कपिल की क्रोधाग्नि से सगरपुत्रों का भस्म होना

महाभारत वनपर्व के तीर्थयात्रापर्व के अंतर्गत अध्याय 107 में कपिल की क्रोधाग्नि से सगरपुत्रों का भस्म होना का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से कपिल की क्रोधाग्नि से सगर पुत्रों का भस्म होना के वर्णन की कथा कही है।[1]

सगर पुत्रों की उत्पत्ति

लोमश जी कहते हैं– भरतश्रेष्‍ट यह आकाशवाणी सुनकर भूपालशिरोमणी राजा सगर ने उस पर विश्वास करके उसके कथानुसार सब कार्य किया। नरेश एक एक बीज को अलग करके सबको घी से हुए घड़ों से रखा। फिर पुत्रों की रक्षा के लिए तत्पर हो सब के लिये पृथक पृथक धायें नियुक्त कर दी। तदन्तर दीर्धकाल के पश्चात् उस अनुपम तेजस्वी नरेश के साठ हजार महाबली पुत्र उन घड़ों मे से निकल आये युधिष्ठि‍र! राजर्षि‍ सगर के वे सभी पुत्र भगवान शिव की कृपा से ही उत्पन्न हुए थे। वे सब के सब भयंकर स्वाभाव वाले और क्रूरकर्मा थे। आकाश मे भी सब ओर घूम फिर सकते थे उनकी संख्या अधिक होने के कारण देवताओं सहित सम्पूर्ण लोकों की अवहेलना करते थे। समरभूमि मे शोभा पाने वाले वे शूरवीर राजकुमार देवताओं, गन्धर्वो, राक्षसों तथा सम्पूर्ण प्राणियों को कष्‍ट दिया करते थे। मन्दबुद्धि सगर पुत्रों द्वारा सताये हुए सब लोग सम्पूर्ण देवताओं के साथ ब्रह्मा जी की शरण मे गये। उस समय सर्वलोक पितामह महाभारत ब्रह्मा ने उनसे कहा– देवताओं। तुम सभी इन सब लोगों के साथ जैसे आये हो, वैसे लौट जाओ। अब थोड़े ही दिनों मे अपने ही किये हुए अपराधों द्वारा इन सगर पुत्रों का अत्यन्त घोर और महान संहार होगा।

नरेश्वर। उनके ऐसा कहने पर सब देवता तथा अन्य लोग ब्रह्मा जी की आज्ञा ले जैसे आये थे, वैसे लौट गये। भरतश्रेष्‍ठ! तदन्तर बहुत समय बीत जाने पर पराक्रमी राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ की दीक्षा ली। राजन! उनका यज्ञिस अश्व उनके अत्यन्त उत्साही सभी पुत्रों द्वारा स्वच्छन्द गति से पृथ्वी पर विचरने लगा। जब वह अश्व भयंकर दिखायी देने वाले जल शून्य समुद्र के तटपर आया, तब प्रयत्नपूर्वक रक्षि‍त होने पर भी वहाँ सहसा अदृश्य हो गया। तात! तब उस उत्तम अश्व को अपहृत जानकर सगर पुत्रों ने पिता के पास आकर कहा– हमारे यज्ञिय अश्व को किसी ने चुरा लिया, अब दिखायी नही देता। वह सुनकर राजा सगर ने कहा– तुम सब लोग समुद्र, वन और द्वीपों सहित सारी पृथ्वी पर विचरते हुए सम्पूर्ण दिशाओं में जाकर उस अश्व का पता लगाओ।

महाराज! तदन्तर वे पिता की आज्ञा ले इस सम्पूर्ण भूतल में सभी दिशाओं मे अश्व की खोज करने लगे। खोजते खोजते सभी सगर पुत्र एक दूसरे से मिलें, परंतु वे अश्व तथा अश्वहर्ता का पता न लगा सके। तब वे पिता के पास आकर उनके आगे हाथ जोड़कर बोले– महाराज हमने आपकी आज्ञा से समुद्र, वन, द्वीप, नदी, नद, कन्दरा, पर्वत और वन्य प्रदेशो सहित सारी पृथ्वी खोज डाली, परंतु हमें न तो अश्व मिलान उसको चुराने- वाला ही। युधिष्ठि‍र! उनकी बात सुनकर राजा सगर क्रोध से मूर्च्छित हो उठे और उस समय दैववश उन सबसे इस प्रकार बोले- जाओ, लौटकर न आना। पुन: घोड़े का पता लगाओ। पुत्रों! उस यज्ञ के अश्व को लिये बिना वापस न आना। पिता का वह संदेश शिरोधार्य करके सगर पुत्रों ने फिर सारी पृथ्वी पर अश्व को ढूंढ़ना आरम्भ किया। तदनन्तर उन वीरों ने एक स्थान पर पृथ्वी में दरार पड़ी देखी।[1]

कपिल क्रोधाग्नि सगर पुत्र का भस्म

उस बिल के पास पहूंच कर सगर पुत्रों ने कुदालों और फावड़ों से समुद्र को प्रयत्न पूर्वक खोदना आरम्भ किया। एकसाथ लगे हुए सगर कुमारों के खोदने पर सब ओर से विदीर्ण होने वाले समुद्र को बड़ी पीड़ा का अनुभव होता था। सगर पुत्रों के हाथों मारे जाते हुए असुर, नाग, राक्षस और नाना प्रकार के जन्तु बड़े जोर से आर्तनाद करते थे। सैकड़ों और हजारों ऐसे प्राणी दिखायी देने लगे, जिनके मस्तक कट गये थे, शरीर छिन्न भिन्न हो गये थे, चमड़े छिल गये थे तथा हड्डीयों के जोड टूट गये थे। इस प्रकार वरुण के निवास भूत समुद्र की खुदाई करते करते उनका बहुत समय बीत गया, परंतु वह अश्व कहीं दिखायी नहीं दिया। राजन! तदनन्तर क्रोध में भरे हुए सगर पुत्रों ने समुद्र के पूर्वोत्त्र प्रदेश में पाताल फोड़कर प्रवेश किया और वहाँ उस यज्ञिय अश्व को पृथ्वी पर विचरते देखा। वहीं तेज की परम उत्तम राशि महात्मा कपिल बैठे थे, जो अपने दिव्य तेज से उसी प्रकार उद्भासित हो रहे थे, जैसे लपटो से अग्नि।। राजन! उस अश्व को देखकर उनके शरीरो में हर्षजनित रोमान्च हो आया। वेकाल से प्रेरित हो क्रोध में भरकर महात्मा कपिल का अनादर करके उस अश्व कोप कड़ने के लिए दौड़े। महाराज! तब मुनिश्रेष्‍ठ कपिल कुपित हो उठे।

मुनि प्रवर कपिल वे ही भगवान विष्‍णु है, जिन्हें वासुदेव कहते हैं। उन महातेजस्वी ने विकराल आंखें करके अपना तेज उस पर छोड़ दिया और मन्दबुद्धि सगर पुत्रों कों जला दिया। उन्हें भस्म हुआ देख महातपस्वी नारद जी राजा सगर के समीप आये उनसे सब समाचार निवेदित किया। मुनि के मुख से निकले हुए इस घोर वचन को सुनकर राजा सगर दो घड़ी तक अनमने हो महादेवजी के कथन पर विचार करते रहे। पुत्र की मृत्युजनित वेदना से अत्यन्त दुखी हो स्वयं ही अपने आपको सान्त्वना दे उन्होंने अश्व को ही ढूंढ़ने का विचार किया। भरतश्रेष्‍ठ! तदनन्तर असमंजय के पुत्र अपने पौत्र अंशुमान को बुलाकर यह बात कही – तात! मेरे अमित तेजस्वी साठ हजार पुत्र मेरे ही लिये महर्षि‍ कपिल की क्रोधाग्नि मे पड़कर नष्‍ट हो गये। अनध! पुरवासियों के हित की रक्षा रखकर धर्म की रक्षा करते हुए मैंने तुम्हारे पिता को भी त्याग दिया है।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत वन पर्व अध्याय 107 श्लोक 1-22
  2. महाभारत वन पर्व अध्याय 107 श्लोक 23-41

