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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
41. दैनिक वत्सचारण-लीला का वर्णन
जब छकहारी परिचारिकाएँ लौटने लगतीं, तब वयस्क गोपशिशुओं को आदेश दे जातीं-
‘अरे, ओ, सुनते हो, शीघ्र ही व्रजराजप्रणयिनी यशोदा के प्राणों के प्राण इस नीलसुन्दर को घर लौटा ले जाता है।’ तब तक सचमुच दिन भी ढलने लगता। मुख में पुष्प-तृण का ग्रास लिये गोवत्सों को धीरे-धीरे चराते हुए श्रीकृष्णचन्द्र उन्हें व्रज की ओर हाँक देते। पथ में भी उनकी क्रीड़ा होती ही रहती। कभी सुमधुर राग अलापते, कभी नृत्य का झंकार गूँज उठता, कभी हँस-हँसकर बालकों को हँसाने लग जाते। न जाने उनके साथ मिलकर कितनी ऊधम करते, उनकी क्रीड़ा की इति जो नहीं। ऊपर से अमरवृन्द राशि-राशि कुसुमों की वर्षा करते रहते, पथ दिव्य कुसुमों से आस्तृत हो जाता और उस पर मन्द-मन्थर गति से चरण-निक्षेप करते हुए श्रीकृष्णचन्द्र अपने गृह की ओर चलते रहते-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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