- महाभारत वनपर्व के नलोपाख्यानपर्व के अंतर्गत अध्याय 64 में दमयन्ती का विलाप और प्रलाप के बारे में बताया गया है जिसका उल्लेख निम्न प्रकार है[1]-
दमयन्ती का विलाप करना तथा अजगर से व्याध द्वारा उनके प्राण बचाना एवं व्याध, दमयन्ती जैसी सुंदरी को देखकर काम के अधीन हो गया। सतीत्व की रक्षा तथा दमयन्ती के पातिव्रत्यधर्म के प्रभाव से व्याध का विनाष हो जाना। इसके बाद की कथा इस प्रकार है।
बृहदश्व मुनि कहते हैं- राजन! व्याध विनाश करके वह कमलनयनी राजकुुमारी झिल्लियों की झंकार से गूंजते हुए निर्जन एवं भयंकर वन में आगे बढ़ी। वह वन सिंह, चीतों, रूरूमृग, व्याघ्र, भैंसों तथा रीछ आदि पशुओं से युक्त एवं भाँति-भाँति पक्षिसमुदाय से व्याप्त था। वहाँ म्लेच्छ और तस्करों का निवास था। शाल, वेणु, धव, पीपल, तिन्दुक, इंदुग, पलाश, अर्जुन अरिष्ट, स्वन्दन (तिनिश), सेमन, जामुन, आम, लोध, खैर, साखू, बेंत, आवंला, पाकर, कदम्ब, गूलर, बेर, बेल, बरगद, प्रियाल, ताल, खजूर, हरे तथा बहेड़े आदि वृक्षों से यह विशाल वन परिपूर्ण हो रहा था। दमयन्ती वहाँ सैकड़ों धातुओं से संयुक्त नाना प्रकार के पर्वत, पक्षियों के कलरवों से गुंजायमान कितने ही निकुंज और अद्भुत कन्दराएं देखीं।
कितनी ही नदियों, सरोवरों, बावलियों तथा नाना प्रकार के मृगों और पक्षियों को देखा। उसने बहुत-से भयानक रूप वाले पिशाच, नाग तथा राक्षस देखे। कितने ह गड्ढों, पोखरों और पर्वतशिखरों का अवलोकन किया। सरिताओं और अद्भुत झरनों को देखा। विर्दभराजनन्दिनी ने उस वन में झुंड के झुंड भैंसे, सूअर, रीछ और जंगली सांप देखे। तेज, यश, शोभा और परम धैर्य से युक्त विदर्भकुमारी उस समय अकेली विचरती और नल को ढूंढ़ती थी। वह पति के विरहरूपी संकट में से संतप्त थी। अतः राजकुमारी दमयन्ती उस भयंकर वन में प्रवेश करके भी किसी जीव जन्तु से भयभीत नहीं हुई। राजन! विदर्भकुमारी दमयन्ती के अंग-अंग के पति के वियोग का शोक व्याप्त हो गया था, इसलिये वह अत्यन्त दुःखित हो एक शिला के नीचे भाग में बैठकर बहुत विलाप करने लगी। दमयन्ती बोली-चैड़ी छातीवाले महाबाहु निषधनरेश महाराज! आज इस निर्जन वन में (मुझ अकेली को) छोड़कर आप कहाँ चले गये ?
नरश्रेष्ठ! वीरशिरोमणे! प्रचुर दक्षिणा वाले अश्वमेध आदि यज्ञों का अनुष्ठान करके भी आप मेरे साथ मिथ्या बर्ताव क्यों कर रहे हैं ? महातेजस्वी कल्याणमय राजाओं में उत्तम नरश्रेष्ठ! आपने मेरे सामने जो बात कही थी, अपनी उस बात का स्मरण करना उचित है। भूमिपाल! आकाशचारी हंसो ने आपके समीप तथा मेरे सामने जो बातें कही थी, उनपर विचार कीजिये। नरसिंह! एक ओर अंग और उपांगों सहित विस्तार पूर्वक चारों वेदों का स्वाध्याय हो और दूसरी ओर केवल सत्यभाषण हो तो वह निश्चय ही उससे बढ़कर है। अतः शत्रुहन्ता नरेश्वर! वीर! आपने पहले मेरे समीप जो बातें कहीं हैं, उसे सत्य कहना चाहिये। हा निष्पाप वीर नल! आपकी मैं दमयन्ती इस भयंकर वन में नष्ट हो रही हूं, आप मेरी बात का उत्तर क्यों नहीं देते ? यह भयानक आकृति वाला क्रूर सिंह भूख से पीड़ित हो मुंह बाये खड़ा है और मुझ पर आक्रमण करना चाहता है, क्या आप मेरी रक्षा नहीं कर सकते ? कल्याणमय नरेश! आप पहले जो सदा यह कहते थे कि तुम्हारे सिवा दूसरी कोई भी स्त्री मुझे प्रिय नहीं हैं, अपनी उस बात को सत्य कीजिये। महाराज! मैं आपकी प्रिय पत्नी हूँ और आप मेरे प्रियतम पति हैं, ऐसी दशा में भी मैं यहाँ उन्मत्त विलाप कर रहीं हूँ तो भी आप मेरी बात का उत्तर क्यों नहीं देते ?
