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महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
दुर्योधन और कृपाचार्य की वार्ता
जब कर्ण मर गया तो कौरव सेना हताश हो गयी। यह बात मैं तुम्हें कल ही बतला चुका हूँ। अपनी सेनाओं का यह हाल देखकर दुर्योधन और भी अधिक दुःखी हो रहा था। आज इसकी छावनियों में बड़ा ही सन्नाटा था। हज़ारों सिपाही और योद्धा अब तक मारे जा चुके थे और सैकड़ों आज मैदान छोड़ कर भाग गये थे। उत्तर भारत के सभी युद्ध मोर्चों से लगभग ऐसी खबरें आ रहीं थीं। पाण्डव सेना कौरव साम्राज्य के बहुत बड़े हिस्से को अब तक जीत चुकी थी। दुर्योधन के पास अब हस्तिनापुर के आस-पास ही का कुछ क्षेत्र बच रहा था। वह मुंह लटकाये हुए बहुत ही उदास भाव से अपने डेरे में बैठा था। कृपाचार्य और अश्वत्थामा, दुर्योधन से मिलने आये। उन्हें देखकर दुर्योधन रो पड़ा, कहने लगा- “मैं लुट गया आचार्य, मेरे बहादुर भाई और साथी एक-एक करके चले गये। लड़ाई के इन सत्तरह दिनों में तो दुनिया ही उजड़ चुकी है। मैं बड़ा दुःखी हूँ।” कृपाचार्य बोले- “दुर्योधन, दुःखी होने से मनुष्य को कोई लाभ नहीं हो सकता। दुःख के कारणों को समझो और उन्हें दूर करने के उपाय सोचो। मैं समझता हूँ कि यदि तुम अब भी समझदारी से काम लो तो तुम्हारे और पाण्डवों के बीच में समझौता हो सकता है। मेरे समझाने से युधिष्ठिर अवश्य मान जायगा। अभी तो भीष्म महाराज भी जीवित हैं। उनका कहना तो युधिष्ठिर कभी टाल ही न सकेंगे।” दुर्योधन चुपचाप सुनता रहा फिर बोला- “नहीं आचार्य, अब तो हार-जीत का फैसला मेरे या पाण्डवों के मरने के बाद ही होगा। पाण्डवों की तरफ से जब स्वयं श्रीकृष्ण समझौता कराने के लिए आये थे, मैंने तब समझौता नहीं किया तो अब मैं क्या करूंगा। मेरी इस समय की चिन्ता तो यह है कि कल की लड़ाई के लिए सेनापति किसे बनाया जाय?” अश्वत्थामा बोले- “मेरी राय में तो अब हमारे बीच में शल्य ही ऐसे बचे हैं जिन्हें सेनापति बनाया जा सकता है।” “शल्य मामा के बजाय हम यदि अश्वत्थामा को अपना सेनापति बनायें तो कैसा रहेगा?” -दुर्योधन ने पूछा। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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