पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन

वर्षा और शरद-ऋतु का वर्णन किया जाता है एवं युधिष्ठिर आदि का पुनः द्वैत वन से काम्यक वन में प्रवेश करते हैं और अब काम्यवन में पाण्डवों के पास भगवान श्रीकृष्ण, मुनिवर मार्कण्डेय तथा नारद जी के आगमन के बारे में बताया गया है, जिसका उल्लेख महाभारत वनपर्व के 'मार्कण्डेयसमस्या पर्व' के अंतर्गत अध्याय 183 में बताया गया है[1]-

श्रीकृष्ण के आगमन का समाचार प्राप्त होना

वैशम्पायन जी कहते हैं- कुरुनन्दन जनमेजय! काम्यकवच में पहुँचने पर वहाँ के मुनियों ने युधिष्ठिर आदि पाण्डवों का यथोचित आदर सत्कार किया। फिर वे द्रौपदी के साथ वहाँ रहने लगे। जब वे विश्वासपात्र पाण्डव निवास करने लगे, तब बहुत से ब्राह्मणों ने आकर सब ओर से उन्हें घेर लिया[2]। तदनन्तर एक दिन एक ब्राह्मण आया। उसने यह सूचना दी कि सबको वश में रखने वाले उदार बुद्धि महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण, जो अर्जुन के प्रिय सखा हैं, अभी यहाँ पधारेंगे। कुरुश्रेष्ठ पाण्डवो! आप लोगों का यहाँ आना भगवान श्री कृष्ण को ज्ञात हो चुका हैं। वे सदा आप लोगों को देखने के लिये उत्सुक रहते हैं और आपके कल्याण की बात सोचते रहते हैं।

मार्कण्डेयमुनि के आगमन का समाचार प्राप्त होना

एक शुभ समाचार और हैं, चिरंजीवी महातपस्वी मार्कण्डेयमुनि, जो स्वाध्याय और तपस्या में संलग्न रहा करते हैं, शीघ्र ही आप लोगो से मिलेंगे।

श्री कृष्ण का आगमन

ब्राह्मण इस प्रकार की बातें कह ही रहा था कि शैब्य और सुग्रीव नामक अश्वों से जुते हुए रथ द्वारा रथियों में श्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण आते हुए दिखायी दिये। जैसे शची के साथ इन्द्र आये हों, उसी प्रकार सत्यभामा के साथ देवकी नन्दन श्रीहरि उन कुरुकुलशिरोमणि पाण्डवों से मिलने वहाँ आये।

पाण्डवों द्वारा श्रीकृष्ण का सत्कार

परम बुद्धिमान श्रीकृष्ण ने रथ से उतरकर बड़ी प्रसन्नता के साथ धर्मराज युधिष्ठिर तथा बलवानों में श्रेष्ठ भीम को विधिपूर्वक प्रणाम किया। फिर धौम्यमुनि का पूजन किया। तत्पश्चात् नकुल सहदेव ने आकर उनके चरणों में मस्तक झुकाये। इसके बाद निद्राविजयी अर्जुन को हृदय से लगाकर श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को भलीभाँति सान्त्वना दी। परमप्रिय वीरवर अर्जुन को दीर्घकाल के बाद आया देख शत्रुदमन श्रीकृष्ण ने उन्हें बार-बार हृदय से लगाया। इसी प्रकार श्रीकृष्ण की प्यारी रानी सत्यभामा ने भी पाण्डवों की प्रिय पत्नी पांचाली का आलिंगन किया। तदनन्तर पत्नी और पुराहित सहित समस्त पाण्डवों ने कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण का पूजन किया और सब-क-सब उन्हें घेरकर बैठ गये। सर्वज्ञ भगवान श्रीकृष्ण असुरों को भयभीत करने वाले कुन्तीनन्दन अर्जुन से मिलकर उसी प्रकार सुशोभित हुए, जैसे परम महात्मा साक्षात भगवान भूतनाथ शंकर कार्तिकेय से मिलकर शोभा पाते हैं। तदनन्तर किरीटधारी अर्जुन ने गद के बड़े भाई भगवान श्रीकृष्ण को वनवास के सारे वृतान्त यथार्थ रूप से बताकर पुनः उनसे पूछा- 'सुभद्रा और अभिमन्यु कैसे हैं ?

