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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
6. कंस के भेजे हुए श्रीधर नामक ब्राह्मण का व्रज में आगमन और व्रजरानी के द्वारा उसका सत्कार
भाग्य क्रम से व्रजेन्द्र भी आज गोष्ठ में चले गये थे। मथुरा से लौट कर जब व्रजराज ने पूतना घटित उत्पात की सारी गाथा सुनी, तब से उन्होंने गोष्ठ की ओर जाना, अथवा कहीं भी दूर जाना सर्वथा स्थगित कर रखा था। उनका हृदय अत्यन्त सशंकित हो गया था। वे प्रायः सोचा करते - भाई वसुदेव की बता अक्षरशः सत्य निकली, भाई ने तो वहीं सावधान किया था-
‘तुम्हें बहुत काल तक यहाँ नहीं ठहरना चाहिये, गोकुल में उत्पात हो रहे हैं।’ इसीलिये गोकुल से बाहर जाना तो दूर रहा, व्रजेन्द्र प्रासाद से भी अलग नहीं होते थे। बार-बार अन्तःपुर में आते एवं शिशु को सकुशल देख कर आनन्द मग्न हो जाते। व्रजेन्द्र की उपासना का ध्यान तो उसी क्षण परिवर्तित हो चुका था, जिस क्षण उन्होंने इस शिशु का मुख देखा। पर वाणी इष्ट मन्त्र का जप करती रहती थी। किंतु जब मथुरा से लौटे, पूतना के भीषण चंगुल से अक्षत रक्षित पुत्र को गोद में लिया एवं उसका मुख देखा तो उस क्षण से मानो मन्त्र भी बदल गया। तब से इष्ट मन्त्र का जप करते-करते व्रजेन्द्र भूल कर यह जपने लग जाते -
‘यदि श्री नारायण ने मेरे जैसे कृपण के हाथ में तुम्हें दिया है तो वे ही आगे भी सारी व्यवस्था करेंगे, सब कुछ निर्वाह करेंगे, वे अवश्य तुम्हारी रक्षा करेंगे; मेरे अपराधों को वे सहते आये हैं, आगे भी सहेंगे।’ |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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