महाभारत कथा -अमृतलाल नागर पृ. 198

महाभारत कथा -अमृतलाल नागर

भीष्म पितामह से भेंट

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हस्तिनापुर की राज्य-व्यवस्था एक बार अपने हाथ में लेकर तथा नये सिरे से राजकाज चलाने का चौकस प्रबन्ध करके पाण्डव भाई भीष्म पितामह के दर्शन करने गये। अपने अन्तकाल की प्रतीक्षा में पितामाह तीरों की सेज पर लेटे हुए तप कर रहे थे। पुराने समय में हमारे भारत देश में ऐसे अनेक तपस्वी साधु हुआ करते थे। भीष्म पितामह भी राजकाज में रहते हुए ऐसे ही तपस्वी थे। इसीलिए अपने अन्तकाल में वे बाणों की शैय्या पर ही लेटे।

पितामह के सामने जाने में अर्जुन को बड़ी लज्जा मालूम हो रही थी। अर्जुन की आत्मा धिक्कारती थी कि तूने शिखण्डी की आड़ लेकर अपने बाबा को मारा। पर पितामह के कहने से उन्हें यह मालूम हुआ कि खुद उन्होंने ही श्रीकृष्ण के पास यह गुप्त सन्देश भेजा था कि अब मैं अधिक दिनों तक जीवित नहीं रहना चाहता, इसलिए आप शिखण्डी को मेरे सामने ले आइयेगा। उसे देखते ही मैं अपने हथियार डाल दूंगा। इस प्रकार निरंतर बरसते अर्जुन के बाण अपनी काट न किये जाने पर मुझे अवश्य ही मार डालेंगे। शिखण्डी के बाणों से घायल होकर पितामह यदि मरते तो उनकी आत्मा को शान्ति नहीं मिल सकती थी। इसलिए अर्जुन अनजाने ही में अपने निहत्थे पितामह पर बाण चला गये। अर्जुन ने कहा- “हे सखे, तुमने आज तक मुझे यह भेद क्यों नही बतलाया था?”

भीष्म पितामह बोले- “मुझ पर कृपा करने के लिए ही तुम्हें यह भेद नहीं बतलाया। मैं अपने जीवन से ऊब उठा था। केशव ने ऐसी माया रची कि तेरे बाणों से युद्ध में घायल तो अवश्य हुआ किन्तु मर न सका। मुझे तो अपने वंश का महानाश देखना बदा था। अस्तु इस शरशैय्या व्रत से मैंने निश्चय ही आत्मज्ञान और शांति पायी है। अब तो भगवान सूर्य नारायण के उत्तरायण होने की बात देखते हुए रामनाम जप रहा हूँ।”

श्रीकृष्ण ने कहा- “हे परम पूज्य महावीर आपके समान तपोनिष्ठ ब्रह्मचारी बड़े-बड़े ऋषि, मुनियों में भी कम दिखाई देते हैं। हमारी नगर सभ्यता में तो आपके समान एक भी व्यक्ति आज ढूंढ़े से नहीं दिखलाई पड़ता। आपके दर्शन करके तथा आप से बातें करने का अवसर पाकर हम सब अपने आपको परम सौभाग्यशाली समझते हैं। आपने अपने पिता, सौतेली माता, सौतेले भाइयों और उनके बच्चों तक के लिए जैसा अनुपम त्याग किया है वैसा कोई नहीं कर सकता। महात्यागी राजर्षि आपको यदि कष्ट न हो तो हमें अपने उपदेशों का लाभ दें।”

भीष्म हंसे और कहा- “कष्ट? नहीं। मेरा शरीर क्षत्रिय संस्कारों में पला है इसे केवल बाणों की चुभन ही प्यारी लगती है। और रहा मेरा मन, वह अब ब्रह्मलीन है। मुझे भला कष्ट कहां? यह अनुभव और विचार भगवान ने मुझे दूसरों को राह सुझाने के लिए ही दिये हैं। उन्हें तुम सब को दे जाना मेरा कर्तव्य है।”

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

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क्रमांक विषय का नाम पृष्ठ संख्या
1. सत्यवती के बेटे 7
2. पाण्डु का राज्याभिषेक 10
3. शिक्षा का प्रबन्ध 12
4. द्रुपद से युद्ध 17
5. विदुर की चतुराई 19
6. द्रौपदी स्वयंवर 23
7. राजधानी का चुनाव 27
8. सुन्द, उपसुन्द की कथा 28
9. अर्जुन का वनवास 32
10. सुभद्रा और अर्जुन का विवाह 38
11. राजसूय यज्ञ 42
12. जुए में पराजय 53
13. वनगमन 59
14. विराट नगर में पाण्डव 72
15. कौरवों का आक्रमण 83
16. अभिमन्यु का विवाह 87
17. शल्य का स्वागत 93
18. युद्ध की ओर 97
19. महानाश की तैयारी 108
20. युद्ध का आरम्भ 112
21. भीष्म-युधिष्ठिर की भेंट 114
22. द्रोणाचार्य का पराक्रम 121
23. भीमसेन का युद्ध-चमत्कार 122
24. दधीचि का अस्थिदान 123
25. भीष्म की शर-शैय्या 125
27. भीमसेन और द्रोणाचार्य का पराक्रम 128
28. अभिमन्यु का पराक्रम 135
29. अर्जुन सुभद्रा मिलन 141
30. अश्वत्थामा की प्रतिज्ञा 148
31. अश्वत्थामा का प्रचण्ड युद्ध 153
32. मामा भान्जे की भेंट 159
33. दुर्योधन और कर्ण की सलाह 165
34. शल्य सारथी बने 167
35. कौवे और हंस की कहानी 170
36. युधिष्ठिर और अर्जुन की मंत्रणा 172
37. भीम दु:शासन युद्ध 179
38. दुर्योधन और कृपाचार्य की वार्ता 186
39. शल्य और युधिष्ठिर का युद्ध 188
40. धृतराष्ट्र और गांधारी का विलाप 192
41. दुर्योधन और अश्वत्थामा की भेंट 194
42. महाविलाप 197
43. भीष्म पितामह से भेंट 198
44. भीष्म की कथाएं 199
45. ध्रुव की कथा 200
46. प्रियव्रत के वंश की कथा 206
47. ऋषभ की कथा 207
48. भरत की कथा 208
49. वेद की कथा 209
50. वेन और पृथु की कथा 210
51. इन्द्र की कथा 212
52. हस्तिनापुर में युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 215
53. धृतराष्ट्र आदि का सन्यास ग्रहण 216
54. अश्वमेध यज्ञ 217
55. परीक्षित के दो जन्म 219
56. खजाने की खोज 220
57. यज्ञ का घोड़ा 221
58. सिन्धु देश में 222
59. बाप बेटे की लड़ाई 223
60. यादवों का अन्त 227

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