पृथ्वीनाथ! मैं दीन, दुर्बल, कांतिहीन और मलिन होकर आधे वस्त्र से अपने अंगों को ढक्कर अकेली अनाथ-सी विलाप कर रहीं हूँ। विशाल नेत्रों वाले शत्रुसूदन आर्य! मेरी दशा अपने झुंड से बिछुड़ी हुई हरिणी की- सी हो रही है। मैं यहाँ अकेली रो रहीं हूँ। परन्तु आप मेरा मान नहीं रखते हैं। महाराज! इस महान वन में मैं सती दमयन्ती अकेली आपको पुकार रही हूं, आप मुझे उत्तर क्यों नहीं देते ? नरश्रेष्ठ! आप उत्तम कुल और शीलस्वभाव से सम्पन्न हैं। आप अपने सम्पूर्ण मनोहर अंगों से सुशोभित होते हैं।
आज इस पर्वत शिखर पर मैं आपकों नहीं देख पाती हूँ।। निषधनरेश! इस महाभयंकर वन में, जहाँ सिंह-व्याध्र रहते हैं, आप कहीं सोये हैं, बैठे हैं अथवा खडे़ हैं ? मेरे शोक को बढ़ानेवाले नरश्रेष्ठ! आप यहीं हैं या कहीं अन्यत्र चल दिये, यह मैं किससे पूछूं ? आपके लिये शोक से दुर्बल होकर मैं अत्यन्त दुःख से आतुर हो रहीं हूँ। ‘क्या तुमने इस वन में राजा नल से मिलकर उन्हें देखा है ?’ ऐसा प्रश्न अब मैं इस वन में प्रस्थान करने वाले नल के विषय में किससे करूं ? ‘शत्रुओं के व्यूह का नाश करने वाले जिन परम सुन्दर कमलनयन महात्मा राजा नल को तू खोज रही है, वे सही तो हैं, ऐसी मधुर वाणी आज मैं किसके मुख से सुनूंगी ? यह वन का राजा कांतिमान सिंह मेरे सामने चला आ रहा है, इसके चार दाढ़े और विशाल ठोड़ी है। मैं निःशंक होकर इसके सामने जा रही हूँ और कहती हूं, आप मृगों के राजा और इस वन के स्वामी हैं। ‘मैं विदर्भराजकुमारी दमयन्ती हूँ। मुझे शत्रुघाती निषध नरेश नल की पत्नी समझिये। ‘मृगेन्द्र! मैं इस वन में अकेली पति की खोज में भटक रही हूँ तथा शोक से पीड़ित एवं दीन हो रही हूँ। यदि आपने नल को यहाँ कहीं देखा हो तो उनका कुशल-समाचार बताकर मुझे आश्वासन दीजिये। ‘अथवा वनराज मृगश्रेष्ठ! यदि आप नल के विषय में कुछ नहीं बताते हैं तो मुझे खा जायं और इस दुःख से छुटकारा दे दें।
अहो! इस घोर वन में मेरा विलाप सुनकर भी यह सिंह मुझे सान्त्वना नहीं देता। यह तो स्वादिष्ट जल से भरी हुई इस समुद्रगामिनी नदी की ओर जा रहा है। अच्छा , इस पवित्र पर्वत से ही पूछती हूँ। यह बहुत-से ऊंचे-ऊंचे शोभवाली बहुरंगे एवं मनोरम शिखरों द्वारा सुशोभित है।। अनेक प्रकार के धातुओं से व्याप्त और भाँति-भाँति के शिला-खण्डों से विभूषित है। यह पर्वत इस महान वन की ऊपर उठी हुई पताका के समान जान पड़ता है। यह