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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
46. वन भोजन लीला का उपक्रम, वयस्य गोप-बालकों के द्वारा श्रीकृष्ण का श्रृंगार तथा श्रीकृष्ण के साथ उनकी यथेच्छ क्रीड़ा
श्रीकृष्णचन्द्र का त्रिभुवमोहन आज का वह वत्सपालेवश देखते ही बनता है-
‘वाम करकिसलय वेणु से सुशोभित है, दक्षिण कर में सुन्दर यष्टि (छड़ी) है। कक्ष में बेंत एवं पत्रमण्डित अद्भुत श्रृंग दबाये हुए हैं। अलकावली मोरमुकुट से मण्डित है। सुन्दर कण्ठदेश गुंजाहार से राजित हो रहा है। कर्ण युगल युग्मकुवलय से विभूषित हैं।’ जननी यशोदा के अगणित रत्नहार, रत्नाभूषणों में से आज किसी को श्रीअंग पर स्थान नहीं मिला। आज तो श्रीकृष्णचन्द्र वन में ही रहेंगे। जननी ने भी अचिन्त्य प्रेरणावश तदनुरूप ही श्रृंगार धराये हैं। फिर अवकाश ही कहाँ था कि जननी अपने नीलसुन्दर को समस्त श्रृंगार धारण करा सकें। एक क्षण का विलम्ब भी श्रीकृष्णचन्द्र को असह्य जो हो गया था। मैया का मन भी रह-रहकर इस ओर आकर्षित हो रहा था कि अधिक से अधिक छीकों में अधिक से अधिक भोजनद्रव्य श्रीरोहिणी एवं पचिारिकाएँ भर पायीं कि नहीं। कहीं वन में सखाओं को वितरण करते-करते स्वयं नीलमणि के लिये भोज्य वस्तुओं की त्रुटि न पड़ जाय मैया को तो यह चिन्ता लगी थी। श्रृंगार के बिना ही उनके परम सुन्दर साँवरे पुत्र से सौन्दर्य किरणें झरती रहती हैं, रत्नाभरण आज न सही! बस, अधिक से अधिक खाद्य सामग्री वन में भेजी जा सके, मैया के लिये यही प्रमुख प्रश्न था और इसीलिये आज श्रीकृष्णचन्द्र का छीका बहन करने वाले गोप सेवकों की संख्या भी मैया ने बढ़ायी है, बहुत अधिक बढ़ायी है श्रृंगार-सामग्री की नहीं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीआनन्दवृन्दावनचम्पूः)
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