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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
6. कंस के भेजे हुए श्रीधर नामक ब्राह्मण का व्रज में आगमन और व्रजरानी के द्वारा उसका सत्कार
सिर पर कलसी रख कर व्रजरानी यमुना तट की ओर चल पड़ीं। दासियों ने पैर पकड़ लिये, सभी अनुनय-विनय करने लगीं, पर नन्द महिषी ने किसी की नहीं सुनी। श्री रोहिणी ने एक हाथ बढ़ाकर कलसी थाम ली एवं दूसरे से श्रीयशोदा की ठोड़ी छू कर बड़े प्यार से कहा - ‘बहन! तू रहने दे, मैं जल भरकर ला देती हूँ।’ किंतु व्रजेन्द्रगेहिनी ने आज श्री रोहिणी की बात भी टाल दी, उनका निवारण भी न माना। मानती कैसे? वे तो सोच रही हैं - सच्ची सेवा वह है, जो स्वयं की जाय; इस जल से इन अम्यागत ब्राह्मण की सेवा होगी, भूदेव इससे भोजन बनायेंगे; भोजन पाकर जब तृप्त हो जायेंगे, तब मैं अपने इस साँवरे शिशु को इनके चरणों में रख दूँगी; मेरी सेवा से प्रसन्न हो कर ये मेरे लाल को अमोघ आशीर्वाद देंगे, मेरा साँवरा चिरजीवी हो जायगा।’ अतः सबको समझा बुझाकर अपने हाथों जल लाने वे चली ही गयीं। सरल हृदया जननी यशोदा किंचिन्मात्र भी अनुसंधान न पा सकीं कि रक्षक के रूप में यह भक्षक उपस्थित हुआ है; यह जगत्पूज्य ब्राह्मण नहीं, कंस पूज्य नाम मात्र का ब्राह्मण श्रीधर है; केवल कलेवर मात्र ब्राह्मण का है, इसके सारे कर्म तो राक्षस के हैं; कंस का भेजा हुआ यह यहाँ आया है और आया है यशोदा नन्दन का प्राण-हरण करने की पैशाचिक नीच अभिसंधि लेकर! श्री यशोदा के पीछे-पीछे द्वारदेश तक रोहिणी जी भी चली आयीं थीं। नन्दरानी के महावर लगे हुए सुकोमल चरणों की ओर देखती हुई वे चिन्ता कर रही थीं - प्रसव हुए कल तीसवाँ दिन था; नन्दरानी कल द्वितीय बार यमुना-पूजन करने गयी थीं, इस थोड़े-से परिश्रम से ही लौटते समय वे थक गयीं थीं; फिर आज जल से भरी कलसी कैसे उठाकर लायेंगी? इस विचार से रोहिणी का करुण हृदय एक बार धड़क उठा। मन में आया, मैं पीछे-पीछे जा पहुँचूँ। पर ऐसा करने से दोनों शिशु घर में अकेले रह जाते हैं। साथ ही श्री नारायण-देव की भोग सामग्री प्रस्तुत करने का भी त्वरा है; क्योंकि आज पहले से ही श्रीधर ब्राह्मण की अभ्यर्थना में लग जाने से पर्याप्त विलम्ब हो चुका है। इसलिये रोहिणी मैया पुनः आँगन में लौट आयीं। उन्होंने दृष्टि घुमाकर हिंडोले पर सोये हुए शिशु की ओर देखा तथा एक बार सारी व्यवस्था ठीक कर आने के उद्देश्य से पाकशाला में चली गयीं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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