सिंह, व्याघ्र, हाथी, सूअर, रीछ और मृगों से परिपूर्ण है। इसके चारों ओर अनेक प्रकार के पक्षी कलरव कर रहे हैं। पलाश, अशोक, बकुल, पुन्नाग, कनेर, धव तथा प्लक्ष आदि सुन्दर फूलों वाले वृक्षों से यह पर्वत सुशोभित हो रहा है। यह पर्वत अनेक सरिताओं, सुन्दर पक्षियों और शिखरां से परिपूर्ण है। तब मैं इसी गिरिराज से महाराज नल का समाचार पूछती हूँ। भगवन! अचलप्रवर! दिव्य दृष्टिपात! विख्यात! सबको शरण देने वाले परम कल्याणमय महीघर! आपको नमस्कार है।[2]
‘मैं निकट आकर आपके चरणों में प्रणाम करती हूँ। आप मेरा परिचय इस प्रकार जानें, मैं राजा की पुत्री, राजा की पुत्रवधू तथा राजा की पत्नी हूँ। मेरी ‘दमयन्ती’ दमयन्ती नाम से प्रसिद्धि है। ‘विदर्भदेश के स्वामी महारथी भीम नामक राजा मेरे पिता हैं। वे पृथ्वी पालक तथा चारों वर्णों के रक्षक हैं। ‘उन्होंने (प्रचुर) दक्षिणा वाले राजसूय तथा अश्वमेघ नामक यज्ञों का अनुष्ठान किया है। वे भूमिपालों में श्रेष्ठ हैं। धर्मज्ञ तथा पवित्र हैं। ‘वे विदर्भदेश की जनता की इच्छी तरह पालन करने वाले हैं। उन्होंने समस्त शत्रुओं को जीत लिया है, वे बड़े शक्तिशाली हैं। भगवन! मुझे उन्हीं की पुत्री जानिये। मैं आपकी सेवा में[3]उपस्थित हूँ। ‘निषधदेश के महाराज मेरे श्वशुर थे, वे प्रातः स्मरणी नरश्रेष्ठ वीरसेन के नाम से विख्यात थे। ‘उन्हीं महाराज वीरसेन के एक वीर पुत्र हैं जो बड़े ही सुन्दर और सत्यपराक्रमी हैं। वे वंशपरम्परा से प्राप्त अपने पिता के राज्य का पालन करते हैं। ‘उनका नाम नल है।
शत्रुदमन, श्यामसुन्दर राजा नल पुण्यश्लोक कहे जाते हैं। वे बड़े ब्राह्मणभक्त, वेदवेत्ता, वक्ता, पुण्यात्मा, सोमपान करने वाले और अग्निहोत्री हैं। ‘वे अच्छे यज्ञकर्ता, उत्तम दाता, शूरवीर योद्धा और श्रेष्ठ शासक हैं, आप मुझे उन्हीं की श्रेष्ठ पत्नी समझ लीजिये। मैं अबला नारी निकट यहाँ उन्हीं की कुशल पूछने के लिये आयी हूँ। गिरीराज![4]। मैं धन-सम्पति से वंचित, पतिदेव से रहित, अनाथ और संकटों की मारी हुई हूँ। इस वन में अपने पति की ही खोज कर रही हूँ। पवर्तश्रेष्ठ! क्या आप ने इन सैकड़ों गगनचुम्बी शिखरों द्वारा इस भयानक वन में कहीं राजा नल को देखा है ? ‘मेरे महायशस्वी स्वमाी निषधराज नल गजराज की सी चाल से चलते हैं। वे बड़े बुद्धिमान, महाबाहु, अमर्षशील (दुःख को न सहन करने वाले) पराक्रमी, धैर्यवान और वीर हैं। क्या आपने कहीं उन्हें देखा है ?