युधिष्ठिर से श्रीकृष्ण का संवाद

भगवान मधुसूदन ने अर्जुन, द्रौपदी तथा पुरोहित धौम्य का सम्मान करके सबके साथ बैठकर राजा युधिष्ठिर की प्रशंसा करते हुए कहा- 'राजन! पाण्डुनन्दन! राज्यलाभ की अपेक्षा धर्म महान हैं। धर्म की वृद्धि के लिये तप को ही प्रधान साधन बताया गया हैं। आप सत्य और सरलता आदि सदुणों के साथ स्वधर्म का पालन करते हैं, अतः आपने इस लोक और परलोक दोनों को जीत लिया हैं। 'आपने सबसे पहले ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का पालन करते हुए सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन किया हैं। तत्पश्चात् सम्पूर्ण धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की हैं। इसके बाद क्षत्रिय-धर्म के अनुसार धन का उपार्जन करके समस्त प्राचीन यज्ञों का अनुष्ठान किया हैं। नरेश्वर! जिसमें गंवारों की आसक्ति हुआ करती हैं, उसी स्त्री-सम्बन्धी भोग में आपका अनुराग नहीं हैं। आप कामनाओं से प्रेरित होकर कुछ नहीं करते हैं। और धन के लोभ से धर्म का पालन नहीं करते हैं। इसी प्रभाव से धर्मराज कहलाते हैं। 'राजन! आपने राज्य, धन और भोगों को पाकर भी सदा दान, सत्य, तप, श्रद्धा, बुद्धि, क्षमा तथा धृति-इन सद्गुणों से ही प्रेम किया हैं। 'पाण्डुनन्दन! कुरुजांगल देश की जनता ने द्यूतसभा में द्रौपदी को जिस विवश-अवस्था में देखा था और उस समय उसके साथ जो पाप पूर्ण बर्ताव किया गया था, उसे आपके सिवा दूसरा कौन सह सकता था ? 'धर्मराज! अब शीघ्र ही आप के सारे मनोरथ पूर्ण होंगे और आप राजसिंहासन पर आरूढ़ होकर न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करेंगे, इसमें तनिक भी संशय नहीं हैं। यदि आप की वनवासविषयक प्रतिज्ञा पूरी हो जाय, तो हम सब लोग आपके विरोधी कौरवों को दण्ड देने के लिये उद्यत हैं'। तदनन्तर युदकुल सिंह भगवान श्रीकृष्ण ने धौम्य, युधिष्ठिर, भीमसेन, नकुल, सहदेव और द्रौपदी की ओर देखते हुए कहा-'सौभाग्य की बात हैं, कि आप लोगों द्वारा की हुई मंगलकामना से किरीटधारी अर्जुन अस्त्रविद्या के पारंगत विद्वान होकर सानन्द लौट आये हैं'।

द्रौपदी से श्रीकृष्ण का संवाद

इसके बाद दशार्हकुल के स्वामी श्रीकृष्ण, जो अपने सुहदों से घिरे हुए थे, यज्ञसेन कुमारी द्रौपदी से बोले-'कृष्णे! अर्जु से मिलकर तेरी सारी कामना सफल हो गयी, यह बड़े आनन्द की बात हैं। तेरे पुत्र बड़े सुशील हैं। धनुर्वेद में उनका विशेष अनुराग हैं। वे अपने सुहदों सहित सत्पुरुषों द्वारा आचरित सदाचार और धर्म का पालन करते हैं। 'कृष्णे! तुम्हारे पिता और भाइयों ने राज्य तथा राजकीय उपकरणों-यानवाहन आदि की सुविधा दिखाकर अनेक बार आमंत्रित किया, तो भी तुम्हारे बच्चे अपने नाना यज्ञसेन और मामा धृष्टद्युर्म आदि के घरों में रहना पसंद नही करते हैं- वहाँ उनका मन नहीं लगता हैं। कृष्णे! उनका धनुर्वेद में विशेष प्रेम हैं। वे आनर्त देश में ही कुशलपूर्वक जाकर वृष्णिपुरी द्वारिका में रहते हैं। वहाँ रहकर उन्हें देवताओं के लोक में भी जाने की इच्छा नहीं होती। 'उन बालकों को तुम सदाचार की जैसी शिक्षा दे सकती हो, आर्या कुन्ती भी उन्हें जैसा सदाचार सिखा सकती हैं, वैसी शिक्षा देने की योग्यता सुभर्दा में भी हैं। वह बड़ी सावधानी के साथ वैसी ही शिक्षा देकर उन सब बालकों को सदाचार में प्रतिष्ठित करती हैं। 'कृष्णे! रुक्मिणी नन्दन प्रद्यम्न जिस प्रकार अनिद्ध, अभिमन्य, सुनीथ और भानु को धनुर्वेद की शिक्षा देते हैं, उसी प्रकार वे तुम्हारे पुत्रों के भी शिक्षक और संरक्षक हैं। 'शिक्षा देने में निपुण और आलस्य रहित कुमार अभिमन्यु तुम्हारे शूर-वीर पुत्रों की गदा और ढाल- तलवार के दांव-पेंच सिखाते हैं। अन्याय अस्त्रों की भी शिक्षा देते हैं। साथ ही रथ चलाने और घोड़े हांकने की कला भी सिखाते हैं। वे सदा उनकी शिक्षा-दीक्षा में संलग्न रहते हैं। 'अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग की उत्तम शिक्षा दे उनके लिये उन्होंने विधिपूर्वक नाना प्रकार के शस्त्र भी दे रखे हैं। तुम्हारे पुत्रों और अभिमन्यु के पराक्रम देखकर रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न बहुत संतुष्ट रहते हैं। 'याज्ञसेनी! तुम्हारे पुत्र जब नगर की शोभा देखने के लिये घूमने निकलते हैं। उस समय उनमें से प्रत्येक के लिये रथ, घोड़े, हाथी और पालकी आदि सवारियां पीछे-पीछे जाती हैं।

