महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
वनगमन
धर्मराज की यह भली मंत्रणा सुनकर अर्जुन यात्रा पर निकले। उन्होंने हिमालय तथा उत्तर-पश्चिम के अनेक देशों का भ्रमण किया। गुणी जनों से नये-नये हथियार और उन्हें चलाने की विद्या सीखी तथा इस प्रकार घूमते-घूमते वे मध्य एशिया में निवास करने वाली प्राचीन देवजाति के राजा इन्द्र की सभा में पहुँचे। देवजाति आर्य संघ के धर्मात्मा लोगों की मुखिया थी। इस प्रकार इन्द्र देवों और मनुष्य वंशी आर्यों का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति माना जाता था। इन्द्र के दरबार में अर्जुन की बड़ी आवभगत हुई। बूढ़े इन्द्र ने अर्जुन की अपने बेटे की तरह स्नेह और मान दिया। देवराज इन्द्र के यहाँ महाबली अर्जुन पांच वर्षों तक रहे। इन्द्र उन्हें बहुत चाहने लगे थे। उन्होंने अर्जुन को अस्त्र-शस्त्र चलाने की बहुत-सी गुप्त विद्यायें सीखने का मौका दिया। अर्जुन ने इस अवसर का अच्छा लाभ उठाया। इन्द्र बोले- "हे अर्जुन, तुमने हमारी गुप्त अस्त्र-शस्त्र विद्याओं को तो सीख लिया पर हमारी इच्छा है कि तुम संगीत और नृत्य कला का भी अभ्यास कर लो।" अर्जुन नाच-गाना सीखने में कोई दिलचस्पी नहीं रखते थे। परन्तु पिता के समान पूज्य देवराज इन्द्र की आज्ञा को टालना उनके लिए असम्भव था। वह चित्रसेन गन्धर्व से यह विद्या सीखा करते थे। चित्रसेन से अर्जुन की दोस्ती दिनोंदिन गहरी होने लगी। परन्तु वे नाच सीखने से अधिक उसके साथ गप्पें ही लगाया करते थे। मगर इन गप्पों के सहारे ही महाबुद्धिमान अर्जुन ने नृत्य शास्त्र की सारी बारीकियां समझ ली। इन्द्र के दरबार की अप्सरायें नृत्य कला में बड़ी ही नामी थीं मेनका, रंभा, चित्रसेना, गोपाली, उर्वशी एक से एक नामी नाचनेवालियों का जमघट वहाँ सदा जुड़ा ही रहता था। अर्जुन ने नृत्य कला का अभ्यास तो कम किया पर इन अप्सराओं के नृत्य कला को देख-देखकर वह ऐसी अच्छी आलोचना करने लगे कि इन्द्रपुरी के बड़े-बड़े उस्ताद भी उनकी आलोचना का दम भरने लगे। उर्वशी नाचने की कला में जितनी ही निपुण थी उतनी ही उसके शास्त्र की सिद्ध जानकार भी थी। अर्जुन की बातों से वह उन पर रीझ गई। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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