द्वारा दक्षिण दिशा के तीर्थों का वर्णन | धौम्य द्वारा पश्चिम दिशा के तीर्थों का वर्णन | धौम्य द्वारा उत्तर दिशा के तीर्थों का वर्णन | अर्जुन के दिव्यास्त्र प्राप्ति का लोमश द्वारा वर्णन | इन्द्र-अर्जुन संदेश से युधिष्ठिर की प्रसन्नता | पांडवों का तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | लोमश का अधर्म से हानि और पुण्य की महिमा का वर्णन | पांडवों द्वारा राजा गय के यज्ञों की महिमा का श्रवण | लोमश द्वारा इल्वल-वातापि का वर्णन | विदर्भराज को अगस्त्य से कन्या की प्राप्ति | अगस्त्य का लोपामुद्रा से विवाह | अगस्त्य का धनसंग्रह के लिए प्रस्थान | अगस्त्य द्वारा वातापि तथा इल्वल का वध | लोपामुद्रा को पुत्र की प्राप्ति | परशुराम को तीर्थस्नान द्वारा तेज की प्राप्ति | दधीच का अस्थिदान एवं वज्र निर्माण | वृत्रासुर का वध | कालेय दैत्यों द्वारा तपस्वियों-मुनियों आदि का संहार | देवताओं द्वारा विष्णु की स्तुति | विष्णु आदेश से देवताओं द्वारा अगस्त्य की स्तुति | अगस्त्य का विन्ध्यपर्वत को बढ़ने से रोकना | अगस्त्य का समुद्रपान तथा देवताओं द्वारा कालेय दैत्यों का वध | सगर की संतान प्राप्ति के लिए तपस्या | कपिल की क्रोधाग्नि से सगरपुत्रों का भस्म होना | भगीरथ को राज्य की प्राप्ति | भगीरथ की तपस्या | गंगा का पृथ्वी पर आगमन और सगरपुत्रों का उद्धार | नन्दा तथा कौशिकी का माहात्म्य | लोमपाद का मुनि ऋष्यशृंग को अपने राज्य में लाने का प्रयत्न | ऋष्यशृंग को वेश्या द्वारा लुभाना जाना | ऋष्यशृंग का पिता से वेश्या के स्वरूप तथा आचरण का वर्णन | ऋष्यशृंग का लोमपाद के यहाँ आगमन | लोमपाद द्वारा विभाण्डक मुनि का सत्कार | युधिष्ठिर का महेन्द्र पर्वत पर गमन | ऋचीक मुनि का गाधिकन्या के साथ विवाह | जमदग्नि की उत्पत्ति का वर्णन | परशुराम का अपनी माता का मस्तक काटना | जमदग्नि मुनि की हत्या | परशुराम का पृथ्वी को नि:क्षत्रिय करना | युधिष्ठिर द्वारा परशुराम का पूजन | युधिष्ठिर की प्रभासक्षेत्र में तपस्या | यादवों का पांडवों से मिलन | बलराम की पांडवों के प्रति सहानुभूति | सात्यकि के शौर्यपूर्ण उद्गार | युधिष्ठिर द्वारा कृष्ण के वचनों का अनुमोदन | गय के यज्ञों की प्रशंसा | पयोष्णी, नर्मदा तथा वैदूर्य पर्वत का माहात्म्य | च्यवन को सुकन्या की प्राप्ति | च्यवन को रूप तथा युवावस्था की प्राप्ति | च्यवन का इन्द्र पर कोप | च्यवन द्वारा मदासुर की उत्पत्ति | लोमश द्वारा अन्यान्य तीर्थों के महत्त्व का वर्णन | मान्धाता की उत्पत्ति | मान्धाता का संक्षिप्त चरित्र | सोमक और जन्तु का उपाख्यान | सोमक और पुरोहित का नरक तथा पुण्यलोक का उपभोग | कुरुक्षेत्र के प्लक्षप्रस्रवण तीर्थ की महिमा | लोमश द्वारा तीर्थों की महिमा तथा उशीनर कथा का आरम्भ | उशीनर द्वारा शरणागत कबूतर के प्राणों की रक्षा | अष्टावक्र के जन्म का वृत्तान्त | अष्टावक्र का जनक के दरबार में जाना | अष्टावक्र का जनक के द्वारपाल से वार्तालाप | अष्टावक्र का जनक से वार्तालाप | अष्टावक्र का शास्त्रार्थ | अष्टावक्र के अंगों का सीधा होना | कर्दमिलक्षेत्र आदि तीर्थों की महिमा | रैभ्य तथा यवक्रीत मुनि की कथा | ऋषियों का अनिष्ट करने से मेघावी की मृत्यु | यवक्रीत का रैभ्य की पुत्रवधु से व्यभिचार तथा मृत्यु | भरद्वाज का पुत्रशोक में विलाप | भरद्वाज का अग्नि में प्रवेश | अर्वावसु की तपस्या तथा रैभ्य, भरद्वाज और यवक्रीत का पुनर्जीवन | पांडवों की उत्तराखण्ड यात्रा | भीमसेन का उत्साह तथा पांडवों का हिमालय को प्रस्थान | युधिष्ठिर द्वारा अर्जुन की चिन्ता तथा उनके गुणों का वर्णन | पांडवों द्वारा गंगा की वन्दना | लोमश द्वारा पांडवों से नरकासुर वघ की कथा | लोमश द्वारा पांडवों से वसुधा उद्धार की कथा | गन्दमाधन यात्रा में पांडवों का आँधी-पानी से सामना | द्रौपदी की मूर्छा तथा भीम के स्मरण से घटोत्कच का आगमन | घटोत्कच की सहायता से पांडवों का गंधमादन पर्वत तथा बदरिकाश्रम में प्रवेश | बदरीवृक्ष, नरनारायणाश्रम तथा गंगा का वर्णन | भीमसेन का सौगन्धिक कमल लाने के लिए जाना | भीमसेन की कदलीवन में हनुमान से भेंट | भीमसेन और हनुमान का संवाद | हनुमान का भीमसेन से रामचरित्र का संक्षिप्त वर्णन | हनुमान द्वारा चारों युगों के धर्मों का वर्णन | हनुमान द्वारा भीमसेन को विशाल रूप का प्रदर्शन | हनुमान द्वारा चारों वर्णों के धर्मों का प्रतिपादन | भीमसेन को आश्वासन देकर हनुमान का अन्तर्धान होना | भीमसेन का सौगन्धिक वन में पहुँचना | क्रोधवश राक्षसों का भीमसेन से सामना | भीमसेन द्वारा क्रोधवश राक्षसों की पराजय | युधिष्ठिर आदि का सौगन्धिक वन में भीमसेन के पास पहुँचना | पांडवों का पुन: नरनारायणाश्रम में लौटना
जटासुरवध पर्व
जटासुर द्वारा द्रौपदी, युधिष्ठिर, नकुल एवं सहदेव का हरण | भीमसेन द्वारा जटासुर का वध
यक्षयुद्ध पर्व
पांडवों का नरनारायणाश्रम से वृषपर्वा के जाना | पांडवों का राजर्षि आर्ष्टिषेण के आश्रम पर जाना | आर्ष्टिषेण का युधिष्ठिर के प्रति उपदेश | पांडवों का आर्ष्टिषेण के आश्रम पर निवास | भीमसेन द्वारा मणिमान का वध | कुबेर का गंधमादन पर्वत पर आगमन | कुबेर की युधिष्ठिर से भेंट | कुबेर का युधिष्ठिर आदि को उपदेश तथा सान्त्वना | धौम्य द्वारा मेरु शिखरों पर स्थित ब्रह्मा-विष्णु आदि स्थानों का वर्णन | धौम्य का युधिष्ठिर से सूर्य-चन्द्रमा की गति एवं प्रभाव का वर्णन | पांडवों की अर्जुन के लिए उत्कंठा
निवातकवच युद्ध पर्व
अर्जुन का स्वर्गलोक से आगमन तथा भाईयों से मिलन | इन्द्र का आगमन तथा युधिष्ठिर को सान्त्वना देना | अर्जुन का अपनी तपस्या यात्रा के वृत्तान्त का वर्णन | अर्जुन द्वारा शिव से संग्राम एवं पाशुपतास्त्र प्राप्ति की कथा | अर्जुन का युधिष्ठिर से स्वर्गलोक में प्राप्त अपनी अस्त्रविद्या का कथन | अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्ध की तैयारी का कथन | अर्जुन का पाताल में प्रवेश | अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्धारम्भ | अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध | अर्जुन के साथ निवातकवचों के मायामय युद्ध का वर्णन | अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध | अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध | इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन | युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा | नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत | पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान | पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास | पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश | द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना | भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना | भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप | युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज | युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना | सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश | पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन | तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य | ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा | तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद | वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा | चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन | प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन | मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन | मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप | बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना | मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन | युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन | कल्कि अवतार का वर्णन | भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश | इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह | शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता | इन्द्र और बक मुनि का संवाद | सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा | ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान | सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र | इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा | नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन | इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा | मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन | मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन | उत्तंक मुनि की कथा | उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह | ब्रह्मा की उत्पत्ति | विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध | धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति | कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध | कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति | पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य | कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान | कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना | धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा | धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन | धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश | धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना | धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार | अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना | अंगिरा की संतति का वर्णन | बृहस्पति की संतति का वर्णन | पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति | पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन | अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन | सह अग्नि का जल में प्रवेश | अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य | इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार | इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना | अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन | स्कन्द की उत्पत्ति | स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण | विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना | अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना | इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान | स्कन्द के पार्षदों का वर्णन | स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप | स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक | स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह | कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति | मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन | स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार | रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा | देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध | कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा | द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा | सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार | शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना | दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना | दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति | द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद | कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय | गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण | कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश | पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध | पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय | चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा | दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन | दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना | दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश | कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय | दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना | दैत्यों का दुर्योधन को समझाना | दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान | भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव | कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान | कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय | कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार | दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी | दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति | कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा | युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन | व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन | दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा | महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना | देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन | व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार | दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना | द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना | कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना | जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना | कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना | द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर | जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद | जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण | पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना | द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन | पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार | युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना | भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना | शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना | राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन | रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति | कुबेर का रावण को शाप देना | देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना | राम के राज्याभिषेक की तैयारी | राम का वन को प्रस्थान | भरत की चित्रकूट यात्रा | राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप | राम द्वारा मारीच का वध | रावण द्वारा सीता का अपहरण | रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार | राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध | राम और सुग्रीव की मित्रता | राम द्वारा बाली का वध | अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन | रावण और सीता का संवाद | राम का सुग्रीव पर कोप | सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना | हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना | वानर सेना का संगठन | नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण | विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश | अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना | राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम | राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध | प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध | रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना | कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध | इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा | राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना | लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध | रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना | राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध | राम का सीता के प्रति संदेह | देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन | राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक | मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति | सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण | सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय | सावित्री और सत्यवान का विवाह | सावित्री की व्रतचर्या | सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना | सावित्री और यम का संवाद | यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना | सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप | राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता | सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन | द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना | कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना | सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश | कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय | कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन | कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना | कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या | कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश | कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन | कुन्ती-सूर्य संवाद | सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन | कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप | अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति | कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन | कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति | इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग | युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश | नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना | यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद | यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर | युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना | यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना | युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना | भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः