यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद

महाभारत वनपर्व के आरणेय पर्व के अंतर्गत अध्याय 313 में यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से यक्ष और युधिष्ठिर संवाद के वर्णन की कथा कही है।[1]

वैशम्पायन द्वारा यक्ष युधिष्ठिर के संवाद का वर्णन

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने इन्द्र के समान गौरवशाली अपने भाइयों को सरोवर के तट पर निर्जीव की भाँति पड़े हुए देखा; मानो प्रलयकाल में सम्पूर्ण लोकपाल अपने लोकों से भ्रष्ट होकर गिर गये हों। अर्जुन मरे पड़े थे; उनके धनुष-बाण इघर बिखरे पड़े थे। भीमसेन और नकुल-सहदेव भी प्राणरहित हो निश्चेष्ट हो गये थे। इन सबको देखकर युधिष्ठिर गरम-गरम लंबी साँसें खींचने लगे। उनके नेत्रों से शोक के आँसू उमड़कर उन्हें भिगो रहे थे। अपने समस्त भ्राताओं को इस प्रकार धराशायी हुए देख महाबाहु धर्मपुत्र युधिष्ठिर गहरी चिन्ता में डूब गये और देर तक विलाप करते रहे।

वे बोले- ‘महाबाहु वृकोदर! तुमने यह प्रतिज्ञा की थी कि ‘मैं युद्ध में अपनी गदा से दुर्योधन की दोनों जाँघें तोड़ डालूँगा।’ महाबाहो! तुम कुरुकुल की कीर्ति बढ़ाने वाले थे। तुम्हारा हृदय विशाल था। वीर! आज तुम्हारे गिर जाने से मेरे लिये सब कुछ व्यर्थ हो गया। ‘साधारण मनुष्यों की बातें तथा उनकी प्रतिज्ञाएँ तो झूठी निकल जाती हैं; परंतु तुम लोगों के सम्बन्ध में जो दिव्य वाणियाँ हुई थीं, वे कैसे मिथ्या हो सकती हैं ? ‘‘धनंजय! जब तुम्हारा जन्म हुआ था, उस समय देवताओं ने भी कहा था कि ‘कुन्ती! तुम्हारा या पुत्र सहस्रनेत्रधारी इन्द्र से भी किसी बात में कम न होगा।’ उत्तर परियात्र पर्वत पर सब प्राणियों ने तुम्हारे विषय में यही कहा था कि ‘ये अर्जुन शीघ्र ही पाण्डवों की खोयी हुई राजलक्ष्मी को पुनः लौटा लायेंगे। युद्ध में कोई भी इन पर विजय पाने वाला न होगा और ये भी किसी को परास्त किये बिना न रहेंगे’’। ‘वे ही महाबली अर्जुन आज मृत्यु के अधीन कैसे हो गये ? ये वे ही धनंजय मेरी आशालता को छिन्न-भिन्न करके धरती पर पड़े हें; जिन्हें अपना रक्षक बनाकर और जिनका ही भारी भरोसा करके हमलोग ये सारे दुःख सहते आये हैं।

किसी भी अस्त्र से प्रतिहत न होने वाले, समरांगण में उन्मत्त होकर लड़ने वाले तथा सदैव शत्रुओं का संहार करने वाले वीर थे, वे आज सहसा शत्रु के अधीन कैसे हो गये? ‘मुझ दुष्ट का हृदय निश्चय की पत्थर और लोहे का बना हुआ है, जो कि आज इन दोनों भाई नकुल और सहदेव को धरती पर पड़ा देख विदीर्ण नहीं हो जाता है। ‘पुरुषसिंह बन्धुओं! तुम लोग शास्त्रों के विद्वान, देशकाल को समझने वाले, तपस्वी और कर्मठ वीर थे। अपने योग्य पराक्रम किये बिना ही तुम लोग [2]कैसे सो रहे हो? तुम्हारे शरीर में कोई घाव नहीं है, तुमने धनुष-बाण का स्पर्श तक नहीं किया है तथा तुम किसी से परास्त होने वाले नहीं हो; ऐसी दशा में इस पृथ्वी पर संज्ञाशून्य होकर क्यों पड़े हो? परम बुद्धिमान युधिष्ठिर धरती पर पड़े हुए पर्वत शिखरों के समान अपने भाइयों को इस प्रकार सुख की नींद सोते देखकर बहुत दुखी हुए। उनके सारे अंगों में पसीना निकल आया और वे अत्यन्त कष्टप्रद अवस्था में पहुँच गये।[1]

युधिष्ठिर द्वारा भाइयों की मृत्यु पर विचार

यह ऐसा ही होनहार है’, ऐसा कहकर धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर शोकसागर में मग्न तथा व्याकुल होकर भाइयों की मृत्यु के कारण पर विचार करने लगे। वे यह भी सोचने लगे कि ‘अब क्या करना चाहिये?’ महाबुद्धिमान महाबाहु युधिष्ठिर देश और काल तत्त्व को पृथक-पृथक जानने वाले थे; तो भी बहुत सोचने विचारने पर भी वे किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सके। तत्पश्चात धर्मात्मा और तपस्वी धर्मपुत्र युधिष्ठिर अपने मन को स्थिर करके बहुत विलाप करने के पश्चात अपनी बुद्धि द्वारा यह विचार करने लगे- ‘इन वीरों को किसने मार गिराया है? इनके शरीर में अस्त्र शस्त्रो के आघात का कोई चिह्न नहीं है और न इस स्थान पर किसी दूसरे के पैरों का निशान ही है। मैं समझता हूँ, अवश्य वह कोई भारी भूत है, जिसने मेरे भाइयों को मारा है। ‘इस विषय में मैं चित्त को एकाग्र करके फिर सोचूँगा अथवा पानी पीकर इस रहस्य को समझने की चेष्टा करूँगा।

सम्भव है, दुर्योधन चुपके-चुपके कोई षड़यन्त्र किया हो। ‘अथवा जिसकी बुद्धि में सदा कुटिलता ही निवास करती है, उस गान्धार राज शकुनि की भी यह करतूत हो सकती है। जिसके लिये कर्तव्य औ अकर्तव्य दोनों बराबर हैं, उस अजितात्मा शकुनि पर कौन वीर पुरुष विश्वास कर सकता है? अथवा गुप्तरूप से नियुक्त किये हुए पुरुषों द्वारा दुरात्मा दुर्योधन ने ही यह हिंसात्मक प्रयोग किया होगा’। इस प्रकार परम बुद्धिमान युधिष्ठिर भाँति-भाँति की चिन्ता करने लगे। (परीक्षा करने पर) उन्हें इस बात का निश्चय हो गया था कि इस सरोवर के जल में जहर नहीं मिलाया गया है। ‘क्योकि मर जाने पर भी मेरे इन भाइयों के शरीर में कोई विकृति नहीं उत्पन्न हुई है। अब भी मेरे इन भाइयों के मुख की कान्ति प्रसन्न है।’ इस तरह वे सोच-विचार में डूबे ही रहे। ‘मेरे इन पुरुषरत्न भाइयों में से प्रत्येक के शरीर में बल का अगाध सिन्धु लहराता था। आयु पूर्ण होने पर सबका अनत कर देने वाले यमराज के सिवा दूसरा कौन इनसे भिड़ सकता था?’ इस प्रकार निश्चय करके युधिष्ठिर जल में उतरे। पानी में प्रवेश करते ही उनके कानों में आकाशवाणी सुनायी दी।

यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद

यक्ष बोला- राजकुमार! मैं सेवार और मछली खाने वाला बगुला हूँ। मैंने ही तुम्हारे छोटे भाइयों को यमलोक भेजा है; अतः मेरे पूछने पर यदि तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर न दोगे, तो तुम भी यमलोक के अतिथि होआगे। तात! जल पीने का साहस न करना। इस पर मेरा पहले से अधिकार हो गया है। कुन्तीकुमार! मेरे प्रश्नों का उत्तर दो और जल पीओ और ले भी जाओ।

युधिष्ठिर बोले- मैं पूछता हूँ, तुम रुद्रो, वसुओं अथवा मरुद्गणों में से कौन से देवता हो? बताओ। यह कान किसी पक्षी का किया हुआ नहीं हो सकता? मेरे महातेजस्वी भाई हिमवान, पारियात्र? विन्ध्य तथा मलय- इन चारों पर्वतों के समान हैं। इन्हें किसने मार गिराया है? बलवानों में श्रेष्ठ वीर! तुमने यह अत्यन्त महान कर्म किया है। बड़े-बड़े युद्धों में जि वीरों (के प्रभाव) को देवता, गन्धर्व, असुर तथा राक्षस भी नहीं सह सकते थे, उन्हें गिराकर तुमने परम अद्भुत पराक्रम किया है। तुम्हारा कार्य क्या है? यह मैं नहीं जानता। तुम क्या चाहते हो? इसका भी मुझे पता नहीं है।[3]

तुम्हारे विषय में मुझे महान कौतूहल हो गया है। तुमसे मुझे कुछ भय भी लगने लगा है, जिससे मेरा हृदय उद्विग्न हो उठा है और सिर में संताप होने लगा है। अतः भगवन! मै विनयपूर्वक पूछता हूँ, तुम यहाँ कौन विराज रहे हो?