श्रीकृष्ण की युधिष्ठिर से वार्ता

तत्पश्चात् भगवान श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा- 'राजन! दशार्ह, कुकूर और अंधकवंश के योद्धा जहाँ आप चाहें, वहीं आपकी आज्ञा का पालन करते हुए खड़े रह सकते हैं। 'नरेन्द्र! जिसके धनुष का वेग वायु- वेग का समान हैं, हल धारण करने वाले बलराम जी जिसके सेनापति हैं, वह सवारों सहित हाथी, घोडे़ रथ और पैदल सैनिकों से भरी हुई मथुरा -प्रांतवाली गोपों की चतुरंगिणी सेना सदा युद्ध के लिये संनद्ध हो आप की अभीष्ट-सिद्धि के लिये निरन्तर तत्पर रहती हैं। पाण्डुनन्दन! अब आप पापात्माओं के शिरोमणि धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन को उसको सुहदयों और सम्बन्धियों सहित उसी मार्ग पर भेज दीजिये, जहाँ भौमासुर और शाल्व गये हैं। 'महाराज! आप चाहें तो सभा में जो प्रवेश आपने की हैं, उसीके पालन में लगे रहें। यदि आपकी आज्ञा हो तो युदवंशी योद्धा आपके समस्त शत्रुओं को मार डालें और हस्तिनापुर नगर आपके शुभागमन की प्रतीक्षा करता रहे। 'राजन! आप क्रोध, दीनता और दुःख से दूर रहकर जहां-जहाँ आप की इच्छा हो वहां-वहाँ घूम लीजिये। तत्पश्चात् शोक रहित हो अपनी प्रसिद्ध, और उत्तम राजधानी हस्तिनापुर में प्रवेश कीजियेगा। पुरुषोतम भगवान श्रीकृष्ण ने अपना मत अच्छी तरह व्यक्त कर दिया था। उसे जानकर महात्मा धर्मराज ने भगवान केशव की भूरि-भूरि प्रशंसा की और हाथ जोड़कर उनकी ओर देखते हुए कहा।[3]

केशव! इसमें संदेह नहीं कि आप ही पाण्डवों के अवलम्ब हैं। कुन्ती में हम सभी पुत्र आपकी ही शरण में हैं। जब समय आयेगा, तब आप पुनः अपने इस कथन से अनुसार सब कार्य करेंगे, इसमें संदेह नहीं हैं। 'भवगन! हमने अपनी प्रतीक्षा के अनुसार बारह वर्षों का सारा समय निर्जन वनों में घूमकर बिता दिया हैं। अब अज्ञातवास की अवधि भी विधिपूर्वक पूर्ण कर लेने पर हम समस्त पाण्डव आप की आज्ञा के अधीन हो जायेंगे। नाथ! आप की की बुद्धि संलग्न रहे हैं। प्रभो! दानधर्म से युक्त हम सभी कुन्ती पुत्र सेवक, परिजन, स्त्री, पुत्र तथा बन्धु-बान्धवों सहित केवल आपकी ही शरण में हैं'।

