महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
द्रौपदी स्वयंवर
एक दिन ब्राह्मणों की एक बहुत बड़ी टोली उस नगर से पांचाल देश की ओर जा रही थी। वहाँ द्रुपद राजा ने अपने बेटी द्रौपदी का स्वयंवर रचाया था। यह समाचार सुनकर पाण्डवों ने भी वहीं चलने का निश्चय किया। ब्राह्मणों का वेश धारण करके ब्राह्मणों की टोली में घुले-मिले हुए वे द्रौपदी स्वयंवर में सम्मिलित होने के लिए चल दिये। मार्ग में महर्षि वेदव्यास जी से भेंट हुई। व्यास जी अपने पोतों से मिलकर प्रसन्न हुए। बातें करते हुए उन्होंने समझा कि ये नवयुवक हर तरह से योग्य और नीतिवान हैं। इससे उन्हें खुशी हुई। कुन्ती माता ने वेदव्यास जी से पूछा कि क्या इन बच्चों का वहाँ जाना उचित होगा। व्यास जी ने कहा कि वारणावत नगर में अपने मरने की बात उड़ जाने के बाद सार्वजनिक रूप से तुम सबके प्रकट होने का यह श्रेष्ठ अवसर आया है, इसलिए तुम लोग अवश्य जाओ। भगवान तुम्हारे साथ हैं। सत्य की सदा जय होती है। वेदव्यास जी से ऐसे शुभाशीर्वाद पाकर पाण्डव भाई अपनी माता के साथ दक्षिण पांचाल नगरी पहुँच गये। मार्ग में बहुत से मनोरम दृश्य, झीलें और छोटी-छोटी नदियों और हरियाली से भरा-पूरा दृश्यावलोकन होता रहा जिससे तनिक भी थकन अनुभव नहीं हुई। इस समय तक अनेक देशों से राजा और राजकुमार राजा द्रुपद के यहाँ आ चुके थे। चारों तरफ तम्बू ही तम्बू लगे थे। स्वागत-सत्कार के लिए हजारों आदमी तैनात थे। सामान की कमी नहीं थी। एक-एक राजा के साथ उनके सैकड़ों नौकर-चाकर, सिपाही, हाथी, घोड़े होते थे। ऐसे न जाने कितने राजा-राजकुमारों की भीड़ वहाँ पर मौजूद थी। पाण्डवों को दो-चार हस्तिनापुरी चेहरों की झलक भी देखने को मिल गई। हर तरह से सोच-समझकर उन्होंने राजा द्रुपद के किले के बाहर एक कुम्हार के घर में अपना डेरा डाला। हर दिन कोई-न-कोई भाई बाहर जाकर सब राजे-रजवाड़ों की टोह ले आया करता था। स्वयंवर मण्डप की सजावट और तड़क-भड़क की बातें तो चारों तरफ होती ही थीं, पर उस मछली की बड़ी प्रशंसा थी जो किसी कल के सहारे बराबर हवा में चकफेरियां लगाया करती थी। उस नाचती मछली के खम्भे के नीचे तेल भरा कढ़ाव रखा जायगा, जिसमें नाचती हुई मछली की आंख जो व्यक्ति, वेध देगा, वही द्रौपदी का पति चुना जायगा। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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