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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
26. स्वयं यशोदा के द्वारा दधिमन्थन तथा श्रीकृष्ण का जननी को रोककर उनका स्तन्य पान करना
पाँच प्रहर पूर्व व्रजेश्वर शत-सहस्र गोपों के सहित गोवर्धन की उपत्यका में चले गये। व्रजेश्वर के पिता श्रीपर्जन्य गोप के समय से प्रतिवर्ष होते आये मुख्या महोत्सव-इन्द्रया की[1] तिथि आ गयी थी, उसी का बृहत आयोजन करने वे गये हैं। गत सांयकाल से पूर्व ही नन्दभवन की समस्त परिचारिकाएँ भी यज्ञ सम्बन्धी रन्धनकार्य के लिये वहाँ चली गयीं। व्रजेश्वरी की परिचर्या के लिये कुछ रह गयी थीं; किंतु व्रजरानी ने उनमें से अनुभव कर रही थी कि केवल चार-पाँच को ही यशोदारानी आदेश देकर भेज रही हैं, शेष को अपने समीप रख लिया है। यदि उन्हें यह प्रतीत होता है कि व्रजेश्वरी अकेली रह गयी हैं तो वे कदापि नहीं जातीं। इनके जाने से कुछ क्षण पूर्व श्रीरोहिणी जी बलराम को लेकर उपनन्द के घर चली गयी थीं। उपनन्द पत्नी का अतिशय आग्रह था कि श्रीरोहिणी जी एक रात्रि के लिये भी हमारे गृह अवश्य पधारें। यशोदारानी से चार पहर के लिये अलग होना रोहिणी के लिये यद्यपि अत्यन्त कठिन कार्य है, पर उपनन्द पत्नी का प्रेम-निर्बन्ध भी इतना विशुद्ध-इतना प्रबल था कि बलराम-जननी को झुकना ही पड़ा। गृहकार्य की व्यवस्था दासियों को भलीभाँति समझा-बुझाकर यशोदा रानी एवं यशोदानन्दन के पास ही अपना मन रखकर रातभर के लिये वे चली गयीं। इस प्रकार स्वयं सब कुछ अपने हाथों से सँवारकर श्रीकृष्णचन्द्र को तृप्त करने की लालसा-जननी की चिरपोषित अभिलाषा की पूर्ति का सुयोग घट गया। सबके चले जाने पर एकाकिनी व्रजमहिषी ने कितनी उमंग से पद्मगन्धा गौओं का दोहन किया है, सर्वथा नवीन पात्र में दुग्ध-संचय कर उसे औटाया है, जोरन देकर दही जमाया है; यह करके नीलमणि को वक्षःस्थल पर धारणकर कितनी उत्कण्ठा से निशा ढल जाने की प्रतीक्षा करती रही हैं; चिदानन्दमयी निद्रा का आवरण डालकर सारी रात सुख-समुद्र में संतरण करती रही हैं- इसकी कल्पना किसे हो सकती है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अपने आठवें वर्ष की लीला में श्रीकृष्णचन्द्र इसी इन्द्रयाग को गोवर्धनपूजा का रूप देंगे।
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