मार्कण्डेय का आगमन

वैशम्पायन जी कहते हैं- भारत! भगवान श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठिर जब इस प्रकार बातें कर रहे थे, उसी समय अनेक सहस्र वर्षों की अवस्था वाले तपोवृद्ध धर्मात्मा महातपस्वी मार्कण्डेय मुनि आते दिखायी दिये। वे रूप और उदारता आदि गुणों से सम्पन्न तथा अजर-अमर थे। वैसे बड़े बूढ़े होने पर भी वे ऐसे दिखायी दे रहे थे, मानो पच्चीस वर्ष की अवस्था के तरुण हों।

मार्कण्डेय का सत्कार

हजारों वर्षों की अवस्था वाले उन वृद्ध महर्षि के पधारने पर पाण्डवों सहित भगवान श्रीकृष्ण तथा समस्त ब्राह्मणों ने उनका पूजन किया। पूजित होने पर जब वे अत्यन्त विश्वास करने योग्य मुनिश्रेष्ठ आसन पर विराजमान हो गये, तब वहाँ आये हुए ब्राह्मणों और पाण्डवों की सम्मति से भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार कहा। श्रीकृष्ण बोले- मार्कण्डेय जी! आपके उपदेश सुनने की इच्छा से यहाँ पाण्डवों के साथ साथ बहुत से ब्राह्मण भी पधारे हुए हैं। द्रौपदी, सत्यभामा तथा मैं, सब लोग आपकी उत्तम वाणी का रसास्वादन करना चाहते हैं। आप प्राचीन काल के नरेशों, नारियों तथा महर्षि की पुरातन पुण्य कथाएं सुनाइये और हम लोगों से सनातन सदाचार का वर्णन कीजिये।

देवर्षि नारद का आगमन एवं सत्कार

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! वे सब लोग वहाँ बैठे ही थे कि विशुद्ध अन्तःकरण वाले देवर्षि नारद भी पाण्डवों से मिलने के लिये वहाँ आये। तब उन सभी श्रेष्ठ मनीषी पुरुषों ने और उन महात्मा नारदजी को भी पाद्य और व्यर्थ आदि देकर उनका यथायोग्य सत्कार किया। तब देवर्षि नारद ने उन सबको कथा सुनने के लिये अवसर निकालकर तैयार हुआ जान वक्त मार्कण्डेय मुनि की उस कथा सुनने के विचार का अनुमोदन किया।

महातपस्वी मार्कण्डेय द्वारा आज्ञा देना

उस समय उपर्युक्त अवसर के ज्ञाता सनातन भगवान श्रीकृष्ण ने मार्कण्डेय जी से मुसकराते हुए कहा- 'महर्षे! आप पाण्डवों से जो कुछ कहना चाहते थे, वह कहिये'। उनके ऐसा कहने पर महातपस्वी मार्कण्डेय मुनि ने कहा- 'पाण्डवो! तुम सब लोग क्षण भर के लिये चुप हो जाओ; क्योंकि मुझे तुमसे बहुत कुछ कहना हैं'। उनके इस प्रकार आज्ञा देने पर उन ब्राह्मणों सहित पाण्डव मध्याहनकाल के सूर्य के भाँति तेजस्वी उन महामुनि को देखते हुए उनके वक्तव्य को सुनने के लिये चुप हो गये।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत वन पर्व अध्याय 183 श्लोक 1-20
  2. और उन्हीं के साथ रहने लगे
  3. महाभारत वन पर्व अध्याय 183 श्लोक 21-37
  4. महाभारत वन पर्व अध्याय 183 श्लोक 38-58

