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महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
दुर्योधन और कृपाचार्य की वार्ता
अश्वत्थामा बोले- “भाई मैं कुशल संगठन नहीं करता। फिर इस समय तो मेरा मन शान्त भी नहीं रहा। मैं यह प्रतिज्ञा तो करता हूँ कि आज के युद्ध में कोई आश्चर्यजनक करिश्मा मैं अवश्य दिखलाऊंगा लेकिन सेनापति तुम्हें शल्य को ही बनाना चाहिए। उनके सेनापति बनने से हमारे बचे-कुचे क्षत्रिय राजा एक बार फिर जी जान से लड़ने के लिए जुट जायेंगे। क्योंकि यह बात अब सबको मालूम पड़ चुकी है कि शल्य ने पाण्डवों से कर्ण की मौत का बदला लेने की प्रतिज्ञा कर रखी है।” कृपाचार्य ने भी जब अश्वत्थामा के प्रस्ताव का ही समर्थन किया तो दुर्योधन शल्य मामा से मिलने के वास्ते उनके डेरे पर गये। प्रस्ताव सुनकर शल्य बोले- “हे दुर्योधन, मैंने कर्ण से जो प्रतिज्ञा की थी उसे आज अवश्य पूरी करूंगा, परन्तु तुम्हारे लिये मेरी यही सलाह है कि पाण्डवों से समझौता कर लो।” “नहीं मामा, मेरा समझौता तो अब केवल मौत से ही हो सकता है। जिन पाण्डवों को मैंने अपने मनमाने ढंग से अब तक नचाया उनके आगे अब मैं स्वयं हरगिज नहीं नाच सकता। अब तो जो होना है सो होकर ही रहेगा।” दुर्योधन ने कहा। शल्य बोले- “हमारे पास अब जितनी सेना बची है उसे देखते हुए मैं समझता हूँ कि अधिक से अधिक हम लोग एक या दो दिन तक ही पाण्डवों से लड़ पायेंगे। किन्तु मान लो कि आज यदि मेरी भी मृत्यु हो गयी तो फिर कल से तुम्हारी रक्षा कौन करेगा?” दुर्योधन बोला- “फिर मुझे रक्षा की आवश्यकता ही न रह जायगी। आज मेरा आखिरी दांव होगा मामा, या तो आज मेरे, आपके, कृपाचार्य और अश्वत्थामा के बल पौरुष से पाण्डव मारे जायेंगे और या फिर हम ही न रहेंगे।” |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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