विषय सूची
श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
6. कंस के भेजे हुए श्रीधर नामक ब्राह्मण का व्रज में आगमन और व्रजरानी के द्वारा उसका सत्कार
व्रजराज के सामने शिशु का मुख मण्डल निरन्तर वर्तमान रहता तथा जब भावावेश बढ़ जाता तो वे ‘निर्वोढा, निर्वोढा’ (निर्वाह करेंगे, निर्वाह करेंगे) कहते हुए पुत्र के पास दौड़ पड़ते एवं हृदय से लगा कर आत्म विस्मृत हो जाते। पर जब तेईस दिन सकुशल बीत गये, व्रजपुर पर कोई विपत्ति नहीं आयी, व्रजवासियों के प्रतिदिन होने वाले उमंग भरे उत्सवों में कोई व्याघात नहीं आया, तब व्रजेन्द्र के मन में पुत्र की अनिष्ट-आशंका कुछ शिथिल पड़ गयी। इसी से वे आज गोष्ठ की ओर जाने का साहस कर सके, व्रजरानी को सावधान करके गोष्ठ की ओर चले गये थे। उनके पीछे यह राक्षस हृदय ब्राह्मण आया। ब्राह्मण प्रतिदिन ही आते थे। व्रजेन्द्र उनकी इतनी सेवा करते कि ब्राह्मण आशीर्वाद देते-देते गद्गद हो जाते। किंतु वे आज अनुपस्थित थे। अतः जैसे ही श्रीधर आया कि व्रजरानी स्वयं उसकी सेवा में जुट पड़ीं। अचिन्त्य लीला महाशक्ति की प्रेरणा से दासियों ने तो यह समझ लिया कि यशोदा नन्दन के पास माता रोहिणी चली गयी हैं, एवं पाकशाला में बैठी हुई रोहिणी ने यह अनुमान कर लिया कि ‘दासियाँ पुत्र के पास आ गयी हैं, ब्राह्मण देव वहाँ विराजमान हैं ही। फिर चिन्ता किस बात की?’ पर वास्तव में वहाँ है केवल व्रजेन्द्र नन्दन तथा घात में बैठा हुआ नीच बुद्धि श्रीधर। श्रीधर मन-ही-मन प्रसन्न हो रहा है - बड़ा अच्छा अवसर है, सभी अपने-आप चले गये! श्रीधर ने दृष्ठि उठाकर यशोदा नन्दन की ओर देखा। पर वह देखकर भी वस्तुतः न देख सका। वे इस समय एक छोटे-से पालने पर पड़े हैं। जाते समय जननी यशोदा ने पालने की डोरी ढीली करके उसे पृथ्वी से हटा दिया है - इस भय से ‘मेरे पीछे से शिशु को कहीं कोई वेग से झुलाने न लगे।’ निकट ही एक सूप पड़ा है। उसका कोना पालने से सटा दिया गया है - इसलिये कि किसी का दृष्टि दोष पुत्र का स्पर्श न कर सके। भला, जिसके भय से पवन संचारित होता है, सूर्य प्रतिदिन पूर्व क्षितिज पर प्रकाशित होकर, चार पहर ताप देकर पश्चिम क्षितिज में विलीन हो जाता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज