महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
अश्वमेध यज्ञ
हस्तिनापुर आकर पाण्डव बन्धु अपना राज-काज सम्हालने लगे। पर युधिष्ठिर का मन पूरी तरह से काम-काज में नहीं लगता था। अपने और अपने भाइयों के पुत्रों का नाश हो जाने से उन्हें अपनी दुनिया बहुत ही सूनी लगती थी। अभिमन्यु की विधवा पत्नी उत्तरा गर्भवती थी। सब लोग दिन-रात यही मनाया करते थे कि बेटा हो जिससे पाण्डव वंश में कोई राज-पाट सम्हालने के लिए पैदा हो जाय। उत्तरा की ओर से सभी को बहुत चिन्ता रहा करती थी। बेचारी बहुत कच्ची उमर में विधवा हो गई थी और कुछ ही दिनों के हेर-फेर में उसका पति, भाई पिता आदि परम प्रियजन मारे गये थे। उत्तरा का कोमल मन इतना भीषण आघात सह नहीं पाता था। वह बार-बार बेहोश हो जाया करती थी। सूख कर कांटा हो गयी थी और उससे खाते-पीते भी नहीं बनता था। उसकी सास द्रौपदी, सुभद्रा आदि इस बात से बेहद चिन्तित रहती थीं कि बहूरानी यदि अपना तन-मन न सम्हालेगी तो होने वाली सन्तान के जीवन पर भी उसका बुरा असर पड़ सकता है। एक ओर तो यह चिन्ता थी और दूसरी ओर राज खजाना ख़ाली हो जाने के कारण धर्मराज दिन-रात बराबर यही सोचा करते थे कि उनके साम्राज्य की यह झंझरी नाव आखिर कैसे चलेगी? दैव संयोग से ऐसे समय में महर्षि वेदव्यास जी हस्तिनापुर पधारे। उनके आने से सबको ऐसा लगा कि मानो मरुभूमि में हरियाली आ गयी हो। युधिष्ठिर ने अपनी चिन्ताएं महर्षि को बतलायीं। महर्षि बोले- “हे युधिष्ठिर, तुम ज्ञानी, सुविचारक और धैर्यवान होते हुए भी व्यर्थ में अपने आपको दुखी कर रहे हो। हे धर्मराज, दुनिया में जो पैदा होता है वह एक न एक दिन मरता भी अवश्य है। न किसी व्यक्ति के जन्म लेने पर किसी का वश है और उसके मरने पर। सब अपने-अपने कर्मों के अनुसार जीते हैं। अपने हिस्से का कर्तव्य पालन करते हैं और चले जाते हैं। तुम लोग दुर्योधन आदि कौरव अगर पैदा न होते तो भारतीय प्रजा को भले-बुरे शासन का ज्ञान भला कैसे हो सकता था। यह युद्ध हमने तुमने नहीं लड़ा बल्कि परिस्थितियों ने नियति का विधान बनकर यह महायुद्ध करवाया था। यह युद्ध तुम्हारा और कौरवों का न होकर न्याय-अन्याय का युद्ध था। इसलिए तुम यह मत समझो कि तुम जीते हो बल्कि यह समझो कि न्याय जीता है। अपने इस राज-पाट को न्याय रूपी भगवान का समझकर तुम लगन से इसकी सेवा करो।” |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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