महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
महाविलाप
लड़ाई का मैदान बड़ा ही मनहूस लग रहा था। पिछले अठारह दिनों में जिस भूमि पर बड़े-बड़े योद्धाओं के चमत्कारी कारनामे देखे गये थे वहीं अब चीलों, गिद्धों, कौवे, गीदड़ों और कुत्तों की लड़ाइयां मच रही थीं। मरे हुए लोगों का मांस खाने के लिए ये पशु-पक्षी आपस में नोंच-खसोट मचाते हुए भयंकर शोर कर रहे थे। युद्ध-भूमि की मनहूसियत को देखकर बड़े-बड़े वीरों के कलेजे भी भर उठते थे। वह युद्ध जिसमें भाग लेने के लिए लाखों सिपाही और योद्धा आए थे, अपनी समाप्ति पर और भी भयंकर लग रहा था। दुर्योधन के तथा उसके सलाहकार लोगों के पाप से इतना बड़ा महानाश हुआ। मनुष्य अगर अपने कर्मों के नतीजों पर भी पहले से ही विचार कर लिया करते तो इसे ऐसे बुरे दिन कभी देखने को न मिले। युद्ध बीत जाने पर रिवाज के अनुसार रनिवास की औरतें तथा छोटे-छोटे राज-सरदारों की पत्नियां अपने स्वर्गवासी प्रियजनों का शोक मनाने के लिए आयीं। द्रौपदी, गान्धारी, कुन्ती तथा धृतराष्ट्र के बेटों की विधवा पत्नियां ऐसा विलाप कर रही थीं कि सुनने वालों के कलेजे हिल-हिल उठते थे। राजा युधिष्ठिर ने युद्ध भूमि की लाशों को जलाने तथा मरने वालों की श्राद्ध इत्यादि करने की आज्ञा दी। जिस दिन सब पित्रों को पिण्डदान देना था उस दिन कुन्ती माता अचानक युधिष्ठिर के पास आई और गम्भीर स्वर में कहा- “बेटा, कर्ण का कर्म तुम्हीं करना।” यह सुनकर युधिष्ठिर बहुत चौंके। कुन्ती माता ने कहा- “कर्ण मेरे कुवाँरेपन में पैदा हुआ था। सामाजिक डर के मारे मैंने उसे डलिया में गद्दी तकिये बिछाकर नदी में बहा दिया था। अधिरथ सारथी उसे उठा ले गया इसीलिए वह सूत का बेटा कहलाया किन्तु वास्तव में वह तेरा सगा बड़ा भाई था।” यह कथा सुनकर युधिष्ठिर तथा दूसरे भाइयों को भी बड़ा दुख हुआ। श्रीकृष्ण ने उन्हें समझाया कि जो होना था सो हो गया। बीती हुई बात के लिए शोक करना बुद्धिमानी का कार्य नहीं है। कर्ण युद्ध भूमि में मारे गये इसलिए वीरों की मृत्यु का शोक नहीं मनाया जाना चाहिए। युधिष्ठिर भइया, आप प्रेम से अपने बड़े भाई का श्राद्ध कीजिए।” |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज