महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
वनगमन
द्रौपदी बोली- "मुझे तथा मेरे बच्चों को ले जाने के लिए मेरा भाई धृष्टद्युम्न भी आया हुआ है। मैंने उससे अपने भान्जों को ले जाने के लिए कह दिया। हे मुरली मनोहर! तुम सुभद्रा और अभिमन्यु को अपने साथ द्वारकापुरी ले जाओ। मैं अपने पतियों को छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी।" द्रौपदी के इस निश्चय को कोई न टाल सका। श्रीकृष्ण अभिमन्यु और सुभद्रा को लेकर द्वारिकापुरी चले गये। धृष्टद्युम्न द्रौपदी के बेटों को लेकर पांचाल लौट आये। चेदि देश के राजा धृष्टकेतु अपनी बहन अर्थात नकुल की पत्नी को और केकय देश के राजा अपनी बहन अर्थात सहदेव की पत्नी को विदा कराकर अपनी-अपनी राजधानियों की ओर लौट गये। जो थोड़े से नगरवासी और स्वामिभक्त राजकर्मचारी पाण्डवों के साथ अभी तक वन में रह रहे थे। उनसे धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा- "हे प्रजा जनों। आप लोग हमारे साथ यहाँ रहकर जो कष्ट भोग रहे हैं, उससे मुझे बड़ी पीड़ा होती है। आप सबके यहाँ रहने से इस तपोवन के तपस्वियों और साधकों के काम में भी बाधा विघ्न पड़ रहा है। उससे मुझे और भी अधिक पीड़ा हो रही है। आप लोगों से मेरी यह प्रार्थना है कि नगर में लौट जाएं। हम लोग बारह वर्षों तक वनवास करने के लिए प्रणबद्ध हैं। कृपा करके हम लोगों को शांतिपूर्वक अपना प्रण पालन करने दें।" इस प्रकार तरह-तरह से लोगों को समझा कर पाण्डवों ने उन्हें काम्यक नामक तपोवन से विदा किया। यह काम्यक वन कुरु जंगल में ही था। युधिष्ठिर ने सोचा कि यहाँ रहने से हमारी प्रजा के लोग बार-बार हमारे पास आते रहेंगे। यह देखकर दुर्योधन का क्रोध बराबर भड़कता रहेगा। प्रजा के हित में यह अच्छी बात नहीं होगी। इन सब बातों पर विचार करके पाण्डवों ने कहीं दूर जाने का निश्चय किया। वे लोग द्वैत वन में जाकर रहने लगे। कुछ समय बीतने के बाद युधिष्ठिर ने अर्जुन को यह सलाह दी कि तुम इस बीच में विभिन्न देशों का भ्रमण करो। कोल, किरात, पिशाच आदि जंगली जातियों के लोगों को प्रसन्न करके अपने पक्ष में मिलाओ। हमारा धर्म राजधर्म है राजपाट छूट जाने पर भी हमें अपना धर्म नहीं छोड़ना चाहिए। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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