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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
24. श्रीकृष्ण की दूसरी वर्षगाँठ, श्रीकृष्ण के द्वारा मोतियों की खेती
अपने घर तुमुल आनन्दनाद सुनकर गोपबाला के नेत्र खुल गये। उसने देखा- अपनी नवनीरद-कान्ति से भवन को उद्भासित करते हुए श्रीकृष्णचन्द्र मेरे सामने खड़े हैं। गोपसुन्दरी ठीक निर्णय न कर सकी कि यह जाग्रत है या स्वप्न। पर उसके प्राणों में एक अभूतपूर्व उल्लास भर गया। इतने में वीणा विनिन्दित मधुरातिमधुर कण्ठ से श्रीकृष्णचन्द्र बोल उठे-‘क्यों री! तू मेरे घर नहीं आयी? और सब ग्वालिने तो वहाँ हैं।’ और यह कहकर वे हँसने लगे। गोपबाला को प्रतीत हुआ- मानो उसके कर्णपुटों में किसी ने सुधा ढरका दी हो, मधु की धारा बहा दी हो। उन्मत्त-सी हुई वह उठ खड़ी हुई, श्रीकृष्णचन्द्र की ओर दौड़ी। श्रीकृष्णचन्द्र उसे आते देखकर भागने लगे, पर उसने तो विद्युद्गति से आकर उनका एक हाथ पकड़ लिया। फिर तो श्रीकृष्णचन्द्र को भय होने लगा कि पता नहीं, इसने क्यों पकड़ लिया, क्या करेगी। वे हाथ छुड़ाने की चेष्टा करने लगे। पर ग्वालिन हाथ छोड़ जो नहीं रही है। बार-बार वे उससे कहते हैं- ‘री! तूने मुझे पकड़ा क्यों? छोड़ दे, मुझे विलम्ब हो रहा है।’ किंतु वह न तो छोड़ती है न कोई उत्तर देती है। केवल हँसने लगती है। आखिर वे अपने छूटने की युक्ति निकाल लेते हैं। गोपसुन्दरी के वक्षःस्थल पर झूलते हुए मुक्ताहार को दूसरे हाथ से खींचकर तोड़ डालते हैं। मोती भूमि पर बिखेरने लगते हैं। अस्त-व्यस्त हुई गोपसुन्दरी उन मोतियों को सँभालने जाती है तथा इसी बीच में श्रीकृष्णचन्द्र का हाथ छूट जाता है और वे भाग निकलते हैं। गोपसुन्दरी ने मोती के दो-चार दाने तो चुनकर अंचल में रख लिये, पर उसे ऐसा प्रतीत होने लगा- आह! मेरा मनरूप मणि हरकर श्रीकृष्णचन्द्र चले गये हैं। अविलम्ब वह भी उस टूटे हुए मुक्ताहार को हाथ में लिये सर्वथा बावली-सी हुई नन्दभवन की ओर चल पड़ती है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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