श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
68. श्रीकृष्ण का कालिय को अपने चारों ओर घुमाकर शान्त कर देना और फिर उसके फनों पर कूद कर चढ़ जाना, ललित नृत्य करने लगना; देवताओं द्वारा सुमन-वृष्टि तथा ऋषियों द्वारा स्तव पाठ, गन्धर्वों द्वारा गान एवं चारणों द्वारा वाद्य सेवा; कालिय का अन्त समय में प्रभु को पहचान लेना और उनकी शरण वरण करना
किंतु कालिय के बल की तो एक सीमा है। अनन्त अपरिसीम बलशाली से होड़ करने जाकर वह कब-तक टिक सकता था। देखते-देखते उसकी सम्पूर्ण शक्ति समाप्त हो गयी, घूम-घूम कर वह अत्यन्त श्रान्त हो गया। उसमें अब इतनी सामर्थ्य भी न रही कि अतिशय मन्द गति से भी नीलसुन्दर का अनुसरण कर सके। आखिर भ्रान्त-सा हुआ वह एक ओर खड़ा हो गया। दीर्घ निःश्वास आने लगे। आसन्न मृत्यु-जैसी उसकी दशा हो गयी। हाँ, उसने फन अब भी ऊपर ही उठे थे, जिनकी ओट से अभिमान स्पष्ट रूप से झाँक रहा था। पर अब तो योजना दूसरी ही है। मदोन्मत्त कालिय स्वयं नतमस्तक न हो सका, न सही’ करुणा वरुणालय श्रीकृष्णचन्द्र उसे अपना चरण स्पर्श दान करने के लिये चञ्चल हो उठे हैं, वे स्वयं उसे अतिशय विनम्र बताकर ही छोड़ेंगे और यह लो, वे दौड़ चले, द्रुति गति से उसके समीप आ गये। उनका वह वाम हस्त-कमल ऊपर उठा, सबसे ऊपर उठे हुए कुछ फनों पर एक अत्यन्त हल्की थपकी-सी उन्होंने लगा दी। फिर तो न जाने उस किसलय-कोमल कर में कितना भार कालिय को प्रतीत हुआ और वे उन्नत फन उस भार से नमित हो ही गये। इतना ही नहीं, उनका वह पीत दुकूल विद्युत-रेखा-सा झलमल कर उठा और पलक गिरते-न-गिरते नीलसुन्दर उन्हीं झुके हुए से विस्तृत फनों पर अनायास उछल कर चढ़ गये- ठीक ऐसे मानो उन्हें अपने शेषशायी स्वरूप की स्मृति हो आयी हो और चिर अभ्यस्त होने के कारण अपनी शय्या पर ही वे सुख पूर्वक आरोहण कर रहे हों!-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10।16।26)
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