महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
महानाश की तैयारी
हस्तिनापुर से लौट कर श्रीकृष्ण ने जब पांडवों को वहाँ का हाल सुनाया तो युधिष्ठिर गम्भीर हो गये, बोले- "लगता है कि हमारे कुल का दुर्भाग्य अपने चरम बिन्दु तक पहुँचे बिना अब मानेगा नहीं। ऐसा लगता है कि दुर्योधन युद्ध के लिए वैसे ही मचल उठा है जैसे अबोध बच्चा दहकते अंगारों से आकर्षित होकर उनसे खेलने के लिए मचल उठता है। आप जलेगा और सारे घर को जलायेगा। हे कृष्ण! मैं बड़ा दुःखी हूं, मेरे मन में इस समय जहाँ न्याय और कर्तव्य की पुकार उठ रही है, वहीं इस महानाश की गहरी आशंकाओं से भरकर मेरा जी यह भी चाहता है कि वैराग्य धारण करके कहीं चला जाऊं और इस कुल घात के पाप से बचूं।" कृष्ण बोले- "भाई आप जैसे उदार हृदय वाले मनुष्य के मन में इस तरह का ऊहापोह होना स्वाभाविक ही है, परन्तु बुद्धिमान मनुष्य ऐसे अवसरों पर जो काम करते हैं वही आप भी कीजिए, यही मेरी सलाह है।" युधिष्ठिर गहरे विचार में पड़ गये, फिर बोले- "तुम ठीक ही कहते हो केशव, बुद्धिमान मनुष्य ऐसे कठिन अवसर पर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना पसन्द नहीं करता। वह कर्तव्य करता है। हे देवकीनन्दन! मैं अपना मन सब तरह से पक्का कर चुका हूँ। यह युद्ध केवल मेरे राज-पाट जीतने के लिए ही नहीं हो रहा है, वरन् एक ऐसी शासन पद्धति के लिए हो रहा है, जिसमें लोग अधिक सुखी, सम्पन्न और सुरक्षित हो सकते हैं। हमारे सामने महानाश तो अवश्य आने वाला है, पर हमें यह भी न भूलना चाहिए कि उसके बाद निर्माण का एक महान युग भी आ सका है। हे केशव! इस युद्ध को यदि हम अपने लिए न लड़कर नये भारत के निर्माण के लिए लड़ेंगे तो मेरा विश्वास है कि जीत हमारी होगी।" कृष्ण से यह कहकर युधिष्ठिर अर्जुन की ओर देखकर बोले- "अर्जुन मैं चाहता हूँ कि कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध के मोर्चे बांधना आरम्भ कर दो। इस बात का ध्यान रखना कि जिस जगह मोर्चे बांधे जायें और हमारी सेनाओं के पड़ाव पड़े, वह जगह न तो किसी मन्दिर या पूजा स्थान के पास हो और न किसी समान के पास हो। इस बात का भी ध्यान रखना कि तुम्हारी सेनायें शत्रुओं के आक्रमणों से अपना बचाव करते हुए उन्हें मारने के अधिक अवसर पा सकें।" |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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