श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
68. श्रीकृष्ण का कालिय को अपने चारों ओर घुमाकर शान्त कर देना और फिर उसके फनों पर कूद कर चढ़ जाना, ललित नृत्य करने लगना; देवताओं द्वारा सुमन-वृष्टि तथा ऋषियों द्वारा स्तव पाठ, गन्धर्वों द्वारा गान एवं चारणों द्वारा वाद्य सेवा; कालिय का अन्त समय में प्रभु को पहचान लेना और उनकी शरण वरण करना
कालिय अपने इस अचिन्त्य सौभाग्य को अनुभव न कर सका, योगीन्द्र-मुनीन्द्र-दुर्लभ श्रीकृष्णचरण सरोरुह का स्पर्श प्राप्त कर वह परम कृतार्थ हो चुका है, यह अनुभूति उसे नहीं हुई- यह सत्य है। पर अन्तरिक्ष तो ‘जय-जय’ नाद से तत्क्षण ही नादित हो उठा। ऐसे अत्यन्त अधम सर्प को भी अपनी कृपा का अयोचित दान व्रजेन्द्र नन्दन दे सकते हैं, यह प्रत्यक्ष देखकर देववृन्द के आनन्द का पार नहीं रहा है। उन सबके अपलक नेत्र केन्द्रित हो गये हैं- नीलसुन्दर के पदकमलों पर ही। इस समय उन मृदुल चरणों की शोभा भी देखते ही बनती है। कालिय-मस्तक में स्थित मणि समूहों के सम्पर्क में आकर वे चरणाम्बुज अतिशय अरुणिम प्रतीत हो रहे हैं और अब देखो, नृत्य के तालबन्ध का एक विचित्र-सा कम्पन उनमें भर आया है। ओह! स्पष्ट ही तो है- समस्त कलाओं के आदि गुरु ये व्रजेन्द्र नन्दन कालिय फनों पर नृत्य करने जो जा रहे हैं। एक प्राकृत नट भी अपनी कला का प्रदर्शन करने जाकर, विविध आश्चर्यमय उपकरणों के सहारे नाच कर अपने कौशल का परिचय देता है, मृत्तिका पात्रों पर, आकाश में टँगे रज्जु-खण्ड पर, सूक्ष्म तारों पर विविध तालबन्धों की रचना कर दर्शक को मुग्ध कर देता है। फिर अखिल कला प्रवर्त्तक सकल-कला निधि श्रीकृष्णचन्द्र कालिय-फन की रंग शाला में ही अपनी कला का दर्शन करायें, निर्निमेष नयनों से उनकी ओर ही देखते हुए अपने स्वजन व्रजपुर वासियों के प्राणों को शीतल करें, इसमें आश्चर्य ही क्या है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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