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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
40. श्रीनन्दनन्दन का वत्सचारण-महोत्सव तथा अन्यान्य गोपबालकों के साथ बलराम-श्याम का वत्सचारण के लिये पहली बार वन की ओर प्रस्थान तथा वन में सबके साथ छाकें आरोगना
मैया यशोदा की इस आकुलता की छाया मानो गोवत्सों को स्पर्श करती है, वे जननी की हृदय वेदना को जैसे जान गये हों। सचमुच उपानह की समस्याओं को तो उन्होंने प्रकारान्तर से हल कर ही दिया। वे पाँच-दस तो हैं नहीं, इतनी अधिक संख्या हैं कि उनकी गणना होनी अत्यन्त दुष्कर है और वे कूदते हुए आगे बढ़ रहे हैं, अपने तीक्ष्ण खुरों से पृथ्वी को खोदते हुए, वनपथ की रजःकणिकाओं को पीसते हुए जा रहे हैं। उन असंख्य गो शावक-खुरों के आघात से वह मृण्मयी रेणुका पुष्प-पराग जैसी सुकोमल बन गयी है। कंकड़, कण्टक आदि भी चूर्ण-विचूर्ण हो गये हैं। श्रीकृष्णचन्द्र अतिशय सुखपूर्वक उस भूमि पर अपने चरण-निक्षेप कर सकें, ऐसा उसे उन सबने बना डाला है-
इसके अतिरिक्त-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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