त्रिंश (30) अध्याय: वन पर्व (अरण्य पर्व)
महाभारत: वन पर्व: त्रिंश अध्याय: श्लोक 38-42 का हिन्दी अनुवाद
कुन्तीनन्दन! आपकी इस आपत्ति को तथा दुर्योधन की समृद्धि को देखकर मैं उस विधाता की निन्दा करता हूँ, जो विषम दृष्टि से देख रहा है अर्थात सज्जन को दुःख और दुर्जन को सुख देकर उचित विचार नहीं कर रहा है। जो आर्य शास्त्रों की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला, क्रूर, लोभी तथा धर्म की हानि करने वाला है, उस धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन को धन देकर विधाता क्या फल पाता है? यदि किया हुआ कर्म कर्ता का ही पीछा करता है, दूसरे के पास नहीं जाता, तब तो ईश्वर भी उस पापकर्म में अवश्य लिप्त होंगे। इसके विपरीत, यदि किया हुआ पाप-कर्म कर्ता को नहीं प्राप्त होता तो इसका कारण यहाँ बल ही है (ईश्वर शक्तिशाली है, इसीलिये उन्हें पापकर्म का फल नहीं मिलता होगा)। उस दशा में मुझे दुर्बल मनुष्यों के लिये शोक हो रहा है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में द्रौपदीवाक्य विषयक तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
|