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महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
भीष्म पितामह से भेंट
हस्तिनापुर की राज्य-व्यवस्था एक बार अपने हाथ में लेकर तथा नये सिरे से राजकाज चलाने का चौकस प्रबन्ध करके पाण्डव भाई भीष्म पितामह के दर्शन करने गये। अपने अन्तकाल की प्रतीक्षा में पितामाह तीरों की सेज पर लेटे हुए तप कर रहे थे। पुराने समय में हमारे भारत देश में ऐसे अनेक तपस्वी साधु हुआ करते थे। भीष्म पितामह भी राजकाज में रहते हुए ऐसे ही तपस्वी थे। इसीलिए अपने अन्तकाल में वे बाणों की शैय्या पर ही लेटे। पितामह के सामने जाने में अर्जुन को बड़ी लज्जा मालूम हो रही थी। अर्जुन की आत्मा धिक्कारती थी कि तूने शिखण्डी की आड़ लेकर अपने बाबा को मारा। पर पितामह के कहने से उन्हें यह मालूम हुआ कि खुद उन्होंने ही श्रीकृष्ण के पास यह गुप्त सन्देश भेजा था कि अब मैं अधिक दिनों तक जीवित नहीं रहना चाहता, इसलिए आप शिखण्डी को मेरे सामने ले आइयेगा। उसे देखते ही मैं अपने हथियार डाल दूंगा। इस प्रकार निरंतर बरसते अर्जुन के बाण अपनी काट न किये जाने पर मुझे अवश्य ही मार डालेंगे। शिखण्डी के बाणों से घायल होकर पितामह यदि मरते तो उनकी आत्मा को शान्ति नहीं मिल सकती थी। इसलिए अर्जुन अनजाने ही में अपने निहत्थे पितामह पर बाण चला गये। अर्जुन ने कहा- “हे सखे, तुमने आज तक मुझे यह भेद क्यों नही बतलाया था?” भीष्म पितामह बोले- “मुझ पर कृपा करने के लिए ही तुम्हें यह भेद नहीं बतलाया। मैं अपने जीवन से ऊब उठा था। केशव ने ऐसी माया रची कि तेरे बाणों से युद्ध में घायल तो अवश्य हुआ किन्तु मर न सका। मुझे तो अपने वंश का महानाश देखना बदा था। अस्तु इस शरशैय्या व्रत से मैंने निश्चय ही आत्मज्ञान और शांति पायी है। अब तो भगवान सूर्य नारायण के उत्तरायण होने की बात देखते हुए रामनाम जप रहा हूँ।” श्रीकृष्ण ने कहा- “हे परम पूज्य महावीर आपके समान तपोनिष्ठ ब्रह्मचारी बड़े-बड़े ऋषि, मुनियों में भी कम दिखाई देते हैं। हमारी नगर सभ्यता में तो आपके समान एक भी व्यक्ति आज ढूंढ़े से नहीं दिखलाई पड़ता। आपके दर्शन करके तथा आप से बातें करने का अवसर पाकर हम सब अपने आपको परम सौभाग्यशाली समझते हैं। आपने अपने पिता, सौतेली माता, सौतेले भाइयों और उनके बच्चों तक के लिए जैसा अनुपम त्याग किया है वैसा कोई नहीं कर सकता। महात्यागी राजर्षि आपको यदि कष्ट न हो तो हमें अपने उपदेशों का लाभ दें।” भीष्म हंसे और कहा- “कष्ट? नहीं। मेरा शरीर क्षत्रिय संस्कारों में पला है इसे केवल बाणों की चुभन ही प्यारी लगती है। और रहा मेरा मन, वह अब ब्रह्मलीन है। मुझे भला कष्ट कहां? यह अनुभव और विचार भगवान ने मुझे दूसरों को राह सुझाने के लिए ही दिये हैं। उन्हें तुम सब को दे जाना मेरा कर्तव्य है।” |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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