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महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
हस्तिनापुर में युधिष्ठिर का राज्याभिषेक
हस्तिनापुर आकर युधिष्ठिर का नये सिरे से राज्याभिषेक हुआ। श्रीकृष्ण और सात्यकि धर्मराज के सामने बैठे थे। भीमसेन और अर्जुन युधिष्ठिर के अगल-बगल सोने से मढ़ी और नगीने जड़ी चौकियों पर विराजमान थे। नकुल और सहदेव कुन्ती माता के सिंहासन के आस-पास बैठे थे। गान्धारी, धृतराष्ट्र, विदुर और पाण्डव के पुरोहित धौम्य ऋषि भी श्रेष्ठ आसनों पर विराजमान थे। धर्मराज ने अक्षत, सफेद फूल, मिट्टी, सोना, चांदी और जवाहरात का स्पर्श किया। तब प्रजा के लोग और पुरोहित जी अनेक मंगल वस्तुयें लेकर नये राजा का अभिषेक करने के लिए आगे बढ़े। रानी द्रौपदी और महाराज युधिष्ठिर ने अग्नि में आहुति दी। पुरोहित धौम्य जी ने मंत्र पढ़े। फिर चाचा धृतराष्ट्र के साथ श्रीकृष्ण उठ कर आगे आये। प्रजा के प्रतिनिधि उनके पीछे हो लिये। सब ने शंख के जल से धर्मराज युधिष्ठिर को अभिव्यक्त किया। फिर महाराज और महारानी सिंहासन पर बैठे। उनके बैठते ही तुरही, नरसिंघे, भेरी, नगाड़े आदि बजने लगे। ब्राह्मणों ने वेद पाठ करना आरम्भ किया और इसके तुरन्त बाद ही युधिष्ठिर ने अपना राजकाज सम्हाल लिया। राज्याभिषेक होने के कुछ दिन बाद श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से द्वारका जाने के लिए आज्ञा मांगी। जीवन के सारे सुख-दुखों में श्रीकृष्ण ही पाण्डवों के अनन्य साथी थे। उनकी रणनीति कुशलता के कारण ही सब पाण्डवों को विजय मिली थी। हर आड़े मौके पर श्रीकृष्ण की सूझ-बूझ काम आई। इसलिए उन्हें विदा करते समय पांचों भाइयों और द्रौपदी, सुभद्रा आदि रानियों के दिल भर आये। कुन्ती माता ने भी भरे मन से अपने भतीजे श्रीकृष्ण को असीसा। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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