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जटासुरवध पर्व
जटासुर द्वारा द्रौपदी, युधिष्ठिर, नकुल एवं सहदेव का हरण | भीमसेन द्वारा जटासुर का वध
यक्षयुद्ध पर्व
पांडवों का नरनारायणाश्रम से वृषपर्वा के जाना | पांडवों का राजर्षि आर्ष्टिषेण के आश्रम पर जाना | आर्ष्टिषेण का युधिष्ठिर के प्रति उपदेश | पांडवों का आर्ष्टिषेण के आश्रम पर निवास | भीमसेन द्वारा मणिमान का वध | कुबेर का गंधमादन पर्वत पर आगमन | कुबेर की युधिष्ठिर से भेंट | कुबेर का युधिष्ठिर आदि को उपदेश तथा सान्त्वना | धौम्य द्वारा मेरु शिखरों पर स्थित ब्रह्मा-विष्णु आदि स्थानों का वर्णन | धौम्य का युधिष्ठिर से सूर्य-चन्द्रमा की गति एवं प्रभाव का वर्णन | पांडवों की अर्जुन के लिए उत्कंठा
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अर्जुन का स्वर्गलोक से आगमन तथा भाईयों से मिलन | इन्द्र का आगमन तथा युधिष्ठिर को सान्त्वना देना | अर्जुन का अपनी तपस्या यात्रा के वृत्तान्त का वर्णन | अर्जुन द्वारा शिव से संग्राम एवं पाशुपतास्त्र प्राप्ति की कथा | अर्जुन का युधिष्ठिर से स्वर्गलोक में प्राप्त अपनी अस्त्रविद्या का कथन | अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्ध की तैयारी का कथन | अर्जुन का पाताल में प्रवेश | अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्धारम्भ | अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध | अर्जुन के साथ निवातकवचों के मायामय युद्ध का वर्णन | अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध | अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध | इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन | युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा | नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत | पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान | पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास | पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश | द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना | भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना | भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप | युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज | युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना | सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
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मृगस्वप्नोद्भव पर्व
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व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन | व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन | दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा | महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना | देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन | व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार | दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना | द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना | कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना | जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना | कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना | द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर | जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद | जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण | पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना | द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन | पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार | युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना | भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना | शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना | राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन | रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति | कुबेर का रावण को शाप देना | देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना | राम के राज्याभिषेक की तैयारी | राम का वन को प्रस्थान | भरत की चित्रकूट यात्रा | राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप | राम द्वारा मारीच का वध | रावण द्वारा सीता का अपहरण | रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार | राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध | राम और सुग्रीव की मित्रता | राम द्वारा बाली का वध | अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन | रावण और सीता का संवाद | राम का सुग्रीव पर कोप | सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना | हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना | वानर सेना का संगठन | नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण | विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश | अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना | राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम | राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध | प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध | रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना | कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध | इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा | राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना | लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध | रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना | राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध | राम का सीता के प्रति संदेह | देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन | राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक | मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति | सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण | सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय | सावित्री और सत्यवान का विवाह | सावित्री की व्रतचर्या | सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना | सावित्री और यम का संवाद | यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना | सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप | राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता | सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन | द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना | कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना | सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश | कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय | कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन | कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना | कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या | कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश | कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन | कुन्ती-सूर्य संवाद | सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन | कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप | अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति | कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन | कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति | इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग | युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश | नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना | यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद | यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर | युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना | यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना | युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना | भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श

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