युधिष्ठिर द्वारा यक्ष को प्रश्न के उत्तर देना

यक्ष ने कहा- तुम्हारा कल्याण हो। मैं जलचर पक्षी नहीं हूँ, यक्ष हूँ। तुम्हारे ये सभी महान तेजस्वी भाई मेरे द्वारा मारे गये हैं।

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! तत्पश्चात उस समय इस प्रकार बोलने वाले उस यक्ष की वह अमंगलमयी और कठोर वाणी सुनकर भरतश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर उसके पास जाकर खड़े हो गये। उन्होंने देखा, एक विकट नेत्रों वाला विशालकाय यक्ष वृक्ष के ऊपर बैठा है। वह बड़ा ही दुर्धर्ष, ताड़ के समान लंबा, अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी तथा पर्वत के समान ऊँचा है। वही अपनी मेघ के समान गम्भीर नादयुक्त वाणी से उन्हें फटकार रहा है। उसकी आवाज बहुत ऊँची है।

यक्ष ने कहा- राजन! तुम्हारे इन भाइयों को मैंने बार-बार रोका था; फिर भी ये बलपूर्वक जल ले जाना चाहते थे; इसी से मैंने इन्हें मार डाला। महाराज युधिष्ठिर! यदि तुम्हें अपने प्राण बचाने की इच्छा हो, तो वहाँ जल नहीं पीना चाहिये। पार्थ! तुम पानी पीने का साहस न करना, यह पहले से ही मेरे अधिकार की वस्तु है। कुन्तीनन्दन! पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो, उसके बाद जल पीओ और ले भी जाओ।

युधिष्ठिर ने कहा- यक्ष! में तुम्हारे अधिकार की वस्तु को नहीं ले जाना चाहता। मैंस्वयं ही अपनी बड़ाई करूँ; इस बात की सत्पुरुष कभी प्रशंसा नहीं करते। मैं अपनी बुद्धि के अनुसार तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर दूँगा, तुम मुझसे प्रश्न करो।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत वन पर्व अध्याय 313 श्लोक 1-16
  2. प्राणहीन हो
  3. महाभारत वन पर्व अध्याय 313 श्लोक 17-34
  4. महाभारत वन पर्व अध्याय 313 श्लोक 35-51

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मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश | पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन | तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य | ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा | तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद | वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा | चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन | प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन | मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन | मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप | बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना | मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन | युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन | कल्कि अवतार का वर्णन | भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश | इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह | शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता | इन्द्र और बक मुनि का संवाद | सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा | ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान | सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र | इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा | नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन | इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा | मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन | मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन | उत्तंक मुनि की कथा | उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह | ब्रह्मा की उत्पत्ति | विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध | धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति | कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध | कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति | पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य | कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान | कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना | धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा | धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन | धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश | धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना | धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार | अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना | अंगिरा की संतति का वर्णन | बृहस्पति की संतति का वर्णन | पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति | पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन | अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन | सह अग्नि का जल में प्रवेश | अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य | इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार | इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना | अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन | स्कन्द की उत्पत्ति | स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण | विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना | अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना | इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान | स्कन्द के पार्षदों का वर्णन | स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप | स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक | स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह | कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति | मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन | स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार | रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा | देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध | कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा | द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा | सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार | शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना | दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना | दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति | द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद | कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय | गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण | कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश | पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध | पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय | चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा | दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन | दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना | दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश | कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय | दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना | दैत्यों का दुर्योधन को समझाना | दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान | भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव | कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान | कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय | कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार | दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी | दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति | कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा | युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन | व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन | दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा | महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना | देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन | व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार | दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना | द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना | कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना | जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना | कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना | द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर | जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद | जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण | पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना | द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन | पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार | युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना | भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना | शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना | राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन | रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति | कुबेर का रावण को शाप देना | देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना | राम के राज्याभिषेक की तैयारी | राम का वन को प्रस्थान | भरत की चित्रकूट यात्रा | राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप | राम द्वारा मारीच का वध | रावण द्वारा सीता का अपहरण | रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार | राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध | राम और सुग्रीव की मित्रता | राम द्वारा बाली का वध | अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन | रावण और सीता का संवाद | राम का सुग्रीव पर कोप | सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना | हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना | वानर सेना का संगठन | नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण | विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश | अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना | राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम | राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध | प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध | रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना | कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध | इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा | राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना | लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध | रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना | राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध | राम का सीता के प्रति संदेह | देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन | राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक | मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति | सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण | सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय | सावित्री और सत्यवान का विवाह | सावित्री की व्रतचर्या | सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना | सावित्री और यम का संवाद | यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना | सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप | राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता | सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन | द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना | कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना | सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश | कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय | कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन | कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना | कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या | कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश | कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन | कुन्ती-सूर्य संवाद | सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन | कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप | अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति | कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन | कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति | इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग | युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश | नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना | यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद | यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर | युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना | यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना | युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना | भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श

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