- महाभारत वनपर्व के जयद्रथविमोक्षण पर्व के अंतर्गत अध्याय 272 में शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा के वर्णन की कथा कही है।[1]
विषय सूची
जयद्रथ द्वारा शिव की तपस्या
जनमेजय! वह पराजित होने के महान दु:ख से पीडित था; अत: वहाँ से घर न जाकर गंगा द्वार[2] को चल दिया। वहाँ पहुँचकर उसने तीन नेत्रों वाले भगवान उमापति की शरण ले बड़ी भारी तपस्या की। इससे भगवान शंकर प्रसन्न हो गये। त्रिनेत्रधारी महादेव ने प्रसन्त्रता पूर्वक स्वयं दर्शन देकर उसकी पूजा ग्रहण की। जनमेजय! भगवान ने उसे वर दिया और जयद्रथ ने उसको ग्रहण किया। वह वर क्या था? यह बताता हूँ, सुनो- ‘मैं रथ सहित पाँचों पाण्डवों को युद्ध में जीत लूँ’ यही वर सिन्धुराज ने महादेव जी से माँगा। परन्तु महादेव जी ने उससे कहा- ‘ऐसा नही हो सकता। पाण्डव अजेय और अवध्य हैं। तुम केवल एक दिन युद्ध में महाबाहु अर्जुन को छोड़कर अन्य चार पाण्डवों को आगे बढ़ने से रोक सकते हो। देवेश्वर नर, जो बदरिकाश्रम में भगवान नारायण के साथ रहकर तपस्या करते हैं, वे ही अर्जुन हैं।
‘उन्हें तुम तो क्या सम्पूर्ण लोक मिलकर जीत नहीं सकते। उनका सामना करना तो देवताओं के लिये भी कठिन है। मैंने उन्हें पाशुपात नामक दिव्य अस्त्र प्रदान किया है, जिसके जोड़ का दूसरा कोई अस्त्र ही नहीं है। इसके सिवा अन्यान्य लोकपालों से भी उन्होंने वज्र आदि महान अस्त्र प्राप्त किये हैं। अब मैं तुम्हें नर स्वरूप, अर्जुन के सहायक भगवान नारायण की महिमा बताता हूँ, सुनो भगवान नारायण देवताओं के भी देवता, अनन्तस्वरूप, सर्वव्यापी, देवगुरु, सर्वसमर्थ, प्रकृति-पुरुषरूप, अव्यक्त, विश्वात्मा एवं विश्वरूप हैं। ‘प्रलयकाल उपस्थित होने पर वे भगवान विष्णु ही कालागिनरूप से प्रकट हो पर्वत, समुद्र, द्वीप, शैल, वन और काननों सहित सम्पूर्ण जगत को दग्ध कर देते हैं। ‘फिर पातालतल में विचरण करने वाले नागलोकों को भी वे भस्म कर डालते हैं। कालाग्नि द्वारा सब कुछ भस्म हो जाने पर आकाश में अनेंक रंग के महान मेघों की घोर घटा घिर आती है। ‘भयंकर स्वर गर्जना करते हुए वे बादल बिजलियों की मालाओं से प्रकाशित हो सम्पूर्ण दिशाओं में फैल जाते और सब ओर वर्षा करने लग जाते हैं। ‘इससे प्रलयकालीन अग्नि बुझ जाती है। संवर्तक अग्नि का नियन्त्रण करने वाले वे महामेघ लम्बें सर्पो के समान मोटी धाराओं से जल गिराते हुए सबको डूबो देते हैं।[3]
नारायण की उपत्ति वर्णन
उस समय सम्पूर्ण दिशाओं में पानी भर जाने से चारों ओर एकाकार जलमय समुद्र ही दृष्टिगोचर होता है। उस एकार्णव के जल में समस्त चराचर जगत नष्ट हो जाता है। चन्द्रमा, सूर्य और वायु भी विलीन हो जाते हैं। ग्रह और नक्षत्रों का अभाव हो जाता है। ‘एक हजार चतुर्यगी समाप्त होने पर उपर्यक्त एकार्णव के जल में यह पृथ्वी डूब जाती है। तत्पश्चात नारायण नाम से प्रसिद्ध भगवान श्रीहरि उस एकावर्ण के जल में शयन करने के हेतु अपने लिये निशाकालोचित अन्धकार[4] से व्याप्त महारात्रि का निर्माण करते हैं। उन भगवान के सहस्त्रों नेत्र, सहस्त्रों चरण और सहस्त्रों मस्तक हैं। वे अन्तर्यामी पुरुष हैं ओर इन्द्रियातीत होने पर भी शयन करने की इच्छा से उन शेषनाग को अपना पर्यकं बनाते हैं, जो सहस्त्रों फणों से विकटाकार दिखाई देते हैं।
वे शेषनाग एक सहस्त्र प्रचण्ड सूर्यों के समूह की भाँति अनन्त एवं असीम प्रभा धारण करते हैं। उनकी कान्ति कुन्द पुष्प, चन्द्रमा, मुक्ताद्दार, गोदुग्ध, कमलनाल तथा कुमुद-कुसुम के समान उज्ज्वल है। उन्हींकी शय्या बनाकर भगवान श्रीहरि शयन करते हैं। ‘तत्पश्चात सृष्टिकाल में सत्त्वगुण के आधिक्य से भगवान योगनिद्रा से जाग उठे। जागने पर उन्हें यह समस्त लोक सूना दिखायी दिया। महर्षिगण भगवान नारायण के सम्बन्ध में यहाँ इस श्लोका उदाहरण दिया करते हैं। जल भगवान का शरीर है, इसीलिये उनका नाम ‘नार’ सुनते आये हैं। वह नार ही उनका अयन[5] है अथवा उसके साथ एक होकर वे रहते हैं, इसीलिये उन भगवान को नारायण कहा गया है।' ‘तत्पश्चात प्रजा की सृष्टि के लिये भगवान ने चिन्तन किया। इस चिन्तन के साथ ही भगवान की नाभि से सनातन कमल प्रकट हुआ। ‘उस नाभिकमल से चतुर्मुख ब्रह्माजी का प्रादुर्भाव हुआ। उस कमल पर बैठे हुए लोकपितामह ब्रह्माजी ने सहसा सम्पूर्ण जगत को शून्य देखकर अपने मानसपुत्र के रूप में अपने ही जैसे प्रभावशाली मरीचि आदि नौ महार्षियों को उत्पन्न किया।
वाराह अवतार वर्णन
‘उन महर्षियों ने स्थावर-जंगमरूप सम्पूर्ण भूतों की तथा यक्ष, राक्षस, भूत पिशाच, नाग और मनुष्यों की सृष्टि की। ‘ब्रह्माजी के रूप से भगवान सृष्टि करते हैं। परमपुरुष नारायण रूप से इसकी रक्षा करते हैं तथा रुद्रस्वरूप से सबका संहार करते हैं। इस प्रकार प्रजापालक भगवान की ये तीन अवस्थाएं हैं। ‘सिन्धुराज! क्या तुमने वेदों के पारगंत ब्रह्मर्षियों के मुख से अद्भुतकर्मा भगवान विष्णु का चरित्र नहीं सुना है? ‘समस्त भूमण्डल सब ओर से जल में डूबा हुआ था। उस समय एकार्णव से उपलक्षित एकमात्र आकाश में पृथ्वी का पता लगाने के लिये भगवान इस प्रकार विचर रहे थे, जैसे वर्षाकाल की रात में जुगनू सब ओर उड़ता फिरता है।
वे पृथ्वी को कहीं स्थिर रूप से स्थापित करने के लिये उसकी खोज कर रहे थे। ‘पृथ्वी को जल में डूबी हुई देख भगवान ने मन-ही-मन उसे बाहर निकालने की इच्छा की। वे सोचने लगे, ‘कौन-सा रूप धारण करके मैं इस जल से पृथ्वी का उद्धार करूँ’। ‘इस प्रकार मन-ही-मन चिन्तन करके उन्होंने दिव्य दृष्टि से देखा कि जल में क्रीड़ा करने के योग्य तो वराह रूप है; अत: उन्होंने उसी रूप का स्मरण किया। ‘वेदतुल्य वैदिक वाडाय वराहरूप धारण करके भगवान- ने जल के भीतर प्रवेश किया। उनका वह विशाल पर्वताकार शरीर सौ योजन लम्बा और दस योजन चौड़ा था। उनकी दाढ़ें बडी तीखी थीं। उनका शरीर देदीप्यमान हो रहा था। भगवान का कण्ठ स्वर महान मेघों की गर्जना के समान गम्भीर था। उनकी अग्ड़कान्ति नील जलधर के समान श्याम थी।[6]