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जटासुरवध पर्व
जटासुर द्वारा द्रौपदी, युधिष्ठिर, नकुल एवं सहदेव का हरण | भीमसेन द्वारा जटासुर का वध
यक्षयुद्ध पर्व
पांडवों का नरनारायणाश्रम से वृषपर्वा के जाना | पांडवों का राजर्षि आर्ष्टिषेण के आश्रम पर जाना | आर्ष्टिषेण का युधिष्ठिर के प्रति उपदेश | पांडवों का आर्ष्टिषेण के आश्रम पर निवास | भीमसेन द्वारा मणिमान का वध | कुबेर का गंधमादन पर्वत पर आगमन | कुबेर की युधिष्ठिर से भेंट | कुबेर का युधिष्ठिर आदि को उपदेश तथा सान्त्वना | धौम्य द्वारा मेरु शिखरों पर स्थित ब्रह्मा-विष्णु आदि स्थानों का वर्णन | धौम्य का युधिष्ठिर से सूर्य-चन्द्रमा की गति एवं प्रभाव का वर्णन | पांडवों की अर्जुन के लिए उत्कंठा
निवातकवच युद्ध पर्व
अर्जुन का स्वर्गलोक से आगमन तथा भाईयों से मिलन | इन्द्र का आगमन तथा युधिष्ठिर को सान्त्वना देना | अर्जुन का अपनी तपस्या यात्रा के वृत्तान्त का वर्णन | अर्जुन द्वारा शिव से संग्राम एवं पाशुपतास्त्र प्राप्ति की कथा | अर्जुन का युधिष्ठिर से स्वर्गलोक में प्राप्त अपनी अस्त्रविद्या का कथन | अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्ध की तैयारी का कथन | अर्जुन का पाताल में प्रवेश | अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्धारम्भ | अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध | अर्जुन के साथ निवातकवचों के मायामय युद्ध का वर्णन | अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध | अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध | इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन | युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा | नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत | पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान | पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास | पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश | द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना | भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना | भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप | युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज | युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना | सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश | पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन | तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य | ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा | तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद | वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा | चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन | प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन | मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन | मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप | बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना | मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन | युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन | कल्कि अवतार का वर्णन | भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश | इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह | शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता | इन्द्र और बक मुनि का संवाद | सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा | ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान | सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र | इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा | नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन | इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा | मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन | मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन | उत्तंक मुनि की कथा | उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह | ब्रह्मा की उत्पत्ति | विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध | धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति | कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध | कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति | पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य | कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान | कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना | धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा | धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन | धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश | धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना | धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार | अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना | अंगिरा की संतति का वर्णन | बृहस्पति की संतति का वर्णन | पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति | पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन | अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन | सह अग्नि का जल में प्रवेश | अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य | इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार | इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना | अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन | स्कन्द की उत्पत्ति | स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण | विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना | अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना | इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान | स्कन्द के पार्षदों का वर्णन | स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप | स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक | स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह | कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति | मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन | स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार | रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा | देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध | कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा | द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा | सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार | शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना | दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना | दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति | द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद | कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय | गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण | कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश | पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध | पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय | चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा | दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन | दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना | दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश | कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय | दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना | दैत्यों का दुर्योधन को समझाना | दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान | भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव | कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान | कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय | कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार | दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी | दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति | कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा | युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन | व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन | दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा | महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना | देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन | व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार | दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना | द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना | कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना | जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना | कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना | द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर | जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद | जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण | पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना | द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन | पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार | युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना | भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना | शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना | राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन | रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति | कुबेर का रावण को शाप देना | देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना | राम के राज्याभिषेक की तैयारी | राम का वन को प्रस्थान | भरत की चित्रकूट यात्रा | राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप | राम द्वारा मारीच का वध | रावण द्वारा सीता का अपहरण | रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार | राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध | राम और सुग्रीव की मित्रता | राम द्वारा बाली का वध | अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन | रावण और सीता का संवाद | राम का सुग्रीव पर कोप | सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना | हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना | वानर सेना का संगठन | नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण | विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश | अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना | राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम | राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध | प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध | रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना | कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध | इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा | राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना | लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध | रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना | राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध | राम का सीता के प्रति संदेह | देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन | राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक | मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति | सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण | सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय | सावित्री और सत्यवान का विवाह | सावित्री की व्रतचर्या | सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना | सावित्री और यम का संवाद | यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना | सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप | राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता | सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन | द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना | कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना | सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश | कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय | कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन | कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना | कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या | कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश | कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन | कुन्ती-सूर्य संवाद | सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन | कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप | अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति | कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन | कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति | इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग | युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश | नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना | यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद | यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर | युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना | यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना | युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना | भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श

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