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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
24. श्रीकृष्ण की दूसरी वर्षगाँठ, श्रीकृष्ण के द्वारा मोतियों की खेती
अभी भी व्रजराज के द्वार पर गोपवनिताओं की भीड़ लगी है। कोई भी गोपसुन्दरी वहाँ से हटना जो नहीं चाहती। नन्दनन्दन की चेष्टाओं को परस्पर एक-दूसरी से बताकर सभी सुखसमुद्र में निमग्न हो रही हैं। इनके बीच से होकर वह गोपबाला यशोदारानी के पास चली जाती है। कुछ देर तक तो यों ही खड़ी रहती हैं। चकित होकर व्रजेश्वरी उससे आने का कारण पूछती हैं, पर वह कुछ भी नहीं बोलती। जब यशोदारानी अतिशय प्यार से अपने निकट बैठाकर उसके सिर पर हाथ फेरती हैं, तब किसी प्रकार आत्मसंवरण करके अपनी बात कहती है- ‘मैया! देखो, मैं अपने घर अकेली बैठी थी, तुम्हारे नीलमणि ने वहाँ जाकर मेरा मुक्ताहार तोड़ दिया।’ इसी समय श्रीकृष्णचन्द्र वहाँ आ पहुँचते हैं। जननी के द्वारा दिये हुए मणिमयूर (खिलौना) को वे साथ ले जाना भूल गये थे, उसी को लेने आये हैं। जननी उन्हें अपने समीप बुलाती हैं, मुक्ताहार तोड़ने के सम्बन्ध में पूछती हैं। श्रीकृष्णचन्द्र भी सर्वथा सत्य उत्तर देते हैं। घटना सुनने पर उपस्थित गोपसुन्दरियों का हृदय आनन्द से भर जाता है। जननी के मुखारविन्द पर हँसी छा जाती है। वे पास खड़े अपने नीलमणि को गोद में उठा लेती हैं, कपोलों का चुम्बन करके उनके कान में धीरे-धीरे कुछ समझाती हैं। फिर अपने कण्ठ का बहुमूल्य मुक्ताहार निकालकर नीलमणि के हाथ पर रख देती हैं। ‘ले! यदि मैंने तेरा हार तोड़ दिया है तो तू बदले में यह मुक्ताहार ले जा।’- यह कहते हुए श्रीकृष्णचन्द्र उस हार को गोपबाला के हाथ पर रख देते हैं तथा अपना मणिमयूर लेकर बाहर की ओर दौड़ जाते हैं। यशोदारानी उस मुक्ताहार को उठाकर गोपसुन्दरी के गले में डाल देती हैं। हार पाकर उसकी क्या दशा हुई, यह तो केवल वही जाती है। पर उसका यह अप्रतिम सौभाग्य निहारकर अन्य गोपतरुणियों का तो रोम-रोम पुलकित हो उठा। साथ ही उन सबके अन्तस्तल में यह लालसा जग उठी- ‘ओह! कदाचित हमारा भी यह सौभाग्य होता-नन्दनन्दन के सुकोमल करपल्लव से स्पृष्ट मुक्ता का एक दाना भी कहीं हम पा जातीं।’ |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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