इस प्रकार यज्ञ वाराहरूप धारण करके भगवान नें जल के भीतर प्रवेश किया और एक ही दाँत से पृथ्वी को उठाकर उसे अपने स्थान पर स्थापित कर दिया। ‘तदनन्तर महाबाहु भगवान श्रीहरि ने एक अपूर्व शरीर धारण किया, जिसमें आधा अंग तो मनुष्य का था और आधा सिंहका।
नृसिंह अवतार वर्णन
इस प्रकार नृसिंहरूप धारण करके हाथ से हाथ का स्पर्श किये हुए दैत्यराज हिरण्यकशिपु की सभा में गये। दैत्यों के आदि पुरुष और देवताओं के शत्रु दितिनन्दन हिरण्यकशिपु ने उस अपूर्व पुरुष को देखकर क्रोध से आंखें लाल कर लीं। उसने एक हाथ में शूल उठा रखा था। उसके गले में पुष्पों की माला शोभा पा रही थी। उस समय वीर हिरण्यकशिपु ने, जिसकी आवाज मेघ की गर्जना के समान थी, जो नीले मेघों के समूह-जैसा श्याम था तथा जो दिति के गर्भ से उत्पन्त्र होकर देवताओं का शत्रु बना हुआ था; भगवान नृसिंह पर धावा किया। ‘इसी समय अत्यन्त बलवान मृगेन्द्रस्वरूप भगवान नृसिंह ने दैत्य के निकट जाकर उसे अपने तीखे नखों द्वारा अत्यन्त विदीर्ण कर दिया।
‘इस प्रकार शत्रुघाती दैत्यराज हिरण्यकशिपु का वध करके भगवान कमलनयन ने श्री हरि पुन: सम्पूर्ण लोकों के हित के लिये अन्य रूप में प्रकट हुए। ‘उस समय वे काश्यप जी के तेजस्वी पुत्र हुए। अदिति देवी ने उन्हें गर्भ में धारण किया था। पूरे एक हजार वर्षतक गर्भ में धारण करने के पश्चात अदिति ने एक उत्तम बालक को जन्म दिया। ‘वह वर्षाकाल के मेघ के समान श्यामवर्ण था। उसके नेत्र देदीप्यमान हो रहे थे। वे वामनाकार, दण्ड और कमण्डलु धारण किये तथा वक्ष:स्थल में श्रीवत्स चिन्ह से विभूषित थे। ‘उनके सिर पर जटा थी और गले में यज्ञोपवीत शोभा पाता था। उस समय वे बालरूपधारी श्रीमान भगवान दानवराज बलि की यज्ञशाला के समीप गये। ‘बृहस्पति जी की सहायता से उनका बलि के यज्ञमण्डप में प्रवेश हुआ। वामनरूपधारी भगवान को देखकर राजा बलि बहुत प्रसन्न हुए और बोले- ‘ब्रह्मन! आपका दर्शन पाकर मैं बहुत प्रसन्त्र हुआ हूँ। आज्ञा कीजिये, मैं आपकी सेवा के लिये क्या दूँ ?
बलि के ऐसा कहने पर भगवान वामन ने ‘[7] स्वस्ति [8]’ ऐसा कहकर बलि को आशीर्वाद दिया और मुस्कराते हुए कहा- ‘दानवराज! मुझे तीन पग पृथ्वी दे दीजिये।' ‘बलि ने प्रसन्त्रचित्त होकर उन अमिततेजस्वी ब्राह्मण देवता को उनकी मुँह माँगी वस्तु दे दी। तब भूमि को नापते समय श्रीहरि का अत्यन्त अद्भुत दिव्य रूप प्रकट हुआ। ‘उन अक्षोभ्य सनातन विष्णुदेव ने तीन पग द्वारा शीघ्र ही सारी वसुधा नाप ली और देवराज इन्द्र को समर्पित कर दी। ‘यह मैंने तुम्हें भगवान के वामानावतार की बात बतायी है। उन्हीं से देवताओं की उत्पत्ति हुई है। यह जगत भी भगवान विष्णु से प्रकट होने के कारण वैष्णव कहलाता है। ‘राजन! वे ही भगवान विष्णु दुष्टों का दमन और धर्म का संरक्षण करने के लिये मनुष्यों के बीच यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं। उन्हीं को श्रीकृष्ण कहते हैं।
वे अनादि, अनन्त, अजन्मा, दिव्यस्वरूप, सर्व समर्थ और विश्वन्दित हैं। ‘सिन्धुराज! विद्वान पुरुष उन्ही भगवान की महिमा गाते और उन्हीं के पावन चरित्रों का वर्णन करते हैं उन्हीं को अपराजित शंख चक्र गदाधारी पीतपट्टाम्बर विभूषित श्रीवत्सधारी भगवान श्रीकृष्ण कहा गया है। अस्त्रविद्या के विद्वानों में श्रेष्ठ अर्जुन उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित हैं। ‘शत्रुवीरों का संहार करने वाले अतुल पराक्रमी श्रीमान कमलनयन श्रीकृष्ण एक ही रथ पर अर्जुन के समीप बैठकर उनकी सहायता करते हैं। ‘इस कारण अर्जुन को कोई नहीं जीत सकता। उनका वेग सहन करना देवताओं के लिये भी कठिन है; फिर कौन ऐसा मनुष्य है, जो युद्ध में अर्जुन पर विजय पा सके?[9]
शिव द्वारा जयद्रथ को वरदान प्राप्ति
‘राजन! केवल अर्जुन को छोड़कर एक दिन ही तुम युधिष्ठिर की सारी सेना को और अपने शत्रु चारो पाण्डवों को भी जीत सकोगे।’
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! उमापति भगवान हरि समस्त पापों का अपहरण करने वाले हैं। वे पशुरूपी जोवों के पालक, दक्षयज्ञ-विध्वसंक तथा त्रिपुरविनाशक हैं। उनके तीन नेत्र हैं और उन्हीं के द्वारा भगदेवता के नेत्र नष्ट किये गये हैं। भगवती उमा सदा उनके साथ रहती हैं।
नृपश्रेष्ठ! भगवान शिव सिन्धुराज जयद्रथ से पूर्वोक्त वचन कहकर भंयकर कानों और नेत्रों वाले भाँति-भाँति के अस्त्र उठाये रहने वाले अपने भंयकर पार्षदों के साथ, जिनमें बौने, कुबड़े और विकट आकृति वाले प्राणी भी थे, भगवती पार्वती सहित वहीं अन्तर्धान हो गये। तत्पश्चात मन्दबुद्धि जयद्रथ भी अपने घर चला गया और पाण्डव गण उस काम्यकवन में उसी प्रकार निवास करने लगे।[10]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 272 श्लोक 19-35
- ↑ हरिद्वार
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 272 श्लोक 19-35
- ↑ तमोगुण
- ↑ गृह
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 272 श्लोक 36-54
- ↑ आपका
- ↑ कल्याण हो
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 272 श्लोक 55-76
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 272 श्लोक 77-81
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| पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश
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| भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप
| युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज
| युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना
| सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश
| पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन
| तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य
| ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा
| तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद
| वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा
| चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन
| प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप
| बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना
| मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन
| युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन
| कल्कि अवतार का वर्णन
| भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश
| इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह
| शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता
| इन्द्र और बक मुनि का संवाद
| सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा
| ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान
| सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र
| इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा
| नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन
| इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा
| मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन
| मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन
| उत्तंक मुनि की कथा
| उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह
| ब्रह्मा की उत्पत्ति
| विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध
| धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति
| कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध
| कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति
| पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य
| कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान
| कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना
| धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा
| धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन
| धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश
| धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना
| धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार
| अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना
| अंगिरा की संतति का वर्णन
| बृहस्पति की संतति का वर्णन
| पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति
| पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन
| अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन
| सह अग्नि का जल में प्रवेश
| अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य
| इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार
| इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना
| अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन
| स्कन्द की उत्पत्ति
| स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण
| विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना
| अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना
| इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान
| स्कन्द के पार्षदों का वर्णन
| स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप
| स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक
| स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह
| कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति
| मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन
| स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार
| रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा
| देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध
| कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा
| द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा
| सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार
| शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना
| दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना
| दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति
| द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद
| कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय
| गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण
| कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश
| पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध
| पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय
| चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा
| दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन
| दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना
| दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश
| कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय
| दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना
| दैत्यों का दुर्योधन को समझाना
| दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान
| भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव
| कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान
| कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय
| कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार
| दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी
| दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति
| कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा
| युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन
| व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन
| दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा
| महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना
| देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार
| दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना
| द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना
| कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना
| जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना
| कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना
| द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर
| जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद
| जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण
| पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना
| द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन
| पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार
| युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना
| भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना
| शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना
| राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन
| रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति
| कुबेर का रावण को शाप देना
| देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना
| राम के राज्याभिषेक की तैयारी
| राम का वन को प्रस्थान
| भरत की चित्रकूट यात्रा
| राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप
| राम द्वारा मारीच का वध
| रावण द्वारा सीता का अपहरण
| रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार
| राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध
| राम और सुग्रीव की मित्रता
| राम द्वारा बाली का वध
| अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन
| रावण और सीता का संवाद
| राम का सुग्रीव पर कोप
| सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना
| हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना
| वानर सेना का संगठन
| नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण
| विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश
| अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना
| राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम
| राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध
| प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध
| रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना
| कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध
| इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा
| राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना
| लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध
| रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना
| राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध
| राम का सीता के प्रति संदेह
| देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन
| राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक
| मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति
| सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण
| सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय
| सावित्री और सत्यवान का विवाह
| सावित्री की व्रतचर्या
| सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना
| सावित्री और यम का संवाद
| यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना
| सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप
| राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता
| सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन
| द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना
| कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना
| सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश
| कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय
| कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन
| कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना
| कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या
| कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश
| कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन
| कुन्ती-सूर्य संवाद
| सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
| कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप
| अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति
| कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन
| कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति
| इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग
| युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश
| नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना
| यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद
| यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
| युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना
| यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना
| युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना
| भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श
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