गिरिश्रेष्ठ! मैं आपकी पुत्री के समान हूँ और[5]दुःखी हूँ। क्या आप व्याकुल होकर अकेली विलाप करती हुई मुझ अबला को आज अपनी वाणी द्वारा आश्वासन न देंगे ? वीर! धर्मज्ञ! सत्यप्रतिज्ञ और पराक्रमी महीपाल! यदि आप इसी वन में हैं तो राजन! अपने आपको प्रकट करके मुझे दर्शन दीजिये। मैं कब निषधराज नल की मेघ-गजर्ना के समान स्निग्ध, गम्भीर, अमृतोपम वह मधुर वाणी सुनूंगी। उन महामना राजा के मुख से ‘वैदर्भि! ’ इस सम्बोधन युक्त शुभ, स्पष्ट, वेद अनुकूल, सुन्दर पद और अर्थ से युक्त तथा मेरे शोक का विनाश करने वाली वाणी मुझे कब सुनायी देगी। धर्मवत्सल नरेश्वर! मुझ भयभीत अबला को आश्वासन दीजिये। इस प्रकार उस श्रेष्ठ पर्वत से कहकर उस राजकुमारी दमयन्ती फिर वहाँ से उत्तर की ओर चल दी। लगातार तीन दिन और तीन रात चलने के पश्चात् उस श्रेष्ठ नारी ने तपस्वियों से युक्त एक वन देखा, जो अनुपम तथा दिव्य वन से सुशोभित था। तथा वरिष्ठ, भृगु और अत्रि के समान नियम-परायण, मिताहारी तथा (शम), दम, शौच, आदि से सम्पन्न तपस्वियों से वह शोभायमान हो रहा था।[6]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 64 श्लोक 1-22
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 64 श्लोक 23-42
- ↑ एक जिज्ञासा लेकर
- ↑ मेरे स्वामी मुझे छोड़कर कहीं चले गये है
- ↑ पति के वियोग से बहुत ही
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 64 श्लोक 43-62
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| युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज
| युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना
| सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
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युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश
| पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन
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| ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा
| तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद
| वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा
| चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन
| प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन
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| मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप
| बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना
| मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन
| युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन
| कल्कि अवतार का वर्णन
| भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश
| इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह
| शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता
| इन्द्र और बक मुनि का संवाद
| सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा
| ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान
| सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र
| इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा
| नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन
| इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा
| मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन
| मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन
| उत्तंक मुनि की कथा
| उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह
| ब्रह्मा की उत्पत्ति
| विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध
| धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति
| कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध
| कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति
| पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य
| कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान
| कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना
| धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा
| धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन
| धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश
| धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना
| धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार
| अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना
| अंगिरा की संतति का वर्णन
| बृहस्पति की संतति का वर्णन
| पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति
| पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन
| अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन
| सह अग्नि का जल में प्रवेश
| अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य
| इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार
| इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना
| अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन
| स्कन्द की उत्पत्ति
| स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण
| विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना
| अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना
| इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान
| स्कन्द के पार्षदों का वर्णन
| स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप
| स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक
| स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह
| कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति
| मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन
| स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार
| रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा
| देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध
| कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा
| द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा
| सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार
| शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना
| दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना
| दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति
| द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद
| कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय
| गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण
| कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश
| पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध
| पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय
| चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा
| दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन
| दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना
| दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश
| कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय
| दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना
| दैत्यों का दुर्योधन को समझाना
| दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान
| भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव
| कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान
| कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय
| कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार
| दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी
| दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति
| कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा
| युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन
| व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन
| दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा
| महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना
| देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार
| दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना
| द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना
| कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना
| जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना
| कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना
| द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर
| जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद
| जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण
| पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना
| द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन
| पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार
| युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना
| भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना
| शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना
| राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन
| रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति
| कुबेर का रावण को शाप देना
| देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना
| राम के राज्याभिषेक की तैयारी
| राम का वन को प्रस्थान
| भरत की चित्रकूट यात्रा
| राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप
| राम द्वारा मारीच का वध
| रावण द्वारा सीता का अपहरण
| रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार
| राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध
| राम और सुग्रीव की मित्रता
| राम द्वारा बाली का वध
| अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन
| रावण और सीता का संवाद
| राम का सुग्रीव पर कोप
| सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना
| हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना
| वानर सेना का संगठन
| नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण
| विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश
| अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना
| राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम
| राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध
| प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध
| रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना
| कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध
| इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा
| राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना
| लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध
| रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना
| राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध
| राम का सीता के प्रति संदेह
| देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन
| राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक
| मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति
| सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण
| सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय
| सावित्री और सत्यवान का विवाह
| सावित्री की व्रतचर्या
| सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना
| सावित्री और यम का संवाद
| यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना
| सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप
| राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता
| सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन
| द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना
| कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना
| सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश
| कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय
| कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन
| कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना
| कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या
| कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश
| कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन
| कुन्ती-सूर्य संवाद
| सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
| कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप
| अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति
| कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन
| कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति
| इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग
| युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश
| नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना
| यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद
| यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
| युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना
| यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना
| युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना
| भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श
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