महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
वनगमन
सदा सुखों में पले पाण्डव अब कष्ट में अपने दिन बिता रहे थे। वे जंगल में लकड़ी काट कर लाते थे, कंद-मूल, फल तथा जंगल में उत्पन्न होने वाली भोजन सामग्री का संग्रह करते थे और तपोवन के दूसरे बूढ़े ऋषि-मुनियों की सेवा भी बड़े प्रेम और जतन से किया करते थे। इस प्रकार पाण्डव भाइयों ने तो अपना मन किसी तरह बहला लिया था, किन्तु द्रौपदी रानी के मन का दु:ख किसी तरह से भी हल्का नहीं होता था। पाण्डवों के फुफेरे भाई श्रीकृष्ण को जब पांडवों के वनवास की खबर मिली तो वे वन में पांडवों से मिलने के लिए आए। और भी अनेक राजे आए जिनकी पाण्डव से या तो मित्रता थी या वे उनके नातेदार थे। रोज-रोज कोई न कोई राजा या सामंत पाण्डवों से मिलने के लिए जंगल में आया ही करता था। किन्तु श्रीकृष्ण के आने से पाण्डवों को अपार सुख मिला। द्रौपदी को तो मानो श्रीकृष्ण के रूप में सुखों की खान ही मिल गई थी। उन्होंने श्रीकृष्ण के आगे रो-रो कर अपना कलेजा हल्का किया। कहने लगी कि मेरे साथ तो महाबली पतियों ने भी कोई न्याय नहीं किया। मेरे लाख मना करने पर भी धर्मराज उन बेइमानों से जुआ खेलने के लिए गए और यह दुख के दिन जान-बूझ कर हमारे लिए लाये। धर्मराज युधिष्ठिर पर द्रौपदी का क्रोध और राजपाट नष्ट होने के कारण उनका विलाप देखकर श्रीकृष्ण को बड़ी दया आई। उन्होंने तरह-तरह से द्रौपदी को समझाया। उन्होंने कहा- "हे देवि! भगवान की महिमा अपरम्पार है। यह मत समझो कि दु:ख और यह सारे संकट केवल तुम्हारे तथा तुम्हारे पतियों जैसे भले लोगों को ही घेर रहे हैं, तथा दुष्ट लोग सुख भोग रहे हैं। यह केवल थोड़े दिनों की हिलती-फिरती छाया भर है। छल से तुम्हारा राज-पाट छीनकर जो लोग आज तुम्हें सता कर प्रसन्न हो रहे है, वे सच पूछो तो, अपनी आने वाली घनघोर विपत्तियों और कष्टों के दिनों को मानो हंस-हंस कर बुला रहे हैं। देवि! धैर्य रखो, अपने प्रतापी पतियों पर क्रोध मत करो। धर्मराज के धर्म का फल तुम लोगों को अवश्य मिलेगा। इसी तरह दुर्योधन आदि कौरवों को उनके अधर्म का फल निश्चय ही मिलेगा।" श्रीकृष्ण के समझाने से द्रौपदी का शोक किसी तरह हल्का हुआ। श्रीकृष्ण ने पाण्डवों से कहा- "मेरी इच्छा है कि मैं द्रौपदी तथा उसके बेटों और सुभद्रा तथा उसके बेटे अभिमन्यु को अपने साथ द्वारका ले जाऊं।" |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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