महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
यज्ञ का घोड़ा
पाण्डवों का घोड़ा पहले उत्तर दिशा की ओर गया। आमतौर से तो राजा लोग यज्ञ के घोड़ा और उसके संरक्षक महाबली अर्जुन का सत्कार करने के लिए हाथ बांधे खड़े ही मिला करते थे पर किसी-किसी से लड़ाई भी हो जाती थी। उत्तर में किरातों और मलेच्छों से उन्हें लड़ना पड़ा। थोड़ी ही देर में उन बर्बर जंगलियों ने भी घुटने टेक दिये। घूमते-घूमते घोड़ा त्रिगर्त (कांगड़ा) पहुँच गया। कांगड़े के वीर बड़े ही बांके थे। पहले कुरुक्षेत्र के मैदान में भी त्रिगर्तों से अर्जुन का सामना हो चुका था। एक बार मात खा चुकने पर भी स्वाभिमानी त्रिगर्त नरेश अपने राज्य से पाण्डवों का घोड़ा मनमाने ढंग से कदापि नहीं जाने दे सकता था। राजकुमारों ने घोड़ा पकड़ लिया। अर्जुन ने हंस कर राजकुमारों से कहा- “पुत्रों, मुझे धर्मराज की यह आज्ञा है कि जिन राजे-रजवाड़ों से हम कुरुक्षेत्र में लड़े थे उनके बेटों-पोतों से जहाँ तक बने युद्ध न करूं। मैं इसीलिए तुम लोगों से युद्ध नहीं करना चाहता। घोड़े को छोड़ दो। उसे जाने दो।” राजकमारों ने अपने पिता महाराज सूर्य वर्मा से जाकर पूछा। सूर्य वर्मा कड़क कर बोले- “जाकर अर्जुन से यह कह दो हम त्रिगर्त के निवासी पीढ़ियों तक अपने शत्रु से लगातार मोर्चा लेने का हौंसला रखते हैं। हम दोनों में हार जीत का फैसला हुए बिना यह घोड़ा लौटाया नहीं जायेगा।” त्रिगर्तों ने अर्जुन से जमकर युद्ध किया। एक बार तो राजा सूर्य वर्मा का तीर सीधा आकर उसकी कलाई में ही घुस गया जिससे अर्जुन अपना धनुष पकड़े हुए थे। झटका लगने से गाण्डीव हाथ से छूट कर गिरने लगा। यह देखकर राजा सूर्य वर्मा खिलखिला कर हंसने लगे। परन्तु अर्जुन ने वैसे ही फुर्ती से सर्व-विषहरण औषधि की बुकनी मुट्ठी में उठाई। तीर निकाला, घाव पर दवा बुरकी और बात की बात में उनका गाण्डीव फिर वैसा ही टंकारने लगा। एक दिन में त्रिगर्तों ने हार मान ली। दोनों ही एक-दूसरे की शूरवीरता के प्रशंसक बन गये और उनमें मित्रता हो गयी। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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