- महाभारत वनपर्व के तीर्थयात्रापर्व के अंतर्गत अध्याय 114 में युधिष्ठिर का महेन्द्र पर्वत पर गमन का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से युधिष्ठिर का महेन्द्र पर्वत पर गमन के वर्णन की कथा कही है।[1]
विषय सूची
वैशम्पायन-जनमजेय संवाद
वैशम्पायन जी कहते है- जनमेजय! तदनन्तर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने कौशिकी नदी के तटवर्ती सभी तीर्थो और मन्दिरों की क्रमश: यात्रा की। राजन! उन्होने गंगा सागर संगम तीर्थ में समुद्रतट पर पहुँचकर पांच सौ नदियों के जल में स्नान किया। भारत! तत्पश्चात वीर भूपाल युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ कलिगं देश (उड़ीसा) में गये।
तब लोमश जी ने कहा- कुन्तीकुमार! यह कलिगं देश है, जिसमे वैतरणी नदी बहती है। जहाँ धर्म ने भी देवताओं की शरण में जाकर यज्ञ किया था। यह पर्वत माला सुशोभित वैतरणी का वही उत्तर तट है, जहाँ यज्ञ का आयोजन किया गया था। बहुत-से ऋषि मुनि तथा ब्राह्मण लोग सदा इस उत्तर तट का सेवन करते आये हैं। स्वर्गलोक की प्राप्ति करने वाले पुण्यात्मा मनुष्य के लिये यह स्थान ‘देवयान’ मार्ग के समान है। प्राचीन काल में ऋषियों तथा अन्य लोगों ने भी यहाँ बहुत से यज्ञों का अनुष्ठान किया था। राजेन्द्र! यहीं रुद्रदेव ने यज्ञ में पशु को ग्रहण कर लिया था। उस पशु को ग्रहण करके उन्होंने कहा- ‘यह तो मेरा हिस्सा है’।
भरतश्रेष्ठ! पशु का अपहरण हो जाने पर देवताओं ने उनसे कहा- ‘आप दूसरो के धन से द्रोह न करें (दूसरो के हिस्से को न लें) धर्म के साधनभूत समस्त यज्ञ भागों को लेने की इच्छा न करें। यों कहकर उन्होने कल्याणमय वचनों द्वारा भगवान रुद्र का स्तवन किया और इष्टि द्वारा उन्हें तृप्त करके उस समय उनका विशेष सम्मान किया। तब वे उस पशु को वहीं छोड़कर देवयान मार्ग से चले गये। युधिष्ठिर! यज्ञ में भगवान रुद्र की भाग परम्परा का बोधक एक श्लोक है, उसे बताता हूं, सुना- ‘देवताओं ने रुद्रदेव के भय से उनके लिये शीघ्र ही सब भागों की अपेक्षा उत्तम एवं सनातन भग देने का संकल्प किया’। जो मनुष्य यहाँ इस गाथा का गान करते हुए वैतरणी के जल का स्पर्श करता है, उसकी दृष्टि में दवयान मार्ग प्रकाशित हो जाता है।
वैशम्पायन जी कहते है- राजन! तदनन्तर महान भागयशाली समस्त पाण्डवों और द्रौपदी ने वेतरणी के जल में उतरकर अपने पितरों का तर्पण किया।
उस समय युधिष्ठिर बोले- लोमश जी! देखिये, इस वैतरणी नदीं में विधिपूर्वक स्नान करने से मुझे तपोबल प्राप्त हुआ है, जिसके प्रभाव से मैं माननीय विषयों से दूर हो गया हूँ। संव्रत! आपकी कृपा से इस समय मुझे सम्पूर्ण लोको का दर्शन हो रहा है। यह तय और स्वाध्याय में लगे हुए महात्मा वैखानस ऋषियों का शब्द है।
महेन्द्र पर्वत पर गमन
लोमश जी ने कहा- राजा युधिष्ठिर! जहाँ आती हुई इस ध्वनि को तुम सुन रहे हो, वह स्थान यहाँ से तीन लाख योजन दूर है; अत: अब चुप रहो। राजन! यह ब्रह्मा जी का दिव्य वन प्रकाशित हो रहा है; राजेन्द्र! यहीं प्रतापी विश्वकर्मा ने यज्ञ किया हैा। उस यज्ञ में ब्रह्मा जी में पर्वत और वनप्रान्त सहित सारी पृथ्वी महात्मा कश्यप को दक्षिणारूप में दे दी थी।
कुन्तीकुमार! उनके द्वारा अपना दान होते ही पृथ्वी बहुत दु:खी हो गयी और कुपित हो लोकनाथ प्रभु ब्रह्मा से इस प्रकार बोली- ‘भगवन! आप मुझे किसी मनुष्य को न सौंपें। यदि मुझे मनुष्य को सौंपेंगे तो वह व्यर्थ होगा, क्योंकि मैं अभी रसातल को चली जाउंगी। राजन! पृथ्वी देवी को विषाद करती देख महर्षि भगवान कश्यप ने प्रार्थना द्वारा उन्हें प्रसन्न किया। पाण्डुनन्दन! उनकी तपस्या से प्रसन्न हुई पृथ्वी पुन: जल से उपर उठकर वेदी के रूप में स्थित हो गयी। राजन! वह पृथ्वी देवी ही यहाँ इस मिट्टी की देवी के रूप में प्रकाशित हो रही है। महाराज! इस पर आरूढ़ हो तुम बल पराक्रम से सम्पन्न हो जाओगे।
युधिष्ठिर! वही यह वेदीस्वरूपा पृथ्वी समुद्र का आश्रय लेकर स्थित है; तुम्हारा कल्याण हो। तुम अकेले ही इस पर चढ़कर समुद्र को पर करो। मैं तुम्हारे लिये स्वस्तिवाचन करूंगा, जिससे तुम आज इस वेदीपर चढ़ सको; अजमीढ कुलनन्दन! नहीं तो मनुष्य के द्वारा स्पर्श हो जाने पर यह वेदी समुद्र मे प्रवेश कर जाती है। (समुद्र मे स्नान करते समय उसकी प्रार्थना के लिये निम्नांकित मन्त्र का उच्चारण करना चाहिये) जिन में यह सम्पूर्ण विश्व लीन होता है तथा जो सबसे श्रेष्ठ है, उन भगवान विष्णु को नमस्कार है। देवेश्वर! आप खारे समुद्र में निवास करें। ‘हे समुद्र! अग्नि, मित्र (सूर्य) और दिव्य जल- ये सब तुम्हारी योनि (उत्पति कारण) हैं। तुम सर्वव्यापी परमात्मा के रेतस (वीर्य या शक्ति) हो और तुम्हारी अमृत की उत्पति के स्थान हो।
‘पाण्डुनन्दन! इस सत्य वाक्य का उच्चारण करते हुए तुम शीघ्रतापूर्वक इस वेदी पर आरूढ़ हो जाओ। ‘हे महासागर! अग्नि तुम्हारी योनि (कारण) है और यज्ञ शरीर है, तुम भगवान विष्णु की शक्ति के आधार और मोक्ष के साधन हो।’ पाण्डुपुत्र! इस सत्य वचन को बालते हुए नदियों के स्वामी समुद्र में स्नान करना चाहिये। कुरुश्रेष्ट! जल का स्वामी समुद्र देवताओं का अधिष्ठान किया। कुन्तीनन्दन! उपर महासागर का कुश के अग्रभाग द्वारा भी स्पर्श नही करना चाहिये।
वैशम्पायन जी कहते है- जनमेजय! तदनन्तर लोमश जी के स्वस्तिवाचन करने के पश्चात महात्मा राजा युधिष्ठिर ने उनकी बतयी हुई सारी विधियों का पालन करते हुए समुद्र में स्नान करने के लिए प्रवेश किया। इसके बाद महेन्द्रपर्वत पर जाकर रात्रि बितायी।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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| अर्जुन का पाताल में प्रवेश
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| अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध
| अर्जुन के साथ निवातकवचों के मायामय युद्ध का वर्णन
| अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध
| अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध
| इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन
| युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा
| नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत
| पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान
| पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास
| पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश
| द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना
| भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना
| भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप
| युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज
| युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना
| सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश
| पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन
| तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य
| ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा
| तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद
| वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा
| चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन
| प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप
| बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना
| मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन
| युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन
| कल्कि अवतार का वर्णन
| भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश
| इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह
| शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता
| इन्द्र और बक मुनि का संवाद
| सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा
| ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान
| सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र
| इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा
| नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन
| इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा
| मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन
| मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन
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| अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना
| इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान
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| पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध
| पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय
| चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा
| दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन
| दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना
| दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश
| कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय
| दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना
| दैत्यों का दुर्योधन को समझाना
| दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान
| भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव
| कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान
| कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय
| कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार
| दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी
| दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति
| कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा
| युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन
| व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन
| दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा
| महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना
| देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार
| दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना
| द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना
| कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना
| जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना
| कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना
| द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर
| जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद
| जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण
| पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना
| द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन
| पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार
| युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना
| भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना
| शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना
| राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन
| रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति
| कुबेर का रावण को शाप देना
| देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना
| राम के राज्याभिषेक की तैयारी
| राम का वन को प्रस्थान
| भरत की चित्रकूट यात्रा
| राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप
| राम द्वारा मारीच का वध
| रावण द्वारा सीता का अपहरण
| रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार
| राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध
| राम और सुग्रीव की मित्रता
| राम द्वारा बाली का वध
| अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन
| रावण और सीता का संवाद
| राम का सुग्रीव पर कोप
| सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना
| हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना
| वानर सेना का संगठन
| नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण
| विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश
| अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना
| राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम
| राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध
| प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध
| रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना
| कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध
| इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा
| राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना
| लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध
| रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना
| राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध
| राम का सीता के प्रति संदेह
| देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन
| राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक
| मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति
| सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण
| सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय
| सावित्री और सत्यवान का विवाह
| सावित्री की व्रतचर्या
| सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना
| सावित्री और यम का संवाद
| यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना
| सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप
| राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता
| सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन
| द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना
| कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना
| सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश
| कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय
| कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन
| कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना
| कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या
| कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश
| कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन
| कुन्ती-सूर्य संवाद
| सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
| कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप
| अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति
| कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन
| कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति
| इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग
| युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश
| नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना
| यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद
| यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
| युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना
| यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना
| युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना
| भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श
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