महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
भरत की कथा
भरत विद्या और पराक्रम में अपने पिता से भी बढ़-चढ़कर निकले। उन्होंने उस सारी भूमि को अपने पराक्रम से जीत लिया, जिसे अब हम भारतवर्ष कहते हैं। उन्होंने बाह्लीक, ऐलम अथवा ऐलवर्त से लेकर यौन द्वीप तक सबको हराया। उनके राज्य का सारा इलाका उस समय भरतखण्ड कहलाता था। इन्हीं राजा भरत के समाज में ऋषिकर्मी ब्राह्मणों को पहली बार एक वर्ग के रूप में प्रतिष्ठा दी। उन्होंने ऋषियों की संगति में बैठ-बैठ कर ऊंचा ज्ञान लाभ किया। अब वे सोचने लगे कि मैं भरतखंड का सम्राट हूँ। मुझ में बड़ी शक्ति है, पर मैं अपनी मृत्यु तक को नहीं टाल सकता। मेरे बिना चाहे भी मौत किसी दिन आकर मुझे धर दबोचेगी और बेबस होकर अपनी इस काया से निकल जाऊंगा। इन विचारों से राजा भरत के मन में वैराग्यभाव उत्पन्न हो गया। वे तपस्या करने लगे और तपस्या करते-करते वे इतने बड़े सिद्ध हुए कि उनके लिए सर्दी, गर्मी, बरसात, सुख-दुःख आदि सब भाव एक समान हो गया। वे अपनी काया से बिल्कुल अलिप्त होकर भगवान में लीन रहते थे। उन्हें न कपड़ों की आवश्यकता थी और न भूख प्यास ही अधिक लगती थी। वे इतने सीधे थे कि लोग उन्हें जड़ भरत तक कह देते थे। एक बार प्रतापी राजा नहुष उन्हें कोई मामूली जंगली समझकर अपने कहार के बीमार पड़ने पर अपनी डोली उठाने की आज्ञा दे दी और वे बिना किसी प्रकार की चिन्ता के सरल भाव से डोली के कहार बन गये। बाद में जब राजा नहुष को यह मालूम हुआ कि यह तो प्रतापी चक्रवर्ती महाराज मनु भरत हैं और अपनी तपस्या के कारण जड़ भरत कहलाते हैं, तो उन्हें बड़ा पश्चाताप हुआ। उन्होंने भरत से क्षमा मांगी। जब तक यह पृथ्वी रहेगी और उसमें भारतवर्ष रहेगा तब तक महाराज भरत जी की कीर्ति सदा अमर रहेगी। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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