महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
राजसूय यज्ञ
इन बारह वर्षों में पाण्डवों की राजधानी इन्द्रप्रस्थ की महिमा बहुत बढ़ गई थी। युधिष्ठिर ने अपने आस-पास का बहुत बड़ा भू-भाग इस बीच में अपने प्रतापी भाइयों की बदौलत अपने अधिकार में कर लिया था। राजा युधिष्ठिर में ऐसी बड़ी विशेषता यह थी कि जिस राज्य को अपने हाथ में लेते थे उसकी प्रजा को सुख बहुत मिलता था। राज-काज चलाने में धर्मराज युधिष्ठिर बड़े ही चौकस और चतुर थे। प्रजा को लूटते-खसोटने वाले उद्दण्ड राजाओं को वे सदा डर दिखाकर वश में रखते थे और दुर्बल तथा छोटे राजाओं की उनसे रक्षा करते थे, इसलिए बहुत से छोटे-छोटे राजे-रजवाड़े आप ही धर्मराज युधिष्ठिर की शरण में आ जाते थे और अपनी रक्षा के निमित्त वे उन्हें प्रतिवर्ष अपने राज्य की आमदनी का एक भाग भेंट स्वरूप दिया करते थे। धर्मराज युधिष्ठिर का खजाना अब हीरे-मोती जवाहरात और सोने-चांदी से भर गया था। उन्होंने अपनी सेना की शक्ति भी अब इतनी बढ़ा ली थी कि हस्तिनापुर के कौरव लोग उन्हें सहसा किसी प्रकार का नुकसान पहुँचाने का साहस नहीं कर सकते थे। पाण्डव लोग भी उस समय तक उत्तर भारत के महत्त्वपूर्ण शक्तिशाली शासक माने जाते थे। एक दिन अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर आदि सब भाई बैठे हुए थे। राजा युधिष्ठिर ने कहा कि मेरा विचार अब राजसूय यज्ञ करने का है। भगवान ने जिसे भीम और अर्जुन के समान महान योद्धा भाई दिये हों, उस राजा को राजसूय यज्ञ करना ही चाहिए। भाइयों ने कहा कि आप बड़े हैं जैसा उचित समझें, करें। परन्तु हमारी सलाह यह है कि इस सम्बन्ध में कुशल मंत्रियों एवं विज्ञजनों से आपको मंत्रणा कर लेनी चाहिए। संयोग से नारद जी पहुँच गए। प्राचीन काल में हमारे देश में नारद नाम के भिक्षुओं की एक जमात थी। इसी तहर चरक नाम के एक-दूसरे प्रकार के साधुओं की जमात थी। चरक साधु चलते-फिरते रहते थे। और रोगियों की दवा-दारू किया करते थे। नारदों का काम हरिभक्ति का प्रचार करना, लोगों को उचित सलाह देना, दुष्टों को द्वंद्व के लिए उकसाना और साधुओं और सज्जन राजाओं को लड़ाई-भिड़ाई से दूर रहने की सलाह देना था। नारद सम्प्रदाय में प्रायः हंसोड़ और बुद्धिमान व्यक्ति ही भरती किए जाते थे। ऐसा लगता है कि इन नारदों की एक विशेषता यह भी होती थी कि ये दूर-दूर तक की सैर किया करते थे। अपने विस्तृत अनुभव से इन लोगों को समाज में बड़ी प्रतिष्ठा मिलती थी। बहरहाल नारद जी द्वार पर आए। महाराज धर्मराज को तुरन्त सूचना दी गई। उनका स्वागत करने के लिए महाराज स्वयं बाहर गए। बड़े आदर-सत्कार से उन्हें महल में लाकर ऊंचे आसन पर बिठलाया। सब तरह की बातों के बीच में धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा- "मेरी इच्छा होती है कि राजसूय यज्ञ सम्पन्न करूं। मेरे भाइयों ने योग्य पुरुषों से सलाह लेने के लिए कहा है। आप सब तरह से योग्य हैं। आप मुझे सलाह दीजिए कि राजसूय यज्ञ अभी करूं या न करूं?" |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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