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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
40. श्रीनन्दनन्दन का वत्सचारण-महोत्सव तथा अन्यान्य गोपबालकों के साथ बलराम-श्याम का वत्सचारण के लिये पहली बार वन की ओर प्रस्थान तथा वन में सबके साथ छाकें आरोगना
श्रीकृष्णचन्द्र के इन महामहिम चरण सरोजों का स्पर्श पाकर वसुधा स्वयं नित्य पुलकित होती रहती है। धरा की अधिकष्ठात्री को आज इस समय भी प्रतीत हो रहा है, श्रीकृष्णचन्द्र के चरण संचारण से सुधा की वर्षा हो रही है, उससे उनका अणु-अणु सिक्त हो रहा है। वृन्दावन की अधिदेवी भी, जिस पथ से श्रीकृष्णचन्द्र आयेंगे, जहाँ-जहाँ उनके लीला-विहार की मन्दाकिनी प्रसरित होगी, उसे सँवारने में स्वयं व्यस्त हैं, अपने कोष की समस्त सम्पदा देकर वे धरा को सहयोग दान कर रही हैं। व्रजेन्द्रनन्दन के सुकोमल चरण स्थापित होने योग्य रूप तो भूमि अपने असव धारण कर रही है, अवशिष्ट आवश्यक श्रृंगार स्वयं विभूषित होती जा रही है-
अस्तु, अभी भी अपने बाबा को, जननी को अनुगमन करते देख श्रीकृष्णचन्द्र उनसे लौटने का आग्रह करते हैं।-‘बाबा! अब आगे मत जाओ। मैया! देख, तू कितनी दूर आ गयी, अब लौट जा। सचमुच तू विश्वास कर ले, हम सबको वत्सचारण करना आता है; किसी प्रकार की आशंका तुम सब मत करो।’-इस प्रकार मधुकण्ठ से व्रजदम्पति को आप्यायित करते हुए उन्हें वहीं से लौटा देने के लिये वह तुल गये। पुत्र के इस प्रेमिल आग्रह के सामने नन्ददम्पति की एक नहीं चलती। वे लौटना स्वीकार कर लेते हैं, पर लौटने से पूर्व वात्सल्य की सरस धारा बहाते हुए दोनों अपने पुत्र को न जाने कितनी शिक्षा दे जाते हैं। शिक्षा का सारांश इतना ही है-‘मेरे लाल! दूर मत जाना। बस, यहीं आगे की इस हरित तृण संकुल भूमि पर ही आज वत्सचारण कर लेना। विलम्ब मत करना, भला! शीघ्र घर लौट आना।’ इस प्रकार पुत्र को समझा-बुझाकर व्रजेश्वर व्रजरानी- दोनों लौटे तो अवश्य, पर अपने मन-प्राण आदि सब कुछ वहीं नीलमणि के पास ही रख आये। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीगोपालचम्पूः)
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